अरविंद कुमार
क्या आपको मालूम है कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार सैयद हैदर रजा की पहली पेंटिंग मात्र 40 रुपए में बिकी थी लेकिन उनके इंतक़ाल के बाद उनकी एक पेंटिंग 29 करोड़ रुपये में बिकी. वह उन दिनों देश के संभवतः सबसे महंगे चित्रकार रहे.
पहले राजा रवि वर्मा, तैयब मेहता, मकबूल फिदाआदि की गिनती देश के महंगे चित्रकारों में होती रही है. बाद में वासुदेव गायतोंडे ने रजा साहब का वह रिकॉर्ड तोड़ दिया था. उनकी पेंटिंग 31 करोड़ रुपये में बिकी.
हाल ही में कलाविद विदुषी यशोधरा डालमिया द्वारा रजा साहब की पहली आधिकारिक जीवनी ‘द जर्नी ऑफ आईकॉनिक आर्टिस्ट’ अंग्रेजी में आई है जिसमें लिखा गया है कि नवंबर, 1943 में मुंबई आर्ट सोसाइटी की एक चित्र प्रदर्शनी में रजा के दो वाटर कलर चालीस चालीस रुपये में बिके थे. जबकि उन दिनों वे एक्सप्रेस ब्लॉक स्टूडियो में काम करते थे और उनकी तनख्वाह 40 रुपये प्रति माह थी जिसके लिए उन्हें रोज 8 से 10 घण्टे काम करने पड़ते थे.
लेकिन उनकी किस्मत देखिये कि जिस कलाकार को अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए कभी पैसे नहीं होते थे, उनके मरने के बाद 2018 में न्यूयॉर्क में एक नीलामी में उनकी पेंटिंग ‘तपोवन’29 करोड़ पर में बिकी थी. उन्होंने यह पेंटिंग 1972 में बनाई थी.
बाद में यह रिकॉर्ड टूटा.
इससे पहले 1983 में लंदन में उनकी एक पेंटिंग 16 करोड़ 30 लाख में बिकी चुकी थी,जो उस समय का भारतीय रिकॉर्ड था. 4 साल बाद न्यूयॉर्क में ही उनकी एक पेंटिंग 21 करोड़ में बिकी थी. इस तरह रजा ने 40 रुपए की अपनी पेंटिंग से अपनी कला यात्रा शुरू करके 29 करोड़ रुपए तक का सफर पूरा किया.
यह अलग बात है कि 23 जुलाई 2016 में ही उनका इंतकाल हो चुका था लेकिन उनके जीवन काल मे उनकी पेंटिंग 20 करोड़ से अधिक में बिक चुकी थी.
मध्य प्रदेश के मंडला में 22 फ़रवरी, 1922 में जन्मे रजा का यह जन्मशती वर्ष है और उन पर एक आधिकारिक जीवनी आई है. रजा फाउंडेशन ने रजा साहब की जन्मशती के वर्ष में 21 जुलाई से मण्डला में कार्यक्रम शुरू किया है, जो 23 जुलाई तक चलेगा.
फाउंडेशन ने उनकी स्मृति में गत वर्ष से ही उनपर अनेक कार्यक्रम और व्ययख्यान शुरू किया है.
किताब के अनुसार रजा साहब की परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई, जो अपने मूल्यों में बहुत उदार और धर्मनिरपेक्ष किस्म का था. साथ ही भारतीय संस्कृति में रचा-बसा था. यही कारण है कि रजा साहब को रामचरितमानस पढ़ने मंदिर जाने आदि की भी छूट थी और बचपन में उन्हें अपने शिक्षक के कारण हिंदी साहित्य में भी रुचि पैदा हो गई थी और वह निराला,सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि की रचनाएं पसंद करने लगे थे. उनके परदादा बहादुर शाह जफर के मुलाजिम थे और गालिब आदि के संपर्क में भी थे.
रजा साहब के पिता जंगल के रेंजर थे इस नाते उन्हें पर्यावरण का असर उनके कोमल संवेदनशील पर पड़ा तथा उसने उनके चित्रकार मन को प्रेरित किया. 1939 में उन्होंने नागपुर स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला लिया, जहां कला के प्रति उनकी दिलचस्पी अधिक जागी और उन्हें मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला लेने के लिए एक सरकारी फ़ेलोशिप मिली. वह वहां दाखिला लेने के लिए 1943 में मुंबई पहुंचे लेकिन विलंब होने के कारण उनका दाखिला तब नहीं हो सका और उनकी फैलोशिप भी खत्म हो गयी.
