आवाज द वॉयस/नई दिल्ली
करीब पाँच दशकों के राजनीतिक सफर में नीतीश कुमार ने बार-बार यह साबित किया है कि वह हर संकट, आलोचना और राजनीतिक चुनौती से उबरकर फिर खड़े होने की क्षमता रखते हैं। मंडल राजनीति के बाद उभरने वाले नेताओं में वह सबसे अलग रहे—प्रशासनिक सुधार, सरकारी तंत्र की दक्षता और सुशासन को पहचान दिलाने में उनकी भूमिका अहम रही। यही कारण है कि उन्हें ‘सुशासन बाबू’ भी कहा जाता है।
राजनीति में पाला बदलने को लेकर विरोधी अक्सर उन्हें ‘पलटू राम’ कहते रहे, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनकी रणनीति ने बिहार की सियासत को कई बार नई दिशा दी। बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत होने के बावजूद बिहार में अब तक अपना मुख्यमंत्री नहीं ला सकी, जबकि हालिया चुनाव में पार्टी को 89 और जदयू को 85 सीटें मिलीं। फिर भी सत्ता का संतुलन अक्सर नीतीश के हाथ में ही रहा।
कुमार देश के सबसे लंबे समय तक पद पर रहने वाले मुख्यमंत्रियों में शामिल हैं और लगभग 19 वर्षों तक बिहार की राजनीति की धुरी रहे हैं।
जेपी आंदोलन से निकले नीतीश ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी ठुकराकर राजनीति चुनी—और यह निर्णय उसी दृढ़ व्यक्तित्व की झलक था जिसे बाद में पूरा देश देखता है।
चुनावी सफलता उन्हें देर से मिली। 1985 में वह पहली बार हरनौत से विधायक बने और 1989 में बाढ़ से लोकसभा पहुंचे। इसी दौरान लालू प्रसाद तेज़ी से उभरे और राज्य की राजनीति पर छा गए। चारा घोटाले और नेतृत्व परिवर्तन के दौर में लालू के प्रभाव में कमी आई, जबकि नीतीश ने समता पार्टी बनाकर अपना राजनीतिक आधार मजबूत किया। बाद में यह पार्टी जनता दल में विलय हो गई और गठबंधन की राजनीति में नीतीश राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण चेहरा बनकर उभरे। साल 2004 में केंद्र में NDA की हार के बावजूद बिहार में भाजपा-जदयू की जीत ने नीतीश कुमार को नई ऊंचाई दी—और यहीं से उनके ‘फीनिक्स’ वाले राजनीतिक सफर का वास्तविक दौर शुरू हुआ।