नई दिल्ली
भारत के प्रधान न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई ने बुधवार को कहा कि न्यायपालिका ने हमेशा मानव गरिमा को संविधान की आत्मा के रूप में रेखांकित किया है और लगातार इसे एक मौलिक तथा स्वतंत्र अधिकार के रूप में मान्यता दी है।
वे यहां आयोजित ग्यारहवें डॉ. एल.एम. सिंहवी स्मृति व्याख्यान में बोल रहे थे। इस अवसर पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज, वरिष्ठ अधिवक्ता, शिक्षाविद, सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भी उपस्थित थे।
गवई ने विषय “संविधान की आत्मा के रूप में मानव गरिमा: 21वीं सदी में न्यायिक परिप्रेक्ष्य” पर बोलते हुए कहा,"न्यायपालिका ने बार-बार स्पष्ट किया है कि मानव गरिमा संविधान की आत्मा है। यह ऐसा व्यापक सिद्धांत है जो संविधान की मूल भावना और दर्शन को आधार प्रदान करता है तथा प्रस्तावना में निहित स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय जैसे मूल्यों को आकार देता है।"
उन्होंने कहा कि 20वीं और 21वीं सदी के अनेक फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार इस बात को दोहराया है कि मानव गरिमा एक स्वतंत्र अधिकार भी है और सभी मौलिक अधिकारों की व्याख्या करने के लिए एक दृष्टिकोण भी।
सीजेआई ने बताया कि व्यवहार में इसका अर्थ यह है कि गरिमा वह मार्गदर्शक सिद्धांत है जो अधिकारों को जोड़ता है और न्यायपालिका को संवैधानिक न्यायशास्त्र का एक समग्र और सुसंगत ढांचा विकसित करने में मदद करता है।"मानव गरिमा का इस्तेमाल न केवल नागरिकों को सम्मानजनक जीवन देने के लिए किया गया है, बल्कि इसे अधिकारों का विस्तार और सामंजस्य स्थापित करने के लिए भी संवैधानिक उपकरण के रूप में प्रयोग किया गया है।"
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि कैदियों, श्रमिकों, महिलाओं और दिव्यांग व्यक्तियों से जुड़े मामलों में अदालत ने हमेशा गरिमा को केंद्र में रखकर स्वायत्तता, समानता और न्याय की व्याख्या की है।
"कानून केवल शारीरिक अस्तित्व की रक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और अवसरों से भरे जीवन की परिस्थितियां सुनिश्चित करने तक उसका दायित्व है।"
सीजेआई ने कहा कि संविधान की व्याख्या को गरिमा से जोड़कर सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज बना रहे, जो समाज की बदलती चुनौतियों का सामना कर सके और साथ ही अपने मूल्यों के प्रति वफादार भी रहे।
उन्होंने दिव्यांग व्यक्तियों की गरिमा को संवैधानिक सुरक्षा का अनिवार्य पहलू बताते हुए कहा कि न्यायालयों ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि उन्हें आत्मसम्मान, स्वतंत्रता, समानता और स्वायत्तता के साथ जीने का अधिकार है।
"समाज और राज्य का कर्तव्य है कि वे शारीरिक, सामाजिक और संस्थागत बाधाओं को दूर करें, ताकि वे सार्वजनिक और निजी जीवन में समान भागीदारी कर सकें।"
सीजेआई गवई ने कहा कि न्यायपालिका ने यह भी स्वीकार किया है कि संरचनात्मक असमानताएं, ऐतिहासिक अन्याय और प्रणालीगत भेदभाव पूरे सामाजिक समूहों की गरिमा को कमजोर कर सकते हैं। इसलिए गरिमा की रक्षा के लिए सकारात्मक कदम, सुरक्षा उपाय और समानता-उन्मुख हस्तक्षेप जरूरी हैं।
उन्होंने कहा कि अदालतों के फैसलों ने हमेशा यह स्पष्ट किया है कि मानव गरिमा और व्यक्तिगत स्वायत्तता परस्पर जुड़े हुए सिद्धांत हैं।"यदि किसी व्यक्ति को अपने शरीर, कर्मों या जीवन के फैसले लेने की स्वतंत्रता नहीं होगी तो वह गरिमापूर्ण जीवन नहीं जी सकता।"
सीजेआई ने बताया कि भारत में मानव गरिमा के सिद्धांत की न्यायिक मान्यता 1970 के दशक के अंत में आकार लेने लगी थी, जब जेलों में कैदियों के अमानवीय व्यवहार की रिपोर्टें सामने आई थीं।
अंत में उन्होंने कहा, "आज मैं जिस गरिमामयी पद पर हूं, यह सब भारतीय संविधान और डॉ. भीमराव अंबेडकर की दूरदर्शिता का ही परिणाम है।"