मणिपुर: विस्थापित परिवारों के लिए घर वापसी सिर्फ पहला कदम

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 22-07-2025
Manipur: For displaced families, returning home is just the first step
Manipur: For displaced families, returning home is just the first step

 

इंफाल वेस्ट (मणिपुर)

दो साल से भी अधिक समय तक चले दर्द, भय और बेघरपन के बाद कई मैतेई परिवार इंफाल वेस्ट जिले के लामशांग सबडिविजन के कांगचुप गाँव लौट आए हैं। कभी बच्चों की हँसी और जीवन की चहल-पहल से गूंजने वाला यह गाँव आज भी मई 2023 में मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच भड़की जातीय हिंसा के काले निशानों को ढो रहा है। जलकर राख हुईं घरों की दीवारें अब भी उस त्रासदी की गवाही देती हैं, जिसने इन परिवारों को रातोंरात राहत शिविरों में शरण लेने पर मजबूर कर दिया था।

लेकिन अब, खंडहरों के बीच उम्मीद की लौ फिर से जलने लगी है।सरकार ने पूरे राज्य में हजारों विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की योजना की घोषणा की है। इससे इन गाँववासियों में न केवल अपने घरों को फिर से बनाने की, बल्कि उस सामाजिक ताने-बाने को भी संजोने की नई चाह जागी है जो कभी उनकी पहचान थी।

राहत शिविरों से लौटती जिंदगी

आंतरिक रूप से विस्थापित अंगोम ओंगबी मेमचौबी देवी ने ANI से बातचीत में कहा, "हम सरकार की इस पहल की बहुत सराहना करते हैं और अपने घर लौटने की संभावना से बेहद खुश हैं। दूसरों पर आश्रित रहना हमारे लिए बेहद कठिन और असहज रहा है।"

उन्होंने आगे कहा, "राहत शिविरों में जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण है। कई परिवार एक ही कमरे में ठुंसे रहते हैं। यहाँ तक कि प्री-फैब्रिकेटेड शेल्टर भी बहुत छोटे हैं और संलग्न बाथरूम के कारण रोज़मर्रा की ज़िंदगी असुविधाजनक हो जाती है। अपने घर लौटने का निर्णय हम दिल से स्वागत करते हैं।"

दो साल से राहत शिविरों में फंसे 50 हजार से अधिक लोग

जातीय हिंसा में मैतेई और कुकी-ज़ो समुदाय के 50,000 से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए थे। इनमें से अधिकांश ने पिछले दो साल राहत शिविरों में गुजारे हैं। कांगपोकपी जिले के फैयजांग क्षेत्र में बने लोहे की चादरों से तैयार अस्थायी शेल्टर आज भी उनकी मजबूरी का प्रतीक हैं। यहां 184 परिवारों के 896 लोग अब भी अनिश्चितता की जिंदगी जी रहे हैं। कुछ युवा पढ़ाई या नौकरी की तलाश में दूसरे जिलों में चले गए हैं, जबकि अधिकांश के पास कहीं और जाने का विकल्प नहीं है।

“दिल अब भी इंफाल में अटका है”

आईडीपी शिविर की प्रभारी मोमोई ने बताया, "यहां कोई बड़ी कठिनाई नहीं है। सरकार सभी आवश्यक सुविधाएं दे रही है। लेकिन इंफाल की याद हमें हर वक्त खलती है। हम बचपन से वहीं रहे, पढ़ाई की, कॉलेज गए। अब भी हम उसे याद करते हैं।"

थॉमस की अधूरी ख्वाहिशें

फैयजांग के शिविर में हम थॉमस से मिले, एक युवा जो धाराप्रवाह हिंदी बोलता है और पत्रकार बनने का सपना देखता है। इंफाल और दिल्ली में रह चुके थॉमस के लिए विस्थापन ने सपनों की राह को कठिन बना दिया है।

थॉमस कहते हैं, "कुकी समुदाय के हम लोग जो संघर्ष के कारण इंफाल नहीं लौट पा रहे, उन्हें इलाज के लिए सेनापति, फिर दीमापुर, गुवाहाटी या दिल्ली तक जाना पड़ता है। कई लोगों के घर जल गए, कुछ के घरों को लूट लिया गया, और कई परिवारों ने अपने प्रियजनों को खोया। मानसिक तनाव का शिकार लोग भी हैं।"

पुनर्वास की असली कसौटी

मैतेई और कुकी-ज़ो परिवारों की धीरे-धीरे हो रही घर वापसी इंसानी जज़्बे की अदम्य ताकत का प्रमाण है। लेकिन वास्तविक पुनर्वास केवल घर लौटने तक सीमित नहीं है। इसके लिए स्थायी शांति, पर्याप्त सुरक्षा और स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की गारंटी जरूरी है।तभी ये समुदाय अपने जीवन को सिर्फ जीने से आगे बढ़कर इज़्ज़त, उम्मीद और अपनत्व के साथ पुनर्निर्माण की राह पर आगे बढ़ पाएंगे।