मुसलमानों के लिए सियासी नेतृत्व नहीं, तालीम की ज्यादा जरूरतः जफर सरेशवाला

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 23-01-2022
जफर सरेशवाला
जफर सरेशवाला

 

आज जब देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, हर कौम इस समीक्षा में लगी है कि इन 75 सालों में उसने क्या खोया-पाया. इसी तरह मुसलमान भी इस समीक्षा में लगे हुए हैं.हालांकि, इन साढ़े सात दशकों में देश में मुसलमान राष्ट्रपति से लेकर, राज्यपाल और बड़े मंत्री और ऊंचे पदों तक रहे. बावजूद इसके सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग ने जो रिपोर्ट दी है, उससे बनी तस्वीर के संदर्भ में कहा जाता है कि मुसलमान इन 75 सालों में ठगे गए.

ऐसे ही अनेक सवालों के साथ आवाज-द वॉयस  (हिंदी) के संपादक मलिक असगर हाशमी ने पेशे से कारोबारी और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के कुलपति रहे जफर सरेशवाला से लंबी बातचीत की. जफर साहब इनदिनों देशभर में मदरसों के आधुनिकीकरण और तालीम-ओ-तरबियत के दूसरे कामों को आगे बढ़ाने में शिद्दत से लगे हैं. यहां पेश हैं बातचीत के मुख्य अंशः

प्रश्नः क्या 75 वर्षों में वाकई मुसलमानों को कुछ नहीं मिला ?

जफर सरेशवालाः ऐसा नहीं है कि नहीं मिला. आदमी पहले मुहासबा करे. अपने बारे में हिसाब-किताब करने की इस्लाम और दीन में इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है. रसूल्लाह ने फरमाया है. बेहतरीन नेकी है तन्हाई में मुहासबा करना.

आदमी अपने दिनभर के कामों का हिसाब-किताब करे कि मैंने क्या गलत किया या क्या सही किया. अगर में इसे और एक्सट्रा कोलेट करूं तो बहैसियत एक कौम, हमें यह सोचना पड़ेगा कि क्या गलत किया, क्या सही किया.

सर सैयद को अलीगढ़ में मुस्लिम यूनिवर्सिटी कायम किए हुए सौ साल से ज्यादा हो गए. सर सैयद की फिक्र सौ साल पहले यह थी कि यह कौम बेपढ़ी-लिखी रहेगी तो दुनिया में कुछ नहीं कर सकेगी.

यह बात सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले की है. यह सिर्फ हिंदुस्तान नहीं, जो जवाल हुआ डेढ़ सौ साल के अंदर. तुर्की को देखें. खिलाफत-ए-उस्मानिया गई तो 1923 में, पर पहले उससे 50-60 पहले गिरावट आनी शुरू हो गई थी.

दुनिया में मुसलमानों का जो फोकदान हुआ है, वह तालीम को लेकर हुआ है. किसी जमाने में यह कौम तालीमयाफ्ता थी. यूं कहते हैं कि 400-500 साल पहले उस जमाने के मुफक्किर कहते हैं कि यूरोप जिंदा है मुसलमान और मुसलमान वहां तालीम लेकर गए थे, उसकी बुनियाद पर. हमारा जो साख था.

जिसकी वजह से हम चमकते थे. जिसकी वजह से चमक थी, वह धीमे-धीमे निकलती चली गई. आजादी के बाद जो तकसीम हुआ मुल्क उससे बहुत बड़ा नुक्सान यह हुआ कि खासतौर से यूपी और बिहार का, क्रीम तबका था, पढ़ा-लिखा तबका था वह चला गया पाकिस्तान. तो रह कौन गए?

मैं समझता हूं कि हमने तालीम की तरफ ध्यान लगाया नहीं. हुकूमतें तो देखिए आती हैं चली जाती हैं. उसको मैं यूं कहता हूं कि हमारे पास बर्तन ही नहीं था. बारिश का पानी गिरता है.

मगर उसे समेटने के लिए आपके पास बर्तन तो चाहिए. मुल्क के अंदर जो तरक्की हुई, जो डेवलपमेंट हुआ. वह डेवलपमेंट किसके पास आता?वह बरतन थी तालीम.

अगर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी न बनती तो इस कौम का इससे भी ज्यादा बुरा हाल होता. 75 सालों में हासिल हुआ है. लेकिन हमने खुद बहुत से जो मौके मिले उसका फायदा नहीं उठाया.

प्रश्नः क्या मुसलमानों की सोच में बदलाव की जरूरत है? इस बदलाव को कौन लाएगा ? मुसमलानों का नया नेतृत्व नहीं उभर रहा है इसकी क्या वजह है?

