हरजिंदर
कहा जाता है कि जब मुसीबत आती है तो तानाशाह सरकार और भी क्रूर हो जाती है.भारत ने अंग्रेज सरकार की यह क्रूरता तब देखी जब देश में प्लेग की महामारी फैली.जब लोगों को हमदर्दी की जरूरत थी ब्रिटिश सरकार के अत्याचार अचानक ही बढ़ गए थे.
भारत में प्लेग मुंबई से शुरू हुआ.मुंबई के बाद प्लेग का सबसे ज्यादा कहर टूटा डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पुणे में.जब बड़ी संख्या में लोगों की जान जाने लगी तो सरकार हरकत में आई.सरकार की सक्रियता किस तरह से लोगों को समधान या सुविधा देने के बजाए अत्याचार में बदल जाती है पुणे का प्लेग सबसे अच्छा उदाहरण है.
महमारी जब पुणे में फेली तो सरकार को लगा कि किसी सख्त अफसर को इससे निपटने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए.जल्द ही सरकार की नजरें टिक गईं इंडियन सिविल सर्विस के अफसर सतारा जिले के कलेक्टर, आक्सफोर्ड में पढ़े वाल्टर चाल्र्स रैंड पर.
उन्हें प्लेग कमिश्नर बना कर पुणे में तैनात कर दिया गया.पुणें पहंुच कर जब उन्होंने हालात का जायजा लिया तो उन्हें लगा कि मौजूदा तंत्र के भरोसे इससे नहीं निपटा जा सकता.उन्होंने तुरंत ही सेना को बुला लिया। जिस शहर को डाॅक्टरों की जरूरत थी उसे सेना के हवाले कर दिया गया.
सेना की टुकड़ियां स्वास्थ्य कर्मियों के साथ नगर की तमाम बस्तियों में जाने लगीं.आमतौर पर इन टुकड़ियों के अफसर अंग्रेज होते थे जिनके मन में इन बस्तियों और उनके लोगों के मन में हिकारत का भाव था.और बहुत बड़ी समस्या इसी से उपजी.
सैनेटाईजेशन के दौरान लोगों का सामान निकाल कर घर के बाहर फेंक देना यह काम तो तकरीबन हर जगह हो रहा था.ऐसी खबरें भी आ रहीं थीं कि सामान के साथ भगवान की मूर्तियों और धर्मग्रंथों को भी बाहर फेंक दिया जाता था,लेकिन पुणे में जो हुआ वह इससे भी ज्यादा अस्वीकार्य था.प्लेग में संक्रमित लोगों के शरीर में, खासकर उनके बगल में या जांघों पर गांठे बन जाती हैं.लोगों को घर से निकाल कर बाहर सार्वजनिक तौर पर उनके कपड़े उतार कर यह जांच की जाने लगी कि कहीं उनके शरीर पर प्लेग वाली गांठें तो नहीं हैं.
जब यही व्यवहार महिलाओं के साथ होने लगा तो पूरा मराठी समाज गुस्से से उबल पड़ा.इस व्यवहार ने सबसे ज्यादा व्यथित किया उस शख्स को जिन्होंने कुछ ही साल पहले गणित की अध्यापकी छोड़कर एक अखबार निकालना शुरू किया था, उनका नाम था बाल गंगाधर तिलक.
तिलक ने लोगों के इस गुस्से को अपने ऐतिहासिक अखबार केसरी में स्वर दिया.15जून 1897को उन्होंने इस अखबार में दो लेख लिखे.एक लेख प्लेग और सरकार के बर्ताव के बारे में था.इसमें उन्होंने लिखा- हम शहर में जो मानव अत्याचार देख रहे हैं, प्लेग की महामारी तो उसके मुकाबले ज्यादा दयालु है.
दूसरा लेख शिवाजी पर था, जिसमें उन्होंने इस बात का जिक्र किया था शिवाजी किस तरह से महिलाओं का सम्मान करते थे और अब के शासकों ने इसे पूरी तरह भुला दिया है.इस लेख में उन्होंने भागवत गीता का हवाला देते हुए यह भी लिखा कि अत्याचारी को मारना कोई पाप नहीं है.
केसरी में छपे इस लेख के एक सप्ताह बाद, 22 जून 1897 की रात जब चाल्र्स रैंड क्वीन विक्टोरिया की ताजपोशी के रजत जयंती समारोह से लौट रहे थे तो रास्ते में उनकी गोली मार कर हत्या कर दी गई.उनकी हत्या पुणे के वकील दामोदर हरि चापेकर ने अपने दो भाइयों बालकृष्ण हरि और वासुदेव हरि के साथ मिलकर की. चापेकर बंधु प्लेग के दौरान हो रहे अत्याचारों से इतने क्षुब्ध थे कि उन्हें सिखाने का यही एक तरीका समझ में आया.दामोदर हरि चापेकर को तुरंत ही पकड़ लिया गया, जबकि बाकी दोनों भाई दो साल तक भूमिगत रहे.इन सभी पर मुकदमा चला और उन्हें मृत्युदंड दे दिया गया.
इसी के साथ तिलक को भी गिरफ्तार कर लिया गया.जांचकर्ता हालांकि रैंड की हत्या और चापेकर बंधुओं से उनका कोई रिश्ता नहीं जोड़ सके लेकिन उन पर लोगों को भड़काने का मामला बनाया गया.भारत के इतिहास का यह पहला मामला है जब किसी को अखबार में छपे उनके लेख के कारण सजा हुई हो.
पुणे के चिंचवड इलाके में लगी चापेकर बंधुओं की यह विशाल प्रतिमाएं बताती हैं कि आजाद भारत ने किस तरह से उन्हें अपना नायक माना.उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कहा गया.उन पर किताबें लिखी गईं.उन पर फिल्में बनी। सबसे बड़े भाई दामोदर हरि चापेकर पर तो एक डाक टिकट भी जारी हुआ.और 18 महीने की कैद के बाद बाल गंगाधर तिलक जब रिहा हुए तो वे आजादी की लड़ाई की सबसे बड़ी शख्सीयत बन चुके थे.
जारी.....
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )