आवाज द वॉयस/नई दिल्ली
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि युवा भारतीयों के फेफड़ों का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ रहा है तथा हर साल फेफड़ों के कैंसर के लगभग 81,700 नए मामले सामने आ रहे हैं, जो खतरे की भयावहता को दर्शाता है.
कभी बुढ़ापे की बीमारी समझे जाने वाला फेफड़ों का कैंसर, सीओपीडी और टीबी अब कम उम्र में पहले ही दिखाई देने लगे हैं, जिससे जनसांख्यिकीय और आर्थिक आपदा की आशंका बढ़ गई है.
विशेषज्ञों ने कहा कि जो युवा सुबह-सुबह धुंध में दौड़ते हैं, जो पेशेवर लोग लंबी दूरी तक यातायात जाम से होकर यात्रा करते हैं तथा जो छात्र प्रदूषित कक्षाओं में बैठते हैं, वे हर दिन अपने फेफड़ों में जहरीली हवा भर रहे हैं.
उन्होंने कहा कि यह अदृश्य बीमारी उनमें तब सामने आएगी जब वे अपने जीवन के उत्पादक वर्षों में शीर्ष पर होंगे और जब देश को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता होगी।
यह संकट सिर्फ बाहरी प्रदूषण तक ही सीमित नहीं है। शनिवार को आयोजित ‘रेस्पिरेटरी मेडिसिन, इंटरवेंशनल पल्मोनोलॉजी और स्लीप डिसऑर्डर्स’ (रेस्पिकॉन) के आठवें राष्ट्रीय सम्मेलन, ‘रेस्पिकॉन’ 2025 में विशेषज्ञों द्वारा साझा किए गए साक्ष्यों से पता चला है कि रसोई का धुआं और घर के अंदर इस्तेमाल होने वाले बायोमास ईंधन धूम्रपान न करने वाली महिलाओं में फेफड़ों के कैंसर के खतरे को काफी बढ़ा रहे हैं। यह एक ऐसा खतरा है जिसे अक्सर सार्वजनिक बहसों में नजरअंदाज कर दिया जाता है।
बच्चों पर भी इसका बोझ बढ़ रहा है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु के मामले में निमोनिया अभी भी वैश्विक स्तर पर 14 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है तथा प्रदूषित वायु के कारण बार-बार होने वाले संक्रमण से बच्चों का स्वास्थ्य और प्रतिरक्षा शक्ति कमजोर हो रही है।
‘रेस्पिकॉन’ 2025 का उद्घाटन दिल्ली की स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (डीजीएचएस) डॉ. वत्सला अग्रवाल ने किया, जिन्होंने श्वसन स्वास्थ्य को भारत की नीतिगत प्राथमिकताओं के केंद्र में रखने का आह्वान किया.
उन्होंने कहा, "स्वच्छ हवा कोई विलासिता नहीं है, यह एक मौलिक अधिकार है। श्वसन स्वास्थ्य को भारत के स्वास्थ्य एजेंडे में हाशिये से हटाकर मुख्यधारा में लाना होगा। हमारी युवा आबादी के फेफड़ों की सुरक्षा, राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने की सुरक्षा है। हम जहरीली हवा को अपना वर्तमान और भविष्य, दोनों चुराने की इजाजत नहीं दे सकते.यहां पहुंचे हैं.