जफर सरेशवालाः हमारे मसले जो हैं, उनको दो तरह से तकसीम करता हूं. एक तो यह कि हमारा मसला तब तक हल नहीं हो सकता जब तक कि आप मेरी मदद न करें. दूसरा वो है. जिसमें किसी की जरूरत नहीं है. उसे मैं खुद हल कर सकता हूं.

हमारी समस्या यह है कि जिसमें मदद की जरूरत है, उसे हल करने में तो हम अपनी पूरी जिंदगी लगा देते हैं. जिसे हम खुद कर सकते हैं, उसपर हमारी तवज्जो बहुत कम है.

आपने जो सियासी की बात की. आप डिपेंडेंट हैं सियासी पार्टियों पर. पार्टियां आपको टिकट ही नहीं देंगी, तो आप वहां जाओगे कैसे? मैं समझता हूं कि उसे थोड़ी देर के लिए साइड पर रखकर हम दूसरे मसलों को देखें. मैं यह समझता हूं कि अगर तालीम आपके पास आ गई तो आपके सारे मसले हल हो जाएंगे.

मैं उसे यहूदी कौम की नजरिए से देखता हूं. हिटलर ने उनके साथ जो किया या उससे पहले भी. सौ साल पहले तक मैनहट्टन, जो न्यूयॉर्क का मर्कज है, वहां यहूदी जगह भी नहीं ले सकते थे.

सौ-डेढ़ सौ साल पहले वह दुनिया में कुछ भी लेने की स्थिति में नहीं थे. बाद में उनमें बड़ा बदलाव आया. 70 साल पहले उन्होंने अपने आपको तालीम में झोंका. साइंस में. टेक्नालॉजी में, लॉ में, इंजीनियरिंग में. इसकी बदौलत उन्होंने अपने आपको ऐसा इनडिस्पेंसबल बना दिया कि लोग भले उनसे नफरत करते हों, पर उनके बगैर नहीं चल सकते. यह काम मुसलमानों को करना पड़ेगा.

इजरायल में टेक्नलॉजी के जो बड़े-बड़े सेंटर थे, जो बड़ी कंपनियां थीं. जो बोलते हैं घोड़े का चश्मा पहन कर उन्होंने अपने आपको ऐसा लगाया कि बहुत सारी टेक्नलॉजी इस वक्त दुनिया में, आपके उनके बगैर नहीं कर सकते. यह आपको डेवलप करना पड़ेगा बहैसियत कौम के.

आपने पूछा कि कौन करेगा? देखिए सियासी पार्टियां बिल्कुल नहीं करेंगी. उन्हें अपने इलेक्शन, अपने वोट से मतलब है. सत्ता में हो या न हो. अगर सियासी पार्टियां करतीं तो 70 साल में यह हाल नहीं होता. जो कुछ भी करना है हमें करना है. मुस्लिम सिविल सोसायटी के लोगों को आगे आना चाहिए. दानिश्वर लोगों को आगे आना पड़ेगा. उन्हें यह जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी.

प्रश्नः आपकी बातों से दो पहलू निकलते हैं. नजरिया और सोच. मुसलमानों की सोच में बदलाव कैसे आए, इसकी थोड़ी और व्याख्या करें.

जफर सरेशवाला: मैंने आपसे इजरायल की बात की. मैं इजरायल के साथ फलस्तीन भी गया. रमल्ला की साइड पर. वहां भी फलस्तीलियों की सोच में जबर्दस्त बदलाव आ रहा है.

फिलीस्तीनियों को मैंने जितना ज्यादा तालीमयाफ्ता देखा, इतना और अरब दुनिया में नहीं देखा. इजरायल हाई टेक्नोलॉजी में आगे है और सपोर्टिंग टेक्नोलॉजी में फलस्तीन आगे है. आज से 30 पहले बेंगलुरू में ट्रांस्क्रिप्ट का जो काम शुरू हुआ था. लोवर लेवल का काम टेक्नोलॉजी में. फिर कॉल सेंटर शुरू हुए. धीमे-धीमे अमेरिका की बहुत सारी कंपनियां डिपेंडेंट हुईं इंडिया पर. करीबन यह सब फलस्तीन में हो रहा है.

सेकंड और थर्ड लेवल की टेक्नोलॉजी उसमें फिलीस्तीनी जबर्दस्त पैमाने पर आगे आ रहे हैं. यानी ब्ल्यू कॉलर जॉब के चलते इजरायल टोटली फिलीस्तीनियों पर निर्भर है. रमल्ला और दूसरे इलाकों में खामोशी है. उन्होंने देख लिया, लड़ाई-झगड़ा करने से कुछ हासिल नहीं होगा. हमें तालीम के अंदर अपने-आपको लाना पड़ेगा.

