नेताजी के चहेते शिष्य आबिद हसन ने दिया था ‘जय हिंद’ का नारा

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 20-01-2021
आबिद हसन सफरानी
आबिद हसन सफरानी

 

 

मलिक असगर हाशमी

सेना और पुलिस ही नहीं, आम जनता के बीच भी ‘जय हिंद’ का बड़ा महत्व है. उनकी कोई भी परेड इस नारे के बगैर संपन्न नहीं होती. इसी तरह देशभक्ति से ओत-प्रोत कार्यक्रम हो या राजनीतिक दलों के नेताओं के भाषण, बिना यह नारा लगाए पूरा नहीं होता. यहां तक कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी जनता और आजाद हिंद फौज के सेनानियों में जोश भरने के लिए ‘जय हिंद’ का खूब जयघोष करवाते थे. मगर यह बहुत कम लोगों को पता है कि इस नारे के जनक थे नेताजी के दो साल तक पीए रहे आबिद हसन सफरानी.

आबिद हसन सफरानी न केवल सुभाषचद्र बोस के करीबी थे, बल्कि आजाद हिंद फौज में मेजर के पद पर भी रहे. फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन की पहल पर स्वतंत्रता सेनानी चौधरी आचार्य ने तेलुगू में उन पर एक किताब लिखी है, जिसमें उनके जीवन से संबंधित कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं.इस पुस्तक में खुलासा किया गया कि ‘जय हिंद’ का नारा आबिद हसन ने गढ़ा था, जिसे बाद में सुभाषचंद्र बोस ने अपना लिया.

नेताजी लोगों में जोश भरने के लिए अपने जलसा-जुलूसों में भीड़ से यह नारा लगवाते थे. बाद में यह इतना प्रचलित हो गया कि गांधी, नेहरू सहित तमाम नेताओं ने इसे आत्मसात कर लिया.आज भी इस नारे की अहमियत कम नहीं हुई है. इस नारे को लगाकर देशवासी खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. इस नारे की खूबसूरती यह भी है कि इसे लगाने पर भाषा, संस्कृति और महजब के नाम पर बखेड़ा खड़ा नहीं किया जा सकता.

चौधरी आचार्य की पुस्तक के मुताबिक, भारत की स्वतंत्रता को लेकर नवंबर, 1941में बर्लिन में आयोजित ‘फ्री इंडिया सेंटर्स’ की पहली बैठक में सफरानी ने ‘जय हिंद’ का नारा दिया था, जो सुभाषचंद्र बोस को बहुत पसंद आया और उसे सदा के लिए अपना लिया. वह बोस के करीबी होने के नाते अंतिम समय तक उनके साथ रहे. जर्मनी की अंतिम यात्रा में भी उन्होंने साथ की थी. इस यात्रा का वृत्तांत बोस के भतीजे शिशिर कुमार बोस की पुस्तक ‘आईएनए इन इंडिया टुडे’ में दर्ज है.

देशभक्त परिवार और भाषा पर पकड़

हैदराबाद में 1912 में जन्मे आबिद हसन का संबंध एक देशभक्त परिवार से था. डिस्टिंक्शन से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद वह उच्च शिक्षा के लिए बर्लिन चले गए. वहीं बोस के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर वह आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए.उनकी नेतृत्व क्षमता के बोस भी कायल थे, इसलिए उन्हें संगठन की कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां उन्हें सौंप रखी थीं.

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि वह अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, अरबी, फारसी, संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तेलुगु, पंजाबी सहित कई भाषाएं धाराप्रवाह बोल लेते थे. उनकी नेतृत्व क्षमता को देखते हुए उन्हें आजाद हिंद फौज के ‘गांधी ब्रिगेड’ के प्रमुख की जिम्मेदारी गई थी.इम्फाल में ब्रिटिश सेना के सामने आत्मसमर्पण करने पर उन्हें ऐसी जगह रखा गया था, जहां रोशनी के लिए एक खिड़की तक नहीं थी. उन्होंने अपनी मां को लिखे एक पत्र में इसका जिक्र किया है.

गांधी, नेहरू और नेताजी बुलाते थे ‘अम्मा जान’

आबिद के पिता जाफर हसन हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में डीन थे और मां बेगम अमीर हसन कट्टर गांधीवादी. जाफर हसन के दो बेटे थे बदरुल हसन और आबिद हसन, जिन्हें बचपन से घर में देशभक्ति की घुट्टी पिलाई गई. परिवार के सभी लोग महात्मा गांधी के करीबियों में गिने जाते थे. यहां तक कि उनका साबरमती आश्रम भी आना-जाना था.

1925 में महात्मा गांधी द्वारा लिखित पुस्तक ‘यंग इंडिया’ का संपादन करने वाले बहदुरूल हसन लिखते हैं कि जब भी हसन का परिवार गांधी जी से मिलने आश्रम आता था, उन्हें लेने गांधी जी के सचिव प्यारेलाल रेलवे स्टेशन जाया करते थे. उनकी मां मृत्यु तक खांटी गांधीवादी बनी रहीं. वह खादी पहनती थीं और एक छोटे से कमरे में संयमित जीवन जीती थीं.

उनकी मां बेगम अमीर हसन सफरानी (1870-1970) ने अपनी पैतृक संपत्ति देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वालों पर न्यौछावर कर दी थी. वह सरोजिनी नायडू की दोस्त थीं. उन्हें गांधी, नेहरू, नेताजी और अबुल कलाम आजाद प्यार से ‘अम्मा जान’ बुलाते थे.

