हरजिंदर
बीसवीं सदी शुरू होते ही देश में और देश से बाहर बस गए बहुत से लोगों को लगने लगा था कि आजादी की सुबह फौरन से पेशतर आ ही जानी चाहिए. दुनिया जब पहले विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रही थी तो बहुत से लोगों को यह विश्वास होने लग गया था कि आजादी अब बहुत दूर नहीं है. बस कुछ ही कदम पर है.
वह वक्त भी कुछ ऐसा ही था। जर्मन साम्राज्य और तुर्की के ओटोमन साम्राज्य ने जिस तरह से दबाव बनाया था और उनके साथ आस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया जैसे देश आ जुटे थे.
स्वतंत्रता की अनकही कहानी-12
उससे लग रहा था कि ब्रिटेन की दादागिरी अब लंबी चलने वाली नहीं है. यह सिर्फ भारतीय क्रांतिकारियों को ही लग रहा हो ऐसा नहीं था। ईरान जैसे देशों के राष्ट्रवादी भी ऐसा ही सोचने लगे थे.
जर्मनी समेत यूरोप के कईं देशों, तुर्की, ईरान वगैरह में भारतीय क्रांतिकारियों ने अपने ठिकाने बना लिए थे. जर्मनी ने उन्होंने जो बर्लिन कमेटी बनाई वह राजनीतिक रूप से काफी शक्तिशाली हो गई थी.
लेकिन उनका सबसे बड़ा केंद्र अमेरिका था जहां गदर पार्टी बन चुकी थी और वह दुनिया भर में फैले भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में भी थी. साथ ही उसने जर्मनी और कईं दूसरे देशों के राजनयिक मिशन से भी संबंध जोड़ लिया था.
गदर पार्टी के संस्थापकों में एक थे मौलाना मुहम्मद बरकतुल्लाह. वे भोपाल के रहने वाले थे इसलिए उन्हें बरकतुल्लाह भोपाली भी कहा जाता था. उन्हीं दिनों अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से एक अखबार शुरू हुआ- सिरेजुल अकबर.
बरकतुल्लाह भोपाली को इसका संपादक बनने के लिए आमंत्रित किया गया और उन्होंने यह निमंत्रण स्वीकार भी कर लिया. यह अखबार महमूद तराजी ने शुरू किया था जिन्हें अफगान पत्रकारिता का पितामह माना जाता है.
महमूद अफगानिस्तान के उस समय के अमीर हबीबुल्लाह खान के भी करीबी थे.यह वह दौर था जब ब्रिटिश फौज अफगानिस्तान पर दो बार कब्जे की कोशिश के बाद मुंह की खा चुकी थी.
इसलिए वहां के बुद्धिजीवी वर्ग में ब्रिटिश विरोधी भावनाएं काफी प्रबल थीं. इस पृष्ठभूमि में अखबार के संपादन का काम एक ऐसा शख्स को दिया गया था जो ब्रिटिश साम्राज्य का कट्टर विरोधी था.
काबुल पहंुचते ही बरकतुल्लाह भोपाली ने अपने एक दूसरे दोस्त राजा महेंद्र प्रताप सिंह के लेख अखबार में छापने शुरू कर दिए. राजा महेंद्र प्रताप सिंह भी गदर पार्टी के संस्थापकों में एक थे और अपने धारदार लेखन के लिए जाने जाते थे.
जल्द ही वे भी काबुल का एक जाना-पहचाना नाम हो गए.विश्वयुद्ध जब शुरू हुआ तो कुछ जर्मन अधिकारियों ने बर्लिन कमेटी के साथ मिलकर एक योजना बनाई जिसे मिशन काबुल का नाम दिया गया.
इस योजना के तहत कमेटी के कुछ सदस्य काबुल पहंुचे जिनके साथ जर्मन सेना के कुछ बड़े अधिकारी भी थे. इस बीच कुछ अन्य क्रांतिकारियों को भी काबुल बुला लिया गया था. मिशन काबुल के लिए तुर्की के कुछ अधिकारी भी वहंा पहंुच गए.
विश्वयुद्ध जब अपने चरम पर था तो एक दिसंबर 1915 को काबुल में भारत की निर्वासित सरकार बनाने की घोषणा की गई। राजा महेंद्र प्रताप सिंह को इसका राष्ट्रपति बनाया गया और बरकतुल्लाह भोपाली को इसका प्रधानमंत्री. मौलवी ओबेदुल्लाह सिंधी इसके गृहमंत्री बने, मौलवी बशीर देवबंदी को युद्धमंत्री बनाया गया और चंपाकरमन पिल्लई विदेशमंत्री बने.
हालांकि इस सरकार को अफगानिस्तान समेत किसी भी देश ने मान्यता नहीं दी लेकिन समर्थन कईं देशों का मिला. इसके नेताओं ने दुनिया भर में घूम-घूम कर समर्थन हासिल करने की कोशिश की.
राजा महेंद्र प्रताप सिंह तो जर्मनी में कैसर यानी जर्मनी की साम्राज्ञी से भी मिले. यह मुलाकात एक तरह से इस पूरी योजना के महत्व को भी बताती है. इसी बीच रूस में बोल्शेविक क्रांति हो गई थी और महेंद्र प्रताप सिंह व बरकतुल्लाह भोपाली क्रांति के नेता ट्राटस्की से मिले.
तुर्की का ओटोमन साम्राज्य तो साथ था ही, जापान का भी अप्रत्यक्ष समर्थन मिला.इस कोशिश के पीछे की सोच यह थी कि एक तो विश्वयुद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य कमजोर हो जाएगा, दूसरी तरफ तैयारी यह भी थी कि भारत में किसी तरह क्रांति शुरू करके अंग्रेजों को वहां से भगाने की कोशिश की जाए. और अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो काबुल से यह सरकार भारत पहंुच कर वहां सत्ता संभाल ले.
आज हम चाहें तो इस सोच को एक फैंटेसी भी कह सकते हैं लेकिन पूरी योजना कुछ यही सोचकर बनी थी.लेकिन ऐसा हुआ नहीं. चार साल चले पहले विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन साम्राज्य और ओटोमन साम्राज्य दोनों खत्म हो गए.
अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्लाह खान की हत्या कर दी गई. नए अमीर ने भारत की उस पहली निर्वासित सरकार का कार्यालय बंद करा दिया. ज्यादतार भारतीय क्रांतिकारियों ने काबुल छोड़ दिया.
मिशन काबुल ने यह तो बता ही दिया था कि भारत की आजादी के परवाने अपने मकसद को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.
जारी.....
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )