आपको अपने सपनों को साकार करने से कोई नहीं रोक सकता—यही डॉ. मुमताज नैयर की उल्लेखनीय यात्रा का सार है—दृढ़ता, त्याग और वैज्ञानिक उपलब्धि की एक ऐसी कहानी जिसकी शुरुआत ग्रामीण बिहार के शांत कोनों से हुई. यहां प्रस्तुत है अभिषेक कुमार सिंह की डॉ. मुमताज नैयर पर एक विस्तृत रिपोर्ट.
डॉ. मुमताज नैयर बिहार के सुदूर किशनगंज जिले के एक छोटे से गाँव से हैं. उनके शुरुआती वर्षों में, उनके परिवार को बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा. भारी कठिनाइयों के बावजूद, उनके परिवार ने उनकी शिक्षा में निवेश करने का फैसला किया—एक ऐसा फैसला जिसने एक दिन दुनिया के कुछ सबसे घातक वायरसों के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया.
अपने अटूट दृढ़ संकल्प और अपने परिवार के त्याग की बदौलत, डॉ. नैयर ने हाल ही में ज़ीका, डेंगू, हेपेटाइटिस सी और इबोला जैसे फ्लेविवायरस संक्रमणों को लक्षित करने वाले टीके के अनुसंधान में एक महत्वपूर्ण खोज की है.
उन्हें यूनाइटेड किंगडम के साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय में एक प्रतिष्ठित पोस्टडॉक्टरल रिसर्च फेलोशिप से सम्मानित किया गया है, जहाँ उनके अत्याधुनिक कार्य सार्वजनिक स्वास्थ्य में प्रमुख प्रगति की संभावनाएँ रखते हैं.
डॉ. नैयर का जीवन कठिनाइयों के बीच शुरू हुआ. जब वे मात्र आठ वर्ष के थे, उनके पिता का निधन हो गया, जिससे परिवार गहरे आर्थिक संकट में आ गया. उनकी माँ सीमित संसाधनों के साथ बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए अकेली रह गईं, जबकि उनके बड़े भाई ज़ैनुल आबेदीन ने अपनी शिक्षा छोड़ दी और घर चलाने और अपने छोटे भाइयों की पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए मज़दूरी करने लगे.
इन प्रारंभिक अनुभवों ने डॉ. नैयर के विश्वदृष्टिकोण को आकार दिया. उन्होंने अपने गाँव में बच्चों को स्वास्थ्य सेवा के अभाव में कष्ट सहते और मरते देखा—एक दुखद वास्तविकता जिसने उन्हें डॉक्टर बनने के सपने को प्रेरित किया.
हालाँकि उन्होंने कई मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में भाग लिया, लेकिन उनका चयन नहीं हुआ. यहाँ तक कि जब उन्होंने बीडीएस और बी.फार्मा जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए अर्हता प्राप्त की, तब भी अत्यधिक फीस के कारण नामांकन असंभव था.
लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. एक अधिक व्यावहारिक और किफायती रास्ता चुनते हुए, उन्होंने दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में नए शुरू किए गए बीएससी बायोटेक्नोलॉजी कार्यक्रम में दाखिला लिया. यह उनके लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ.
अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और केंद्रीय वक्फ बोर्ड से दो वर्षीय मेरिट छात्रवृत्ति जल्द ही प्राप्त हुई, जिससे उनकी शैक्षणिक यात्रा को एक बहुप्रतीक्षित प्रोत्साहन मिला.
बाद में उन्होंने दिल्ली स्थित जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहाँ उनकी शैक्षणिक उत्कृष्टता ने उन्हें तस्मिया मेरिट छात्रवृत्ति दिलाई. कड़ी मेहनत और समय पर मिले अवसरों की बदौलत, अंततः उन्हें राष्ट्रीय कोशिका विज्ञान केंद्र (एनसीसीएस), पुणे में पीएचडी के लिए चुना गया, जो जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत भारत के प्रमुख अनुसंधान संस्थानों में से एक है.
एनसीसीएस में, डॉ. नैयर ने शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त डॉ. भास्कर साहा के मार्गदर्शन में काम किया. उनका शोध फ्लेविवायरस संक्रमणों के विरुद्ध प्राकृतिक किलर कोशिकाओं द्वारा प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं पर केंद्रित था—जो विषाणु विज्ञान और प्रतिरक्षा विज्ञान का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है.
आज, डॉ. नैयर यूके की एक प्रमुख टीका अनुसंधान प्रयोगशाला में कार्यरत हैं, जहाँ उनकी हालिया खोज ने वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है. फ्लेविवायरस संक्रमणों के लिए कोशिकीय प्रतिरक्षा और टीका विकास पर उनके कार्य से दुनिया भर में जीवन रक्षक हस्तक्षेप संभव हो सकते हैं.
उनका मानना है कि टीका अनुसंधान का भविष्य शरीर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने में निहित है—खासकर कोशिकीय स्तर पर. उनकी टीम द्वारा की गई प्रगति यह आशा जगाती है कि वैज्ञानिक नवाचार वायरल रोगों से प्रभावित लाखों लोगों को स्थायी राहत दिला सकते हैं.
अपने प्रयोगशाला कार्य के अलावा, डॉ. नैयर एक विचारशील और सामाजिक रूप से सक्रिय व्यक्ति हैं. हाल ही में एक मीडिया साक्षात्कार में, उन्होंने भारतीय शिक्षा प्रणाली पर एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच गहरी असमानताओं की ओर इशारा किया. उन्होंने कहा, "भारत में ग्रामीण और शहरी शिक्षा के बीच एक बड़ा अंतर है. इस वजह से, गाँवों के कई प्रतिभाशाली व्यक्ति देश के विकास में योगदान नहीं दे पाते हैं."
वे मुस्लिम समुदाय के सामने आने वाली सामाजिक-राजनीतिक और शैक्षिक चुनौतियों के बारे में भी खुलकर बात करते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा, "कई गरीब माता-पिता अल्पकालिक लाभ के लिए अपने बच्चों को श्रम में धकेल देते हैं. अगर मेरे माता-पिता ने भी ऐसा ही किया होता, तो शायद मैं आज किसी गैराज में काम कर रहा होता." डॉ. नैयर भारत की विविधता को विभाजन के बजाय शक्ति का स्रोत मानते हैं. उन्होंने कहा, "धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से हम जितने विविध हैं, उतने ही उत्पादक और रचनात्मक भी हो सकते हैं. हमें इस विविधता को एकता और नवाचार की नींव के रूप में अपनाना चाहिए."
वह युवाओं से भीड़तंत्र और सांप्रदायिक उकसावे को नकारने का आग्रह करते हैं. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, "हमें वैज्ञानिक सोच और तार्किकता अपनानी होगी—तभी वास्तविक प्रगति हो सकती है."
भविष्य की दृष्टि से, डॉ. नैयर भारत लौटने और ग्रामीण समुदायों में टीका अनुसंधान और स्वास्थ्य शिक्षा में योगदान देने की योजना बना रहे हैं. वह एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जो केवल आयातित तकनीकों का उपभोक्ता न हो, बल्कि नवाचार में वैश्विक अग्रणी हो. इसके लिए, उनका मानना है कि वैज्ञानिकों को स्थानीय वास्तविकताओं पर आधारित समाधान विकसित करने होंगे.
डॉ. मुमताज़ नैयर का सफ़र अनगिनत युवाओं के लिए एक सशक्त उदाहरण है—कि चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, दृढ़ संकल्प और लचीलेपन से कुछ भी संभव है. उनकी जीवन गाथा साबित करती है कि गरीबी, सामाजिक बाधाएँ और व्यवस्थागत असमानता, सपने देखने की इच्छाशक्ति और कार्य करने के साहस के सामने कुछ भी नहीं हैं.
आज, वह न केवल एक सम्मानित वैज्ञानिक हैं, बल्कि सामाजिक जागरूकता के प्रतीक भी हैं. उनके संघर्ष, अंतर्दृष्टि और उपलब्धियाँ भारत को न केवल विज्ञान में, बल्कि समता और न्याय के क्षेत्र में भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं.
उनकी कहानी केवल वैज्ञानिक विजय की नहीं, बल्कि आंतरिक शक्ति, करुणा और सामाजिक परिवर्तन के प्रति गहरी प्रतिबद्धता की भी है. बिहार के एक अल्पज्ञात गाँव से लेकर वैश्विक टीका अनुसंधान में अग्रणी, डॉ. नैयर उन लोगों के लिए एक मार्गदर्शक हैं जो बड़े सपने देखने का साहस रखते हैं.