पार्ट 3: आज बृज में होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 04-03-2023
पार्ट 3: आज बृज में होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया
पार्ट 3: आज बृज में होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया

 

ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली

होली के त्योहार के कई रूप देखने को मिलते हैं. रंगों के साथ फूलों की होली की परंपरा का निर्वहन होता है. कृष्ण नगरी के मंदिरों में एक माह से भी अधिक समय तक चलने वाले इस उत्सव में ठाकुरजी अपने भक्तों के साथ नित्य होली खेलते हैं. होली उत्सवों का शुभारंभ बसंत पंचमी के दिन ही हो जाता है और समापन धुलैड़ी के दिन होता है. 

हालांकि, कुछे इलाकों में इसके एक पखवाड़े बाद तक होली की धूम रहती है. ब्रज स्थित बरसाने के लाड़लीजी के मंदिर की होली तथा बलदेव के दाऊजी मंदिर का हुरंगा होली के ऐसे अनुपम समारोह हैं जिनका आनंद लेने अपने देश के ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में विदेशों से भी पर्यटक इस दौरान यहां आते हैं.

बसंत पंचमी के दिन बरसाने के लाड़लीजी मंदिर में रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर बसंती फूलों का बंगला सजाकर श्रीराधाजी के दर्शन कराए जाते हैं. सेवायत पुजारी श्रीराधाजी के चरणों में अबीर-गुलाल अर्पित करके होली उत्सव की शुरुआत करते हैं. देवालय में सेवक गोस्वामी समाज पारम्परिक होली धमारों का गायन करते हैं, जिसे ‘समाज गायन’ कहा जाता है.

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन नंदगांव के मंदिर का पुजारी श्रीकृष्ण का सखा प्रतीक बनकर बरसाने के लाड़लीजी मंदिर में पहुंचता है. लाड़लीजी मंदिर में गोस्वामियों की समाज गायन गोष्ठी होती है. इसमें नंदगांव के कृष्ण सखा के रूप में आए पुजारी को भी नृत्य करना होता है और वह नंदगांव की ओर से बरसाने में होली खेलने आने का निवेदन करता है. इसे बरसाने के गोस्वामी सहर्ष स्वीकार करते हैं. अगले दिन नंदगांव के गोस्वामी परिवारों का दल सज-धजकर मोरपंखयुक्त रंगीन पाग बांधकर गाते-बजाते बरसाने पहुंचते है. ये हुरियारे बरसाने के राधारानी मंदिर पहुंचकर बरसाने की गोपकुमारियों को उकसाते हुए गाते हैं.

बरसाने तथा नंदगांव के गोस्वामियों के बीच हास-परिहास करते हुए एकदूसरे को गुलाल लगाकर स्वागत किया जाता है. इसके पश्चात सभी हुरिहारे देवालय से नीचे रंगीली गली में आ जाते है, जहां बरसाने के गोस्वामियों की महिलाएं राधारानी तथा गोप बालाओं के प्रतीक के रूप में गोटा-किरानी की ओढ़नी तथा लम्बा घूंघट निकाले हाथों में लम्बे-लम्बे लठों के साथ नंदगांव के हुरियारों का प्रेम से स्वागत करती हैं.

हुरिहारिनों की होली 

गली के नीचे मकानों की छतों पर देश-विदेश के हजारों सैलानी बरसाने की इस अनुपम होली को देखने के लिए एकत्रित होते हैं. इसी के साथ हर तरफ चमड़े की ढालों के नीचे छुपते-छुपाते बरसाने की हुरिहारिनों के लठों की मार से अपने आपको बचाते नंदगांव के हुरियारे आनंद और मस्ती में डूबे नजर आते हैं. ठीक इसी प्रकार दूसरे दिन बरसाने के गोस्वामी भी नंदगांव जाते हैं. यहां भांग और ठंडाई से उनका स्वागत किया जाता है और लठामार होली खेली जाती है.

ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण होली के समय बरसाना आए थे. यहां पर कृष्ण द्वारा राधा और उनकी सहेलियों को चिढ़ाने के बाद राधा अपनी सखियों के साथ लाठी लेकर कृष्ण के पीछे दौड़ पड़ीं. तभी से बरसाने में लठामार होली शुरू हुई. बरसाना में लोग हर साल लठामार होली मनाते हैं. निकटवर्ती क्षेत्रों से लोग बरसाने और नंदगांव में इस होली उत्सव को देखने के लिए आते हैं.

लठामार होली

लठामार होली में महिलाएं लठ से पुरुषों को मारती हैं. ब्रज के मंदिरों की होली उत्सव का एक विचित्र स्वरूप बलदेव के दाऊजी के देवालय का ‘हुरंगा’ है. इसका आयोजन धुलैड़ी के दूसरे दिन होता है. हुरंगा से पहले ब्रज के ठाकुर दाऊदयाल के देवालय में धमार का समाज गायन होता है. मंदिर के सेवकों की महिलाएं अपने देवरों पर डोलची से रंग डालती हैं तथा रंग से भीगे कपड़ों के कोड़े बनाकर उन्हें मारती हैं.

हुरंगा

पुरुष पिचकारियों से ब्रज बालाओं पर रंग बरसाते हैं. हुरंगा का असली सौन्दर्य उस समय देखने को मिलता है जब ब्रज बालाएं अपने देवरों के कपड़े फाड़कर उनका कोड़ा बनाकर पीटना शुरू करती हैं. हुरंगा में पुरुष अपनी भाभियों से कपड़े फड़वाकर पिटने में गौरव का अनुभव करता है, वे अपने आपको धन्य मानते हैं. हुरंगा का समापन ‘ध्वजा’ के साथ होता है.

‘चरकुला नृत्य’

कृष्ण द्वितीया से नवमी तक होली के बाद भी ब्रज के गांव-गांव में हुरंगा के आयोजन होते रहते हैं. इनमें स्त्री-पुरुष समान भाव से इसका रस प्राप्त करते हैं. इसी दौरान रात्रि को गांव की चौपालों और खुले मैदानों में ‘चरकुला नृत्य’ होता है. इसमें ब्रज बालाएं 30-40 किलो वजन का भारी भरकम चरकुला जिसमें जलते दीपकों के साथ सिर पर रखकर सुर-लय-ताल पर नृत्य करती हैं. इसे देखने देशी-विदेशी पर्यटक भी इन दूरस्थ गांवों में पहुंचते हैं.

बरसाना होली: बसंती फूलों का बंगला

बसंत पंचमी के दिन बरसाने के लाड़लीजी मंदिर में रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर बसंती फूलों का बंगला सजाकर श्रीराधाजी के दर्शन कराए जाते हैं. सेवायत पुजारी श्रीराधाजी के चरणों में अबीर-गुलाल अर्पित करके होली उत्सव की शुरुआत करते हैं. देवालय में सेवक गोस्वामी समाज पारम्परिक होली धमारों का गायन करते हैं, जिसे ‘समाज गायन’ कहा जाता है.

नंदगांव की होली 

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन नंदगांव के मंदिर का पुजारी श्रीकृष्ण का सखा प्रतीक बनकर बरसाने के लाड़लीजी मंदिर में पहुंचता है. लाड़लीजी मंदिर में गोस्वामियों की समाज गायन गोष्ठी होती है. इसमें नंदगांव के कृष्ण सखा के रूप में आए पुजारी को भी नृत्य करना होता है और वह नंदगांव की ओर से बरसाने में होली खेलने आने का निवेदन करता है. इसे बरसाने के गोस्वामी सहर्ष स्वीकार करते हैं। अगले दिन नंदगांव के गोस्वामी परिवारों का दल सज-धजकर मोरपंखयुक्त रंगीन पाग बांधकर गाते-बजाते बरसाने पहुंचते है. ये हुरियारे बरसाने के राधारानी मंदिर पहुंचकर बरसाने की गोपकुमारियों को उकसाते हुए गाते है.

बरसाने तथा नंदगांव के गोस्वामियों के बीच हास-परिहास करते हुए एकदूसरे को गुलाल लगाकर स्वागत किया जाता है. इसके पश्चात सभी हुरिहारे देवालय से नीचे रंगीली गली में आ जाते है, जहां बरसाने के गोस्वामियों की महिलाएं राधारानी तथा गोप बालाओं के प्रतीक के रूप में गोटा-किरानी की ओढ़नी तथा लम्बा घूंघट निकाले हाथों में लम्बे-लम्बे लठों के साथ नंदगांव के हुरियारों का प्रेम से स्वागत करती हैं.

ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण होली के समय बरसाना आए थे. यहां पर कृष्ण द्वारा राधा और उनकी सहेलियों को चिढ़ाने के बाद राधा अपनी सखियों के साथ लाठी लेकर कृष्ण के पीछे दौड़ पड़ीं. तभी से बरसाने में लठामार होली शुरू हुई. बरसाना में लोग हर साल लठामार होली मनाते हैं. निकटवर्ती क्षेत्रों से लोग बरसाने और नंदगांव में इस होली उत्सव को देखने के लिए आते हैं.

लठामार होली में महिलाएं लठ से पुरुषों को मारती हैं. ब्रज के मंदिरों की होली उत्सव का एक विचित्र स्वरूप बलदेव के दाऊजी के देवालय का ‘हुरंगा’ है. इसका आयोजन धुलैड़ी के दूसरे दिन होता है. असली सौन्दर्य उस समय देखने को मिलता है जब ब्रज बालाएं अपने देवरों के कपड़े फाड़कर उनका कोड़ा बनाकर पीटना शुरू करती हैं. हुरंगा में पुरुष अपनी भाभियों से कपड़े फड़वाकर पिटने में गौरव का अनुभव करता है, वे अपने आपको धन्य मानते हैं. हुरंगा का समापन ‘ध्वजा’ के साथ होता है.

कृष्ण द्वितीया से नवमी तक होली के बाद भी ब्रज के गांव-गांव में हुरंगा के आयोजन होते रहते हैं. इनमें स्त्री-पुरुष समान भाव से इसका रस प्राप्त करते हैं. इसी दौरान रात्रि को गांव की चौपालों और खुले मैदानों में ‘चरकुला नृत्य’ होता है. इसमें ब्रज बालाएं 30-40 किलो वजन का भारी भरकम चरकुला जिसमें जलते दीपकों के साथ सिर पर रखकर सुर-लय-ताल पर नृत्य करती हैं. इसे देखने देशी-विदेशी पर्यटक भी इन दूरस्थ गांवों में पहुंचते हैं.

 

होली के पश्चात ब्रज में नौ दिन तक होली के हुरंगे होते रहते हैं. इनमें हुरियारे व हुरिहारिनें होली खेलते हैं. कहीं कीचड़ से तो कहीं लाठियों से तथा कहीं-कहीं रंगों से होली खेली जाती है. इसमें गांव के सभी स्त्री-पुरुष समान भाव मेलजोल के साथ होली का भरपूर आनंद लेते हैं. इससे पहले, ब्रज में होलिका दहन के दौरान पंडा आग से होकर निकलकर भक्त प्रहलाद की भक्ति के दर्शन कराते हैं.

गांठोली का गुलाल कुंड राधा-कृष्ण के फाग से आज भी लालमलाल है. फागुन मास में आज भी कुंड का जल गुलाबी नजर आता है. गुजरात, महाराष्ट्र आदि स्थानों से आने वाले लोग कुंड पर होली खेलते हैं.

गोवर्धन से तीन किमी दूर स्थित गांठोली गांव का नामकरण होली-लीला से जुड़ा है. यहां होली खेलने के दौरान राधा माधव सिंहासन पर विराजमान थे. तब कुछ सखियों ने उनके वस्त्रों में गांठ लगा दी. इस लीला से ही गांव का नाम ‘गांठोली’ पड़ा. इस स्थल पर राधा-कृष्ण ने सखियों के साथ होली खेली थी.

कहा जाता है कि होली खेलने के बाद युगल सरकार व गोपियों ने इस कुंड में अपने अंग वस्त्र धोए थे. इससे कुंड का जल गुलाबी हो गया था. इसीलिए, यह गुलाल कुंड कहलाता है. कुंड के पास वल्लभाचार्य की बैठक है. यहां आने वाले वैष्णव कुंड में गुलाल अर्पित कर एकदूसरे से होली खेलते हैं.