पुरानी दिल्ली का जवाहर होटल, जहां स्वाद मिलता है तहज़ीब से

Story by  अर्सला खान | Published by  [email protected] | Date 03-09-2025
Jawahar Hotel: A story of taste and heritage from the streets of Old Delhi
Jawahar Hotel: A story of taste and heritage from the streets of Old Delhi

 

अर्सला खान/नई दिल्ली

पुरानी दिल्ली, जिसे शाहजहांनाबाद के नाम से भी जाना जाता है, अपने बाज़ारों, तंग गलियों, भव्य मस्जिदों और मुग़लकालीन स्थापत्य के लिए मशहूर है.जामा मस्जिद की ऊँची मीनारें आज भी उस इतिहास की गवाही देती हैं जिसने दिल्ली को न केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक राजधानी बनाया, लेकिन दिल्ली की असली रौनक सिर्फ उसकी इमारतों में नहीं, बल्कि उसके खानपान और तहज़ीब में है. इन्हीं व्यंजनों और मेहमानी की परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखने वालों में से एक नाम है जवाहर होटल.
 
शुरुआत: एक सपने से हक़ीक़त तक

इस रेस्तरां की नींव 1940 में रखी गई थी, जब जनाब बशीरुद्दीन उर्फ बच्छू उस्ताद ने “पेशावरी होटल” की शुरुआत की. यह महज़ एक होटल नहीं था, बल्कि दिल्ली के लोगों के लिए एक ऐसा स्थान था जहां वे परिवार और दोस्तों के साथ बैठकर खाने का लुत्फ उठा सकते थे. बच्छू उस्ताद का व्यक्तित्व केवल एक उद्यमी तक सीमित नहीं था, वे आज़ादी की लड़ाई और जनसेवा में भी सक्रिय थे. इसी वजह से उनकी नज़दीकियाँ उस समय के नेताओं, ख़ासकर पंडित जवाहरलाल नेहरू से हुईं.
 
 
 
नामकरण की दास्तान

भारत की आज़ादी के बाद, जब होटल का नवनिर्माण हुआ, तो पंडित नेहरू स्वयं इसके उद्घाटन के लिए पहुंचे. उद्घाटन के उसी अवसर पर, मशहूर शायर सैयद वहीदुद्दीन अहमद ‘बेख़ुद देहलवी’ ने सुझाव दिया कि होटल का नाम “जवाहर होटल” रखा जाए. यह नाम एक तरफ़ नेहरू के सम्मान में था, तो दूसरी तरफ़ ‘जवाहर’ शब्द का अर्थ रत्न भी इस होटल के खाने और परंपरा को बखूबी दर्शाता था.
 
 
 
दूसरी पीढ़ी का योगदान

1977 में बच्छू उस्ताद के इंतकाल के बाद, उनके बेटे रईसुद्दीन ने इस विरासत को आगे बढ़ाया. उन्होंने अपने पिता के बनाए रास्ते पर चलते हुए होटल की साख को और मजबूत किया. मुग़लई व्यंजनों की बारीकियाँ, नफ़ासत और स्वाद को उन्होंने एक नई पहचान दी. उनके नेतृत्व में होटल ने ऐसा मुक़ाम हासिल किया कि यह केवल पुरानी दिल्ली का ही नहीं, बल्कि पूरे शहर का एक कुलिनरी डेस्टिनेशन बन गया.
 
तीसरी पीढ़ी का विस्तार

आज जब तीसरी पीढ़ी ने कमान संभाली है, तो होटल ने अपना दायरा और भी बढ़ा लिया है. परंपरागत व्यंजनों के साथ-साथ, अब उत्तर भारतीय खाने की विविधता भी इसके मेन्यू का हिस्सा है. सबसे अहम बात यह है कि हर डिश में अब भी वही खानदानी रेसिपी और घरेलू अंदाज़ झलकता है, जो बच्छू उस्ताद से शुरू हुआ था.
 
 
पुरानी दिल्ली से नई दिल्ली तक

जवाहर होटल की खुशबू और स्वाद अब सिर्फ जामा मस्जिद के आसपास की गलियों तक सीमित नहीं हैं. इसकी शाखाएं लाजपत नगर, शाहीन बाग़ और ओखला में खुल चुकी हैं और जल्द ही लुधियाना (पंजाब) में भी इसका विस्तार होने वाला है. यह विस्तार न केवल स्वाद की पहुँच है, बल्कि इस बात का सबूत भी है कि असली विरासत समय और सीमाओं से परे होती है.
 
 
दस्तरख़्वान की मेहमानी

जवाहर होटल का सबसे बड़ा आकर्षण सिर्फ उसका खाना नहीं, बल्कि उसकी मेहमानी है. यहां आकर हर कोई यह महसूस करता है कि वह किसी रेस्तरां में नहीं, बल्कि एक दस्तरख़्वान पर बैठा है जहाँ सब बराबर हैं और जहां खाने के साथ-साथ मोहब्बत भी परोसी जाती है. यह वही परंपरा है जो पुरानी दिल्ली की गलियों में बसी है जहां लोग खाने के साथ-साथ रिश्ते भी बनाते हैं.
 
 
इतिहास और स्वाद का संगम

जवाहर होटल सिर्फ एक रेस्तरां नहीं, बल्कि दिल्ली की तहज़ीब और इतिहास का जिंदा दस्तावेज़ है. यह कहानी हमें बताती है कि असली विरासत ईंट-पत्थर की इमारतों से नहीं बनती, बल्कि पीढ़ियों तक संजोई गई रेसिपियों, स्वाद और मेहमानी से बनती है. यही वजह है कि आज भी दिल्लीवाले और बाहर से आए सैलानी जब “जवाहर होटल” का नाम सुनते हैं, तो उनके ज़ेहन में सिर्फ खाने का स्वाद नहीं, बल्कि इतिहास, दोस्ती और अपनापन भी उभर आता है.