-फ़िरदौस ख़ान
सुख और दुख ज़िन्दगी में धूप-छांव की तरह हुआ करते हैं. कुछ लोग दुख-दर्द से टूट जाते हैं और कुछ लोग इसे ख़ुद में समेटे हुए मुसलसल आगे बढ़ते रहते हैं. यक़ीनन यही लोग समाज के लिए प्रेरणा बनते हैं. आज हम एक ऐसी ही शख़्सियत का ज़िक्र कर रहे हैं, जिनका नाम है रख़्शंदा रूही मेहदी. वे प्रसिद्ध कथाकार हैं.
वे प्रेम, संवेदना और सामाजिक विषयों पर कहानियां लिखती हैं. एक महिला होने के नाते वे स्त्री मन को बख़ूबी समझती हैं. इसलिए उनकी कहानियों में जहां स्त्री मन के जटिल प्रश्न होते हैं, वहीं समाज में फैली रूढ़िवादी सोच और इंसानी रिश्तों की टूटन के दर्द से जूझते लोगों की समस्याओं का भी ख़ूब ज़िक्र होता है.
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले के देवबंद में जन्मी डॉ. रख़्शंदा रूही मेहदी हिन्दी और उर्दू में कहानियां लिखती हैं.उनका जीवन संघर्ष भरा रहा है. साढ़े सत्रह साल की उम्र में बिजनौर में उनका विवाह हो गया. उनके पति सऊदी एयरलाइंस में अकांडट अफ़सर थे. वह अपने पति के साथ सऊदी अरब के रियाद चली गईं. विवाह के 14 साल बाद उनके पति का हृदयघात से देहांत हो गया.
उस वक़्त उनकी बेटी महज़ 11साल की थी और बेटा सात साल का था. घर की ज़िम्मेदारी उन पर आ गई. उन्होंने रियाद के इंडियन एम्बेसी स्कूल में आठ साल अध्यापन कार्य किया. इसके बाद वे स्वदेश लौट आईं. फ़िलहाल वे दिल्ली के जामिया सीनियर सैकेंडरी स्कूल में अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं. उन्होंने रियाद में रहते हुए दुबई से बीएड की डिग्री प्राप्त की. दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर किया और फिर सूफ़ी साहित्य पर पीएचडी की डिग्री हासिल की.
पढ़ाई के साथ-साथ उनकी लेखन में गहरी रुचि थी और उन्होंने कहानियां लिखनी शुरू कीं. वे बताती हैं कि उनकी पहली कहानी ‘पलों का बोझ’ साल 2005में गृहलक्ष्मी में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद साल 2008में उनकी दूसरी कहानी ‘कहीं एक शाख़े निहाले ग़म’ उर्दू पत्रिका आजकल में प्रकाशित हुई.
इन दो कहानियों के बाद उनकी कहानियों ने उन्हें शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा दिया. हंस, नया ज्ञानोदय, लमही, कथाक्रम, अहा ज़िन्दगी, निकट, अभिनव इमरोज़, परिकथा , ऐवाने उर्दू , आजकल, आदि पत्रिकाओं में उनकी कहानियां व विभिन्न समाचार-पत्रों में लेख व अनुदित कहानियां प्रकाशित होती रही हैं।
इसके अलावा ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती, उर्दू सर्विस, राजधानी चैनल से उनकी कहानियां प्रसारित हो चुकी हैं. डीडी उर्दू पर 'फिर नज़र में फूल महके' कहानी पर 'चिल्मन के पार' शीर्षक से टेलीफ़िल्म का प्रसारण हो चुका है. उनके कई विषयों पर टॉक शोज़ भी प्रसारित होते रहते हैं.
नई दिल्ली के प्यारे लाल भवन में उनकी कहानी 'कहां है मंज़िले राहे तमन्ना' का नाट्य मंचन भी हो चुका है. उनका पहला उर्दू कहानी संग्रह ‘मगर एक शाख़े निहाले ग़म’ साल 2012में प्रकाशित हुआ था. उन्होंने चर्चित कहानीकार सैयद मोहम्मद अशरफ़ के उर्दू नॉवल ‘आख़िरी सवारियां’ और पाकिस्तानी नॉवल ‘नौलखी कोठी’ के हिन्दी अनुवाद के साथ कई कहानियों एवं पुस्तकों के हिन्दी से उर्दू और उर्दू से हिन्दी अनुवाद किए हैं.
