रमजान: 10 दिन अल्लाह की रहमत के

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 07-04-2022
रमजान की मुबारकबाद !
रमजान की मुबारकबाद !

 

प्रो. अख्तरुल वासे

wasay

रमजान का महीना कई अर्थों में अहम है. इस महीने में कुरान शरीफ अवतरित हुआ जो मानव जाति के लिए अल्लाह का अंतिम संदेश है. इस महीने में एक रात होती है जिसे पवित्र कुरान में ‘लैलतुल मुबारक’ कहा जाता है. इस महीने के अंत में ईद-उल-फितर है जो अल्लाह की तरफ से रोजा अर्थात उपवास रखने वालों को इनाम दिए जाने का दिन है.

इस माह के तीन भाग हैं. पहले 10 दिन अल्लाह की रहमत के दिन होते हैं. दूसरे 10 दिन अल्लाह की तरफ से दया और क्षमा के दिन हैं. तीसरे और अंतिम 10दिन जहन्नम की आग से छुटकारा पाने के दिन हैं.

इस महीने को कुरान का महीना भी कहा जाता है. इसे पवित्रता और शुद्धि का महीना भी कहा जाता है. यह महीना अल्लाह की तरफ से नेअमत का महीना है. यह अच्छाई और कल्याण का महीना है. दया और क्षमा का महीना है. सेवकों की ओर से अपने रब के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता उनके प्रति पूर्ण समर्पण और पूर्ण विनम्रता का महीना है.

हदीस शरीफ में रमजान के महीने को ‘शहर-उल-मवासा’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है परोपकार का महीना. इस प्रकार यह महीना इंसानों के बीच परोपकार और दूसरों के दर्द को बांटने का महीना है. यह महीना समाज के कमजोर और वंचित लोगों की समस्याओं को समझने और अनुभव करने और उन्हें अपनी खुशहाली में शामिल करने का है.

रमजान की खासियत यह है कि सुबह से शाम तक खाने-पीने और हलाल इच्छाओं का उपयोग निषेध हो जाता है. जिन चीजों का उपयोग व्यक्ति साल भर आनंदपूर्वक करता है, वह एक निश्चित अवधि के लिए वर्जित हो जाती हैं.

अल्लाह को किसी को भूखा या प्यासा रखने की जरूरत नहीं है, बल्कि इस समय उसे भूखा-प्यासा रखने का उद्देश्य यह है कि बहुत से लोग जिन्होंने कभी भूख नहीं चखा है, जिन्होंने कभी प्यास की तीव्रता का अनुभव नहीं किया है, जिन्होंने कभी सुखों के अभाव का अनुभव नहीं किया है, जिनको भूख से पहले खाना और प्यास से पहले पानी उपलब्ध मिला, वह अपने भाई की दर्द और तकलीफ का अंदाजा कर सकें जिनको यदि सुबह का भोजन उपलब्ध है तो शाम को भूखा रहना पड़ता है, एक चीज मौजूद है तो दूसरी चीज मौजूद नहीं है.

इस तरह व्यक्ति अपने जैसे दूसरे व्यक्तियों के दुखों और कष्टों का स्वयं अनुभव करता है और उसमें अपने भाइयों के कष्टों को दूर करने की इच्छा जागृत होती है. व्यक्ति जब तक कि वह स्वयं पीड़ा से पीड़ित न हो उसको पीड़ा का सही अंदाजा नहीं होता.

जब तक उसे पीड़ा की उचित समझ न हो, तब तक पीड़ितों के प्रति उसकी वास्तविक सद्भावना जागृत नहीं होती है. वास्तविक सद्भावना तभी जागृत होती है जब वास्तविक दुख का अनुभव होता है.

इस महीने में खुले हाथ और संकीर्ण हाथ दोनों एक ही स्थिति से पीड़ित होते हैं और दोनों के बीच एक अस्थायी लेकिन वास्तविक समानता पैदा होती है. यह समानता धनवानों को गरीबों के लिए अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करती है.

रोजे की हालत में इंसान का भूखा प्यासा रहना अल्लाह की चाह नहीं है, बल्कि इस भूख-प्यास के द्वारा जो दूसरा उद्देश्य है वह है आत्मसंयम. अगर कोई व्यक्ति भूखा-प्यासा रहे और अल्लाह के लिए भूख होने पर भी कुछ ना खाए और प्यास होने पर भी कुछ ना पिए तो उसे आत्मसंयम की अनुपम शक्ति प्राप्त होगी.


