अवाम के दिलों में सदा जिंदा रहेंगे रंगकर्मी सफदर हाशमी

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 03-01-2023
सफदर हाशमी
सफदर हाशमी

 

अमरीक सिंह

दो जनवरी नाट्य खासतौर से नुक्कड़ नाटक आंदोलन के इतिहास में शायद सबसे अहम तारीख का दर्जा रखती है. राजनीतिक और प्रतिरोध के नाट्य कर्म का एक सुनहरा अध्याय सदा के लिए बंद हो गया था और इसी दिन कई अन्य अध्याय खुले थे.

इस तारीख से ठीक एक दिन पहल दिल्ली से सटे एक औद्योगिक कस्बे साहिबाबाद में कम्युनिस्ट कलाकार, नाटककार, निर्देशक, गीतकार और कलाविद सफदर हाशमी पर सियासी गुंडों ने जानलेवा हमला किया था और अगले दिन यानी 2 जनवरी को भारत के राजनैतिक थिएटर के बड़े चेहरे सफदर हाशमी शहादत को हासिल हो गए थे.

वह जन नाट्य मंच और दिल्ली में स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक-सदस्य थे. 12 अप्रैल, 1954 में दिल्ली में जन्मे सफदर हाशमी ने होश संभालने के बाद जनपक्षीय मंचों तथा फिरकापरस्त विरोधी ताकतों के लिए जीवनपर्यंत काम किया.

मजदूरों के बीच 'हल्ला बोल' नुक्कड़ नाटक करते वक्त उन पर कातिलाना हमला किया गया और वह अपने साथियों, खासकर महिला सदस्यों को बचाने के लिए सीना तान कर गुंडों के आगे आए और अगले दिन देशभर को खबर मिली कि बहुचर्चित नाटककार सफदर हाशमी व्यवस्था और जन एवं मजदूर विरोधी ताकतों के हाथों शहीद हो गए.

'हल्ला बोल' जब खेला जा रहा था तब हमलावरों की टोली ने हमला किया और नाटक अधूरा रह गया. अगले दिन, सफदर हाशमी की शहादत के दिन उनकी पत्नी माला ने ठीक उसी जगह जाकर अधूरा नाटक पूरा किया. बगैर किसी पुलिसिया सुरक्षा के. यह नजीर भी बेमिसाल है.                               

साहिबाबाद के मजदूर अपने हकों की लड़ाई के लिए इकट्ठा हुए थे और उस लड़ाई को प्रबल करने के लिए सफदर हाशमी एक जनवरी को अपने नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल' की प्रस्तुति के लिए अपनी मंडली के साथ वहां गए थे. उन पर हमले की जिस हत्यारी टोली ने रणनीति बनाई, उसका सरगना कांग्रेस समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार मुकेश शर्मा था, जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के ट्रेड यूनियन नेता रामानंद झा के खिलाफ नगर पालिका चुनाव लड़ रहा था. जन संस्कृति मंच (जनम) झा का समर्थन कर रहा था क्योंकि वह मजदूर हितों के लिए सक्रिय थे.

सफदर हाशमी की अपनी प्रतिरोध शैली भी थी जिसे उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक कायम रखा. हमले के तत्काल बाद पहले उन्हें गाजियाबाद के एक अस्पताल में दाखिल कराया गया और बाद में गंभीर अवस्था में दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में सड़क स्थानांतरित कर दिया गया. हमले की खबर चौतरफा फैल गई थी और जन संस्कृति मंच के कार्यकर्ता तथा समर्थक भारी तादाद में वहां मौजूद थे.

तब की अखबारी रिपोर्ट्स बताती हैं कि सफदर हाशमी पर हुए कातिलाना हमले ने देश की शासन व्यवस्था को भी हिला दिया था. सुरक्षा के लिहाज से की गई सरकारी तैयारियों से पता चला कि सफदर हाशमी से मिलने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह खुद राम मनोहर लोहिया अस्पताल गए लेकिन जन संस्कृति मंच के सदस्यों ने उन्हें वहां से इस लताड़ के साथ वापस भेज दिया कि उन्हें सफदर हाशमी से हरगिज़ मिलने नहीं दिया जाएगा.

बताया जाता है कि बूटा सिंह को बैरंग वापस लौटना पड़ा. कई अन्य आला अधिकारियों को भी ऐसे ही खदेड़ा गया.  

विश्वस्तरीय नुक्कड़ नाटक इतिहास में अलहदा रुतबा रखने वाले सफदर हाशमी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान विभिन्न कलाओं का सूक्ष्म अध्ययन किया करते थे और पाते थे कि इनमें से ज्यादातर 'कलावादी'ख्यात नाटककार और लेखक जिस दुनिया की बात करते हैं, वह तो धन पशुओं की दुनिया है. आम आदमी वहां हाशिए पर है.

उन्होंने सेंट स्टीफेंस कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करते हुए पाया कि वैकल्पिक कलाएं ही अवाम को जागरूक करके फासीवादी और जनद्रोही पूंजीवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई के लिए तैयार कर सकतीं हैं.

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि," कुछ साथी सोचते हैं कि व्यवस्था परिवर्तन अथवा 'क्रांति' थोड़े वक्त और थोड़ी शहादतों से ही मिल जाएगी लेकिन इतिहास देखिए कि परिवर्तन के लिए कितनी लंबी और समर्पित जद्दोजहद होती है."

दरअसल, सफदर हाशमी परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयामों को 'जनवादी कलाकार' के तौर पर देखते और समझते थे. थिएटर के प्रति जबरदस्त झुकाव और शानदार अध्ययन के बावजूद उन्होंने राजनैतिक रास्ते का चयन भी किया.