साल 2021 में प्रकाशित उनके उर्दू के कहानी संग्रह 'मानसून स्टोर' के लिए उन्हें मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी से 51हज़ार रुपये की राशि से पुरस्कृत किया जा चुका है. उन्हें रचनात्मक लेखन के लिए इक़बाल सम्मान के साथ कथा रंग सम्मान और दुबई में कहानी लेखन अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. उनका हिन्दी कहानी संग्रह 'एक ख़्वाब जागती आंखों का' भी प्रकाशित हो चुका है.
उन्होंने हिन्दी शोध कार्य 'अलखदास' व विभिन्न विषयों पर शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं. उनकी हिन्दी एवं उर्दू भाषा में कुल आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.वे कहती हैं कि कहानी लिखना आसान नहीं है. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के एक शेअर 'मता-ए-लौह-ओ- क़लम छिन गई तो क्या ग़म है, ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने' का ज़िक्र करते हुए वे कहती हैं कि आपके पास स्याही या काग़ज़ न भी हो, तो भी लिखने की जिजीविषा आपको अपने ख़ून से ही लिखने के लिए प्रेरित करती है. लेखन के प्रति यही समर्पण लेखन को उत्कृष्ट बनाता है.
उन्होंने अपने लेखन में स्त्री मन के भावों को बहुत ही ख़ूबसूरती से पेश किया है. उनकी ये कहानी देखें-
झंकार
‘‘आपके हाथ.....आपकी कलाइयाँ....बहुत ख़ूबसूरत हैं।’’
उन्होंने मेरा चेहरा देखे बग़ैर मेरी सुर्ख़ चूड़ियों पर अपने गर्म होंठ रख दिए.
‘‘ये कंगन.....मैं बेलिज़्यम से ख़ास आपके लिए लाया हूँ।’’ मेरी कलाई में उन्होंने बड़ी चाहत से दमकते हुए कंगन पहना दिए.
‘‘कभी इन हाथों को ख़ाली मत रखियेगा. मुझे आपके नाज़ुक हाथ....और भरी-भरी कलाइयाँ जान से ज़्यादा अज़ीज़ हैं.’’ मैं शर्म और एहसासे मोहब्बत से और ज़्यादा झुक गई.
दुनिया में कहीं जाएँ, मेरी चूड़ियाँ उन्हें याद रहती हैं.
मैं ख़ुद अपने हाथों की बेहद हिफ़ाज़त करने लगी हूँ. मेरा काम है बस अशअर के लिए सजना संवरना और नाश्ते-खाने की मेज़ पर उनकी ख़ातिर करना, उनके नाज़ उठाना.
‘‘अब ये मेहमान....जो मेरी और आपकी ज़िन्दगी में एक नए रिश्ते की डोर बनकर आ रहा है. मैं पापा और आप मम्मी.’’ उन्होंने मुझे अपनी बाहों में समेट लिया. मेरी ख़िदमत के लिए एक अदद ख़ादिमा का इज़ाफ़ा और हो गया, लेकिन एक बात की तंबीह कर दी गई कि इस घर में चूड़ियों की झंकार सिर्फ़ मेरी कलाइयों से आएगी.
‘‘अशअर ख़ुदा के लिए। जल्दी डॉक्टर के पास चलिए।’ ’मेरे जिस्म में दर्द की लहरें टीस बन रही हैं. वो मेरे सर्द हाथों को अपने गर्म हाथों में दबाते रहे.
‘‘बस थोड़ा सा सब्र....मेरी मोना.....माई लव !’’ टैक्सी में मेरा सर उनकी गोद में था कि मैं अशअर की गोद से उछली और..........एक ज़ोरदार धमाका हुआ.
‘‘मोना......मोना......ख़ुदा के लिए आँखें खोलिए.’’ अशअर की आवाज़ कहीं दूर से आती हुई लगी.
मेरी हथेलियों में एक जलता हुआ क़तरा टपका, मेरी कलाइयों पर उनके होठों की गर्माहट बढ़ने लगी.
‘‘अशअर.....मेरा बेटा.....या ....तुम्हारी बेटी.....’’ मेरा पूरा बदन टीस बन गया है.
‘‘मोना मेरी जान.....मेरी ज़िन्दगी....’’ वो मेरी हथेलियों में मुँह छिपा कर रो पड़े.
मैंने उठना चाहा, लेकिन मेरे पैर, मेरी टाँगें.
अस्पताल आते वक़्त हमारी टैक्सी को एक बेक़ाबू ट्रक ने रौंद डाला था. मेरा बच्चा और मेरा निचला धड़ दोनों उस ट्रक की भेंट चढ़ गए.
घर आकर मैं अपने कमरे में अपने बिस्तर से लग गई हूँ.
अशअर नाश्ता अब मेरे कमरे में मेरे साथ मेरे बिस्तर पर करते हैं. याद नहीं कितने साल गुज़रे मैं उनकी टाई की गिरह ठीक नहीं कर पाई. चूड़ियाँ अलमारी से निकल कर मेरे सिरहाने शो केस में सज गई हैं. अब मेरी मख़सूस मुलाज़िमा मेरे लिए रोज़ाना मेरे कपड़ों से मेल खाती चूड़ियाँ मुझे पहना देती है.
‘‘शमीम.....शमीम.....कहाँ रह गई, सुबह के सवा आठ बज रहे हैं, साहब लेट हो जाएँगे.‘‘
‘‘शमीम.....नाश्ता लगाओ, साहब को देर हो रही है।’’ दिल चाहा कि जल्दी से उठकर किचन में जाऊँ और नाश्ते की ट्रे ले आऊँ। लेकिन.....
‘‘जी.......जी.....बाजी.....वह दूध उबल गया था।’’ शमीम ने घबरा कर नाश्ते की ट्रे मेज़ पर रख दी.
कैसी अधमरी सी है. कितनी सुस्त.....
अशअर मेरे सामने मेरे बिस्तर के कोने पर बैठ गए.
‘‘शमीम.....क्या हो गया है आज। खड़ी क्यों हो, साहब की प्याली में चाय उंडेल दो.’’ शमीम मेरे सामने रखी ट्रे पर झुकी. गर्मी की वजह से उसका काला रंग उन्नाबी हो रहा है.
आज ऑफ़िस में कोई ज़रूरी मीटिंग है.....वो काफ़ी टेंस लग रहे हैं. अरे....अशअर की शर्ट के कॉलर के नीचे का तीसरा बटन टूटा हुआ है. दिल चाहा शमीम पर ज़ोर से चिल्लाऊँ।.‘‘नमक हराम.‘‘
लेकिन मैं अशअर को देखकर मुस्कुराती रही.
‘‘शमीम....शकर और डालो।’’ शमीम जल्दी-जल्दी मेरी चाय की प्याली में शकर डालने के लिए मेरे सामने झुकी.
उसके उलझे बद रंग बालों में....मैंने ग़ौर से कई बार उसके सर को देखा.
शमीम के उलझे बालों के घोंसले में..........
अशअर की शर्ट का छोटा सा बटन चमक रहा था.
अशअर की शर्ट के बटनों के डिज़ाइन को ग़ौर से देखा......हू-ब-हू वही रंग....वही डिज़ाइन है इस आसमानी बटन का.
मेरा दिल पत्थर होने लगा और आँखों में उभरते आँसुओं को गले में रोकने में एक लम्हा भी नहीं लगा.
‘‘मेरे हाथ से ये चूड़ियाँ उतार दो शमीम.’’
‘‘अपने हाथ इधर लाओ....लो ये चूड़ियां पहन लो.......और हाँ......एक बात हमेशा याद रखना.’’......‘‘साहब को ख़ाली हाथ बुरे लगते हैं. चूड़ियाँ अब कभी मत उतारना.’’ झिलमिलाती सब्ज़ और सुनहरी चूड़ियाँ शमीम के सांवले सेहतमंद हाथों में काफ़ी तंग हो गईं. शमीम की चूड़ियों की झंकार उनकी चाय की प्याली में चम्मच चलाने की आवाज़ के साथ हम आहंग हो गई.
अशअर की निगाहें नाश्ते की ट्रे पर जमी रह गईं.
शमीम के चेचकज़ादा चेहरे के हर नक़्श में चूड़ियों की सुनहरी लपट उठने लगी.
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)