ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
हर साल मुंबई में देखने को मिलता है एक अनोखा दृश्य: लालबागचा राजा का भायखला की हिंदुस्तानी मस्जिद के सामने रुकना — सांप्रदायिक सौहार्द और गंगा-जमुनी तहज़ीब की अनोखी मिसाल है.
मुंबई के सबसे प्रिय गणपति, लालबागचा राजा की भव्य विसर्जन यात्रा हर साल एक ऐसे पड़ाव से गुजरती है, जिसे देखकर लोगों की आंखें गर्व से भर जाती हैं। यह दृश्य होता है जब जुलूस भायखला स्थित हिंदुस्तानी मस्जिद के सामने कुछ पल के लिए ठहरता है — एक ऐसी परंपरा जो आज मुंबई की सांस्कृतिक एकता और भाईचारे का प्रतीक बन चुकी है।
परंपरा की शुरुआत: एक छोटे से सहयोग से शुरू हुई एक बड़ी मिसाल
इस परंपरा की शुरुआत 1980 के दशक के मध्य या अंत में मानी जाती है, जब गणेश विसर्जन के लंबे जुलूस के दौरान रास्ते में कुछ बाधाएं आईं। तब स्थानीय मुस्लिम नेताओं ने गणेश मंडल को सहयोग दिया, रास्ता सुगम बनाने में मदद की, और प्रशासन के साथ मिलकर जुलूस को शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया।
यह सहयोग उस समय केवल एक साधारण समर्थन था, लेकिन धीरे-धीरे यह आपसी सम्मान और सौहार्द की स्थायी परंपरा में बदल गया। अब हर साल जब लालबागचा राजा का जुलूस भायखला पहुंचता है, तो मस्जिद के सामने जुलूस को थोड़ी देर के लिए रोका जाता है।
इस खास पल में गणेश भक्त "गणपति बप्पा मोरया" के जयकारे लगाते हैं, और वहीं हिंदुस्तानी मस्जिद की ओर से मुस्लिम समुदाय के सदस्य आगे बढ़कर जुलूस का स्वागत करते हैं। वे भगवान गणेश की मूर्ति पर फूल अर्पित करते हैं, श्रद्धा के साथ दुआएं देते हैं, और प्रसाद व मिठाइयों का आदान-प्रदान करते हैं।
यह केवल एक धार्मिक ठहराव नहीं, बल्कि एक भावनात्मक मिलन होता है — जहां धर्म की दीवारें नहीं, दिलों की पुल बनते हैं।
भारत को "गंगा-जमुनी तहज़ीब" के लिए जाना जाता है — एक ऐसी संस्कृति जिसमें हिंदू और मुस्लिम परंपराएं सदियों से साथ-साथ चलती आई हैं। मुंबई, जो कि विविधताओं का शहर है, में यह परंपरा इस तहज़ीब की एक जीती-जागती मिसाल बन चुकी है।
हर साल लाखों श्रद्धालु इस क्षण का इंतज़ार करते हैं, और यह दृश्य सभी को यह याद दिलाता है कि मुंबई की असली पहचान इसकी साझी विरासत और सांस्कृतिक मेलजोल में है।
लालबागचा राजा मंडल की स्थापना 1934 में हुई थी, जब कोली मछुआरों और स्थानीय व्यापारियों ने, बाजार खो जाने के बाद, व्रत लिया था कि अगर उन्हें नया बाज़ार मिलेगा तो वे भगवान गणेश की भव्य स्थापना करेंगे। 12 सितंबर 1934 को पहली बार सार्वजनिक गणेशोत्सव का आयोजन हुआ।
आज यह मंडल लगभग 1,200 स्वयंसेवकों और 35 आयोजकों की मदद से संचालित होता है। भारी भीड़, लंबा जुलूस और जगह की कमी के बावजूद, पानी, सुरक्षा और मार्गदर्शन जैसी व्यवस्थाएं बखूबी संभाली जाती हैं।
विसर्जन यात्रा लगभग 22 घंटे लंबी होती है, जो परेल, सीपी टैंक, अग्रिपाड़ा से होते हुए गिरगांव चौपाटी पर समाप्त होती है।
जब यह विशाल प्रतिमा भायखला में पहुंचती है और मस्जिद के सामने रुकती है, तब केवल एक धार्मिक कार्यक्रम नहीं होता — यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन बन जाता है। वहां का दृश्य हर साल यही दर्शाता है कि सच्ची भक्ति में कोई भेदभाव नहीं होता।
मुस्लिम समुदाय के बुज़ुर्ग, युवा और बच्चे मिलकर भगवान गणेश का स्वागत करते हैं, और हिंदू श्रद्धालु भी इस प्रेम और सद्भावना का आदर करते हैं।
हर साल यह दृश्य सोशल मीडिया और समाचार माध्यमों में छा जाता है। इसे देखकर लोग कहते हैं — "यह है असली मुंबई", "यह है भारत की आत्मा", और "यह है धर्मों का मिलन"।
इस छोटी सी रुकावट में जो भावनाएं जुड़ी हैं, वे इस बात की गवाही देती हैं कि मुंबई सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एक भावना है — जो विविधता में एकता को जीती है।
लालबागचा राजा का हिंदुस्तानी मस्जिद के सामने रुकना केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि मुंबई की आत्मा का प्रतीक बन चुका है। यह वह क्षण होता है जब भगवान एक मस्जिद के सामने रुकते हैं, और मस्जिद उन्हें खुले दिल से अपनाती है।
यह है भाईचारे की जीत, यह है इंसानियत का उत्सव, और यह है वह संदेश जिसकी आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है — कि धर्म चाहे अलग हों, दिलों को जोड़ने वाली भावनाएं एक होती हैं।
गणपति बप्पा मोरया!
पुढच्या वर्षी लवकर या!
और साथ लाएं और भी एकता, शांति और प्रेम