1976 में वह सीपीआई (एम) के सदस्य बने. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के भी सदस्य बने और इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन तथा जन संस्कृति मंच के सह-संस्थापक बने. सेंट स्टीफन कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही वह फिदेल कास्त्रो के प्रशंसक बन गए. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और साहिर लुधियानवी की जुझारू तथा प्रतिरोध की कविता उन्हें बेहद पसंद थी.

प्रख्यात महान पंजाबी नुक्कड़ नाटककार गुरशरण सिंह ने कई बार कहा था कि सफदर हाशमी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने नुक्कड़ नाटक को नए विषय वस्तु तो दिए ही, नई भाषा भी दी.

प्रसंगवश, गुरशरण जी ने सफदर के आकस्मिक जिस्मानी अंत और अतुलनीय शहादत के बाद पंजाब में कई जगह उनकी स्मृति में नुक्कड़ नाटक किए. तब वह नाटक शुरू करने से पहले सफदर हाशमी के सफर तथा शहादत की बाबत आम ग्रामीणों को इस जोशीले अंदाज में बयान करते थे कि लोगों के दिलों--दिमाग में सफदर हाशमी कि एक छाप सदा के लिए धर कर लेती थी.

खुद इस पत्रकार ने कभी अपनी एक रिपोर्ट ने लिखा था कि पंजाब के कई घरों में सफदर हाशमी की कविताओं तथा फोटो के साथ छपे कैलेंडर बताते हैं कि लोगों के लिए दी गई शहादत कहां तक जाती है. यही मकबूलित शहीद पंजाबी कवि पाश भी हासिल है. सफदर हाशमी के कई नाटकों का अनुवाद पंजाबी में भी हुआ है. देश-विदेश की कई भाषाओं में तो खैर हुआ ही है.

सफदर हाशमी ने सुदूर श्रीनगर से लेकर पश्चिम बंगाल तक नुक्कड़ नाटक किए. उन्हें अपना यह गीत बहुत पसंद था: "अकबर राजा लाजवाब था, समझ में उसकी आई/ या तो दुनिया सबकी है या नहीं किसी की भाई...!" 

वह मृत्यु उपरांत अंगदान करना चाहते थे. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. एक वजह उनके अंगों की (हमले के बाद) बेहद खराब दशा थी और दूसरा मेडिको लीगल अड़चन थी. उनका कॉर्निया ही दिया जा सका. उनकी यह ख्वाहिश अधूरी रह गई. किसी ने कब सोचा था कि सफदर हाशमी सरीखा नायाब जननायक इतनी छोटी उम्र में इतनी जल्दी शहादत को हासिल हो जाएगा.    

जिस्मानी अंत के बाद यानी तीन जनवरी की दोपहर, विट्ठल भाई पटेल हाउस स्थित माकपा कार्यालय से निगमबोध घाट के लिए उन की शव यात्रा निकली जो दस मील लंबी थी. इसमें हजारों आम लोगों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और साहित्यकारों ने शिरकत की थी.

इसका मतलब साफ था कि आतंक वक्ति होता है  और शहादत चिरकाल का सफर तय करती है. दस मील लंबी सफदर हाशमी की शव यात्रा ने एकबारगी पूरे रास्ते को जाम कर दिया था. उनके एक अन्य प्रसिद्ध नाटक का नाम 'चक्का जाम' है. 'हल्ला बोल' की मानिंद 'चक्का जाम' भी भाषागत तौर पर अनूदित होकर देश के कोने कोने में प्रस्तुत किया गया था.      

सफदर हाशमी की हत्या की खबर को बीबीसी, टाइम और न्यूज़ वीक सरीखे अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने भी प्रमुखता दी थी. लगभग दो साल पहले सुधन्वा देशपांडे ने अंग्रेजी में उनकी जीवनी 'हल्ला बोल' शीर्षक के तहत लिखी थी और बाद में इसका अनुवाद हिंदी सहित कई भाषाओं में हुआ.

इस किताब में रंगकर्मी संजना कपूर का वक्तव्य दर्ज है: "यह संस्कृति, राजनीति और उम्मीद के बारे में है. दिल को हिला देने वाली, आज के लिए बेहद जरूरी किताब." जबकि विश्व विख्यात मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद की पंक्तियां इस तरह दर्ज हैं : " आपस में कसकर गुंथे कई नैरिटिव्ज को लेकर हल्ला बोल तेजी से आगे बढ़ती है. यह सब तरह शमी का एक चमकदार शब्द चित्र है. यह किताब सांस्कृतिक व्यवहार और मजदूर वर्गीय राजनीति के अंतर संबंधों के बारे में है और उन अंतर संबंधों, उन चौराहों पर जी गईं जिंदगियों का रोजनामचा है. अलग-अलग नाटकों के बनने--बदलने के विवरणों, नुक्कड़- चौराहों- पार्कौं में उनके मंचन के ब्यौरों से सजी इस किताब का कोमल, बहते पानी जैसा गघ् भी एक सुघड़ नाटक जैसा लगता है."                                

सफदर हाशमी को गए बरसों हो गए लेकिन उनकी प्रासंगिकता समकालीन समाज और सियासत में सदैव बनी रहेगी. जन-कला के लिए उनका बलिदान अमर है वह रहेगा. शहीद पंजाबी कवि पाश की मानिंद वह भी ठीक यही मानते थे कि बीच का रास्ता नहीं होता और क्रांतिकारी राहों पर चलने के लिए शीश (सिर) को तली (हथेली) पर रखकर निकलना पड़ता है!