आज भी हैदराबाद के ट्रूप बाजार में ‘आबिद मंजिल‘ नाम से उनका पैृतक निवास स्थान मौजूद है. गांधी के आह्वान पर 1920में विदेशी कपड़े जलाने का अभियान यहां भी चला था.

 

और जब नेहरू को देखकर बोले ‘जय हिंद’

नेताजी के भतीजे शिशिर कुमार बोस ने अपनी पुस्तक में सुभाषचंद्र बोस और आबिद हसन सफरानी के जर्मनी, पनडुब्बी और इम्फाल के जंगलों की यात्राओं का विशेष तौर से जिक्र किया है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद सफरानी को छह साल की जेल हुई थी. तब उनकी मां बेगम अमीर हसन यह सोच कर परेशान रहने लगी थीं कि उनके पुत्र को ‘लाल किला मुकदमे’ में मौत की सजा न सुनाई जाए.

आजाद हिंद फौज के कई जवानों को मुक्ति आंदोलन के दौरान गोलियां खानी पड़ी थीं. बेगम अमीर हसन अपने बेटे को बचाने को लेकर गांधी, नेहरू और सरोजिनी नायडू से भी मिलीं थीं. बाद में नेहरू और गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबेटन के हस्तक्षेप के बाद उन्हें सजामुक्त कर दिया गया.

नेहरू ने इससे पहले सिंगापुर की एक जेल का दौरा किया था, जहां आजाद हिंद फौज के लोग रखे गए थे. उस दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को अलग कोने में बैठा देखा, तो पूछा कि क्या वह हैदराबाद से है. इस पर उक्त व्यक्ति ने ‘जय हिंद‘ के नारे के साथ न केवल उनका अभिवादन किया, ‘हां‘ में सिर भी हिलाया.

विदेशों में बढ़ाया भारत मिशन, आलोचना भी झेली

जेल से रिहाई के बाद सफरानी की तबियत खराब रहने लगी थी. तब हैदराबाद के बंजारा हिल्स स्थित उनके घर में उनके दोस्तों बंकट चंद्रा, एलिजाबेथ और सीएस वासु ने खूब तीमारदारी की. स्वस्थ होने पर उन्होंने कुछ कारोबार करने का प्रयास किया, पर सफल नहीं हुए. उसके बाद सिविल सर्विस की प्रतियोगी परीक्षा में बैठे और कामयाब हो गए. उनका इंटरव्यू खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिया था.

उन्होंने विदेश सेवा में कई वर्ष बिताए, इस दौरान मिस्र, इराक, तुर्की, सेनेगल, जाम्बिया, आइवरी कोस्ट जैसे कई देशों में भारतीय मिशन को आगे बढ़ाया. 1957में जब वह इराक में भारत के राजदूत थे, जॉर्डन के शाह हाशम-ए-फैजल की सेना के तख्तापलट के दौरान हत्या कर दी गई थी. तब वह बगदाद से अनुपस्थिति थे, जिसे लेकर संसद में सरकार को भारी आलोचना झेलनी पड़ी थी.

देशवासियों की एकजुटता में बिताई जिंदगी

सफरानी को कृषि और बागवानी से बड़ा लगाव था. सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने गोलकुंडा में बागवानी फार्म स्थापित किया था. वह हर साल जनवरी में अपने खेतों में उगने वाले फल, सब्जी आदि लेकर नेताजी के गृहनगर कोलकाता उनके परिजनों से मिलने जाते थे. यह अपने गुरु नेताजी सुभाषचंद्र बोस को याद करने का उनका खास अंदाज था.

सफरानी का 1984 में निधन हो गया. वह जब तक जीवित रहे देशहित में हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और अन्य धर्म-जाति के लोगों को एकजुट रखने की कोशिश में लगे रहे. गोलकुंडा में उनकी भतीजी सुरैया हसन, सफरानी के नाम से एक स्कूल चलाती हैं.

और भी हैं कई कहानियां

स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी गई विभिन्न पुस्तकों से आबिद हसन सफरानी के जीवन की कुछ और परतें खुलती हैं. इतिहासकार सैयद नसीर अहमद अपनी पुस्तक ‘द इमोर्टल’ में लिखते हैं, ‘‘सुभाष चंद्र बोस को सबसे पहले सफरानी ने ‘नेताजी’ कहा था. बाद में यह इतना प्रचलित हुआ कि उन्हें हर कोई इसी नाम से पुकारने लगा.”

इसी तरह लेखक नरेंद्र लूथर अपनी पुस्तक में लिखते हैं, “अवाम एवं आजाद हिंद फौज का अभिवादन करने के लिए नारे के चयन की जिम्मेदारी जब सफरानी को सौंपी गई, तो उन्हें पहले ‘हैलो’ शब्द सुझाया. इस पर नेताजी बिगड़ गए. उसके बाद ‘जय हिंद’ का नारा दिया, जो आज तक पॉपुलर है.”

 

उनके बारे में एक और दिलचस्प किस्सा है. बताते हैं कि फौज के झंडे के रंग के चयन की बात आई, तो हिंदू फौजियों ने भगवा रंग की पैरवी की. मगर इसका विरोध करते हुए मुसलमानों ने झंडे में हरे रंग के इस्तेमाल पर जोर दिया. बाद में हिंदू सैनिकों ने अपनी दावेदारी वापस ले ली. यह बात सफरानी के मन को कचोट गई. उन्होंने हिंदू फौजियों की भावना को सम्मान देने के लिए अपने नाम में ‘सफरानी’ (भगवा की अंग्रेजी सैफरन है) लगा लिया. उनका वास्तविक नाम जैनुल आबदीन था.