इस बीच उनके पिता 1942 में गुजर चुके थे और उससे एक वर्ष पहले उनकी माता भी गुजर चुकी थी. इस नाते उन्होंने अपना भरण-पोषण खुद करने का फैसला किया और उन्हें एक स्टूडियो में नौकरी करने का निर्णय लिया.
1943 से लेकर 1950 तक उनका जीवन काफी संघर्षपूर्ण बीता. लेकिन यहीं रहकर उन्हें उस जमाने के चर्चित कलाकारों से उनकी मुलाकात हुई, जो बाद में उनके गहरे मित्र बने. इनमें ए एच आरा से लेकर सूज़ा, तैयब मेहता, अकबर पदमसी, मकबूल फिदा हुसैन, गायतोंडे, कृष्ण खन्ना और रामकुमार आदि शामिल हैं.
रज़ा साहब ने 1947 में जेजे स्कूल आफ आर्ट में दाखिला लिया और 1948 में वहां से डिग्री हासिल की. गोआ के सूजा ने ही 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना की, जिसमें जुड़ने के बाद रजा की कला में निखार आया और उन दिनों उन्होंने मुंबई शहर को लेकर कई सुंदर आयल पेंटिंग भी बनाएं.
इससे पहले 1942 में ही उनकी शादी रिश्ते में दूर की एक बहन से कर दी गई, लेकिन जब भारत-पाक विभाजन हुआ तो राजा साहब पाकिस्तान नहीं गए. जबकि उनके तीनो भाई-बहन और उनकी पत्नी भी पाकिस्तान चली गई. यह रजा का हिंदुस्तान प्रेम था.
रजा साहब का कहना था कि वह गांधी का देश को छोड़कर पाकिस्तान नहीं जा सकते हैं. असल में गांधी का भी रजा साहब पर गहरा असर था. उनकी एक पेंटिंग ‘हे राम’शीर्षक से गांधी पर है और बाद में भी कुछ चित्र उन्होंने गांधी को लेकर बनाए हैं.
लेकिन 1950 में एक सरकारी फेलोशिप पाकर रजा साहब पेरिस चले गए और वे वहीं जाकर बस गए. उनकी पहली पत्नी से उनकी नहीं बनी और वह खुद पाकिस्तान चली गयी. रजा साहब ने एक फ्रेंच महिला जानीन मोंगिलात से शादी कर ली और जब तक वह जिंदा रहे, वह पेरिस में ही रहे.
जानींन के निधन के बाद वह भारत वापस आए और यही आकर फिर बस गए. इस बीच अपनी पत्नी के साथ हुए कई बार भारत आए थे और उनके साथ उन्होंने अपने बचपन में गुजारे गए शहरों का भी दौरा किया था. उन्होंने पत्नी के साथ भ्रमण किया था.
रजा साहब हिंदी साहित्य गहरे प्रेमी थे और उन्होंने निराला, पंत, महादेवी से लेकर केदारनाथ सिंह, मुक्तिबोध आदि की कविताओं का भी अध्ययन किया था और उनके पेंटिंग में इन कवियों की पंक्तियां भी देखी जा सकती हैं.
मकबूल फिदा हुसैन की तरह रजा साहब पर भी भारतीय प्रतीकों को बदनाम करने के आरोप लगे, लेकिन हुसैन की तरह रजा साहब भी सच्चे भारतीय और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे. उनकी पेंटिंग भारतीय परंपरा में रची-बसी थी.
यहां तक की उन पर तांत्रिक पेंटिंग के आरोप भी लगे. लेकिन उन्होंने हमेशा खुद को तांत्रिक पेंटिंग से अलग माना और एक बार तो उन्होंने नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में तांत्रिक पेंटिंग में अपनी पेंटिंग देने से मना भी कर दिया था.
फ्रांस में रहने के बाद वह एक बार फिर वह अमूर्त कला की तरह मुड़े और बात के दिनों में उन्होंने अमृत चित्रकला में बिंदु को बड़ी प्रमुखता दी लेकिन उनकी पेंटिंग कहीं से तांत्रिक पेंटिंग नहीं थी.
रज़ा साहब ने विदेशों में भारतीय चित्रकला का नाम उसी तरह रौशन किया, जिस तरह रविशंकर ने दुनिया मे भारतीय संगीत का.
रज़ा साहब को पद्मविभूषण से नवाजा गया. हिंदी के प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपई से रजा की गहरी मित्रता रही. उन्होंने अपनी संपत्ति रज़ा फाउंडेशन को दे दी. रज़ा फाउंडेशन में हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रयास के लिए अनेक योजनाएं चल रही हैं.
इस तरह एक देशभक्त चित्रकार ने मरने के बाद अपना सब कुछ देश को दे दिया.