अशफाक कायमखानी/ जयपुर
राजस्थान में मस्जिद के एक इमाम को रिटायरमेंट पर 31.5 लाख रुपये का सम्मान दिया गया, जो अपने आप में एक अनोखी और प्रेरणादायक घटना है. यह घटना न केवल धार्मिक समुदाय के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक मिसाल है. यह दिखाती है कि किस तरह समाज उन लोगों के प्रति सम्मान व्यक्त कर रहा है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन धार्मिक सेवा और समाज कल्याण के लिए समर्पित कर दिया.
आम तौर पर भारत में मस्जिदों के इमामों को बहुत कम सैलरी मिलती है, और वह भी समय पर नहीं मिलती. ऐसे में राजस्थान के नागौर जिले के बासनी गांव में हजरत मौलाना सैयद मोहम्मद अली साहब को रिटायरमेंट पर मिला यह सम्मान, एक नई और प्रशंसनीय प्रथा की शुरुआत है.
मौलाना सैयद मोहम्मद अली साहब ने अपनी पूरी जिंदगी इमामत, दीन की तालीम, नमाजियों को सही राह दिखाने और समाज की भलाई के लिए समर्पित कर दी. उनके मार्गदर्शन में मस्जिद ने न केवल धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा दिया, बल्कि समुदाय में सामाजिक सद्भाव और धार्मिक चेतना को भी मजबूत किया.
मौलाना साहब की सेवाओं और उनके समर्पण को बासनी के लोगों और मस्जिद कमेटी ने दिल खोलकर सराहा. उनके रिटायरमेंट पर, समुदाय ने उन्हें ₹31,50,786/- (इकतीस लाख पचास हजार सात सौ छियासी रुपये) का नकद सम्मान भेंट किया.
यह राशि केवल एक तोहफा नहीं, बल्कि उनके प्रति लोगों के सम्मान और प्यार का प्रतीक है. यह पूरी मुस्लिम कौम के लिए एक सबक है कि जो उलमा, हाफिज और रहनुमा अपना जीवन दीन की सेवा में लगा देते हैं, उनकी कद्र करना और उन्हें सम्मान देना हमारी जिम्मेदारी है.
यह प्रथा केवल बासनी तक सीमित नहीं है, बल्कि राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के सीकर, लाडनू और अब नागौर में भी देखी जा रही है. कुछ जगहों पर तो इमामों को रिटायरमेंट पर आजीवन पेंशन की भी घोषणा की जाती है, ताकि उनका बुढ़ापा सुरक्षित और सुखद हो सके. यह कदम दिखाता है कि समाज अब धार्मिक नेताओं के योगदान को महत्व दे रहा है.
मौलाना सैयद मोहम्मद अली साहब को मिला यह सम्मान इस बात का सबूत है कि समाज में अब यह भावना प्रबल हो रही है कि जो लोग धार्मिक और सामाजिक सेवा में अपना जीवन लगा देते हैं, उनके योगदान को सिर्फ आजीविका के नजरिए से नहीं देखना चाहिए, बल्कि उन्हें सम्मान और आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान करनी चाहिए.
भारत के कई राज्यों में वक्फ बोर्ड इमामों और मोअज्जिनों को नियमित सैलरी भी देते हैं. यह एक सकारात्मक कदम है, जो धार्मिक सेवा को एक सम्मानजनक पेशा बनाने में मदद करता है.
इमामों को मानदेय देने वाले राज्य:
तेलंगाना: जुलाई 2022 से इमामों और मोअज्जिनों को प्रतिमाह ₹5,000 का मानदेय दिया जाता है.
पश्चिम बंगाल: 2012 से इमामों को प्रतिमाह ₹2,500 दिए जा रहे हैं.
मध्य प्रदेश: वक्फ बोर्ड इमामों को ₹5,000 और मोअज्जिनों को ₹4,500 प्रतिमाह देता है.
हरियाणा: वक्फ बोर्ड अपनी मस्जिदों के 423 इमामों को ₹15,000 प्रतिमाह का वेतन देता है.
बिहार: 2021 से सुन्नी वक्फ बोर्ड इमामों को ₹15,000 और मोअज्जिनों को ₹10,000 प्रतिमाह का मानदेय दे रहा है. वहीं, शिया वक्फ बोर्ड 105 मस्जिदों के इमामों को ₹4,000 और मोअज्जिनों को ₹3,000 प्रतिमाह देता है. बिहार सरकार वक्फ बोर्ड को सालाना ₹100 करोड़ का अनुदान भी देती है.
कर्नाटक: वक्फ बोर्ड ने इमामों के लिए सैलरी स्लैब तय किया है. बड़े शहरों में इमाम को ₹20,000, नायब इमाम और मोअज्जिन को ₹14,000, खादिम को ₹12,000 और मुल्लिम को ₹8,000 प्रतिमाह मिलते हैं. शहर की मस्जिद के इमाम को ₹16,000, कस्बे या नगर की मस्जिद के इमाम को ₹15,000 और ग्रामीण क्षेत्रों के इमाम को ₹12,000 प्रतिमाह मिलते हैं.
पंजाब: यहां भी वक्फ बोर्ड के जरिए इमामों को सैलरी मिलती है.
यह व्यवस्था और राजस्थान में बासनी के इमाम को मिला सम्मान दोनों ही इस बात का प्रमाण हैं कि समाज उन लोगों की कद्र कर रहा है, जिन्होंने अपना जीवन धार्मिक सेवा और समाज के कल्याण में लगाया है. यह न केवल मौलाना साहब के लिए एक सम्मान का पल है, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत भी है.
यह घटना इस बात को पुख्ता करती है कि इमामों की सेवा का महत्व सिर्फ उनके जीविका तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके योगदान की सराहना करना और उन्हें सम्मान देना समाज की नैतिक और आध्यात्मिक जिम्मेदारी है. राजस्थान का यह उदाहरण आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा देता रहेगा.