कौम यदि तालीमयाफ्ता हो गई ईमानदारी और दयानतदारी के साथ, तो सबको हमारी जरूरत पड़ेगी. मुसलमानों को वही रास्ता यहां भी अख्तियार करना पड़ेगा.

आपने मुसलमानों की सियासी भागीदारी की बात की, आप बताइए मुसलमान भागीदार था या नहीं था?पहले 50-55 साल में जो हुकूमत आई, तब मुसलमान थे हुकूमत में भागीदार.

वह मुसलमान जो उस पार्टी को रिप्रेजेंट करते थे या उनके मिनिस्टर थे या उनके एमपी थे. उनकी जिंदगी बन गई. लेकिन क्या उन्होंने कौम की जिंदगी बनाई ?

अगर मुसलमान इसपर ही खुश हो जाए, मुसलमानों के चार मिनिस्टर हैं अगर यही हमारी खुशी की चीज है तो मैं समझता हूं हमसे ज्यादा कोई और बेवकूफ नहीं.

इसलिए कि वह जो मुसलमान आएगा, उसकी वफादरी तो उस पार्टी के साथ होगी और वह अपनी जिंदगी बनाएगा. जो मुसलमान 70 सालों में मेंबर ऑफ पार्लियामेंट गए, मिनिस्टर बने, राज्यपाल बने या जो बने उन्होंने अपने आस-पास के लोगों की तो जिंदगी बनाई, बल्कि वो जिस इलाके से आते थे, उस इलाके में भी कुछ नहीं किया.

यह सियासी पार्टियों में जो लोग हैं उनपर हमने डिपेंट किया तो कुछ नहीं होगा. हमारे अंदर से लोगों को निकलना पड़ेगा. और हमें वही करना चाहिए.

प्रश्न: अभी पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं. ध्रुवीकरण के नाम पर मुसलमानों को टिकट देने से पार्टियां बच रही हैं. आपको नहीं लगता कि सियासत में भागीदारी जरूरी है मुसलमानों की ?

जफर सरेशवालाः बिल्कुल जरूरी है. मगर मैं उसका इस तरह से कहता हूं. अपनी जरूरत को प्राथमिकता दें. समाजवादी पार्टी आपको टिकट ही नहीं देगी, बीएसपी आपको टिकट ही नहीं देगी तो आप क्या करोगे ?

आपको इनडिसपेंबल बनना पड़ेगा. मुझे याद है. मेरे घर में मुंबई में हमेशा राउंड टेबल हुआ करती है. इसमें सलीम खान यानी सलमान खान के वालिद और दूसरे दानिश्वर लोग जमा होते थे.

कभी हम यूएस काउंसिल जनरल को भी बुला लेते. कभी कनाडा के हाईकमीशन को. इस तरह से एक राउंड टेबल होती थी. मुझे अच्छी तरह याद है कई साल पहले यूएस काउंसिल जनरल साहब आए थे.

पहले मुसलमानों को वीजा नहीं मिलते थे. स्टूडेंट वगरह के वीजा में परेशानी होती थी. तब सलीम साहब ने काउंसिल जनरल से एक बात कही कि देखो भाई, प्रॉब्लम यह है कि असल में मुसलमान मुसलमान नहीं है.

उन्होंने एक एक्जापल से बताया कि सही मुसलमान क्या होता है. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि यदि यह मुसलमान वैसा मुसलमान हो गया तो आप भी हमारे घर में लाइन लगाओगे हमें ले जाने के लिए.

इसलिए मैं मुसलमानों को यह सलाह देता हूं कि आंखें खुली रखें. कान खुले रखें. जो सियासत चल रही है यूपी में और सब जगह, देखते रहें. वहां तो आपको टिकने नहीं देंगे तो अब आप अपने-आप को ऐसा काबिल बनाएं तालीम की बुनियाद पर, पूरी ईमानदारी और दयानतदारी के साथ.

संघ वाले भी लाइन लगाएं आपको ले जाने के लिए. काबिल आदमी. ईमानदार आदमी और अमानतदार यह दुनिया में हरेक को चाहिए. एक डाकू होता है, वह भी यह चाहता है कि उसके घर में काम करने वाला आदमी ईमानदार और काबिल हो.

मुसलमानों को अपने ड्राइंगबोर्ड पर आने की जरूरत है और इस रास्ते पर चलकर इस मुल्क में अपने रिलेवेंस बनाने की जरूरत है. यह रास्ता आसान है. इसमें आपको किसी की जरूरत नहीं.

आपको पढ़ाई करने में. तालीमयाफ्ता बनने में. इम्तिहानात देने में. यूपीएससी, नीट, जेईई के एग्जाम में बैठने से आपको कौन रोकता है?मैं समझता हूं कि अपने ख्याल को थोड़ा बदल कर इस तरह से सोचने की जरूरत है.

जारी...