आत्मसंयम कोई मामूली बात नहीं है. आत्मसंयम की कमी दुनिया में अधिकांश संघर्षों और दंगों का मूल कारण है. हर व्यक्ति में स्वार्थ की भावना होती है. जब कोई उसकी भावना को चोट पहुंचाता है, तो उसकी आत्मा बेकाबू हो जाती है और वह ऐसे काम करता है जो कभी-कभी बड़ी बुराई और विनाश का कारण बनते हैं.

रोजा मनुष्य को दृढ़ रहना और धैर्य और संयम के साथ काम करना और फिर उसे व्यवहार में लाना भी सिखाता है. हदीस में कहा गया है कि अगर कोई शख्स रोजा रखता है लेकिन बुराइयों से रुकता नहीं है, झूठ बोलना, लड़ना और झगड़ना नहीं छोड़ता, तो उसे भूख और प्यास के अतिरिक्त रोजे से और कुछ नहीं मिलता. एक और हदीस में यही बात कही गई है कि बहुत से रोजे रखने वाले ऐसे भी हैं जिन्हें अपने रोजे से भूख-प्यास के सिवा कुछ नहीं मिलता.

हदीस में बहुत स्पष्ट से यह बात कही गई है कि रोजा रखने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह बुरी बातें कहने से बचे. यदि कोई और उसके साथ झगड़ कर रहा है, तो उसे झगड़ा नहीं करना चाहिए, बल्कि एकतरफा तौर पर सब्र से काम ले और झगड़ा करने वाले से कहे कि मैं रोजे से हूं अर्थात् झगड़ा नहीं करुंगा.

रोजा व्यक्ति में धैर्य और सहनशीलता की भावना का संचार करता है. सच तो यह है कि रोजा इसी धैर्य के लिए एक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम है. मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता खाना और पीना है. वह रोजे में और प्रकृति, भूख और जरूरत की इन चीजों के बावजूद इन आवश्यकताओं से दूर रहता है.

इस प्रकार व्यक्ति के साथ एक बड़ी समस्या उसका ‘अहंकार’ है. यदि किसी से उसके स्वभाव के खिलाफ कोई बात कही जाए तो वह तुरंत गुस्सा हो जाता है और दूसरे पक्ष से झगड़ा करने लगता है.

लेकिन रोजे की अवस्था में जिस प्रकार भूख और प्यास पर सब्र करना जरूरी है, उसी प्रकार अहंकार पर भी काबू रखना आवश्यक है. जो व्यक्ति इसका सही तरह से पालन करेगा, निश्चित है कि उसके शेष दिनों में यह प्रशिक्षण उसे गरीबों का हमदर्द, कमजोरों का सहायता करने वाला और समाज का एक अच्छा सदस्य बनने में मदद देगी.

धैर्य और सहनशक्ति सामान्य बात नहीं है. यह बल प्रयोग से बड़ा बल है. हजरत निजामुद्दीन औलिया का कथन है,‘‘कशंदा कुशिंदा बूद’’ अर्थात सहन करने वाला तो मार डालता है. इसका अर्थ यह है कि जिसे सहनशीलता की ताकत प्राप्त हो गई उसके सामने हर ताकत कमजोर हो जाती है.

रमजान के अंत में ईद आती है. ईद की खुशियों में हिस्सा लेने के लिए हर मुसलमान पर फर्ज है कि वह जरूरतमंदों को एक निश्चित रकम दान के रूप में दे ताकि वे भी ईद की खुशियों में पूरी तरह से हिस्सा ले सकें. ईद की खुशियों में स्वयं को वंचित महसूस ना करें.

ये हैं इस मुबारक महीने की बरकत और रहमत. एक ओर यह अल्लाह तआला अंतहीन आशीर्वाद और ईनाम का महीना है. दूसरी ओर, लोगों के साथ ईनाम और सम्मान और अच्छे काम पैगंबर की सुन्नत का एक व्यावहारिक उदाहरण हैं.

इस महीने के दौरान व्यक्ति को रोजे के माध्यम से प्रशिक्षित किया जाता है, उसे आत्मसंयम का प्रशिक्षण दिया जाता है. उसको व्यवहारिक रूप में यह दिखाया जाता है कि जो लोग हर समय अल्लाह की नेअमतों (वरदान) का आनंद उठाने वाले लोग उन लोगों के दर्द को समझ सकें जो इन नेअमतों से वंचित हैं.

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)