गली-कूचों से स्टेडियम तक: इर्तिका अयूब ने रग्बी को बनाया मिशन

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 23-06-2025
“Sports are not a hindrance but a means of empowerment”: Irtika Ayub, a young rugby coach from Kashmir
“Sports are not a hindrance but a means of empowerment”: Irtika Ayub, a young rugby coach from Kashmir

 

श्रीनगर के पुराने शहर के बीचों-बीच, सफा कदल की संकरी, हलचल भरी गलियों में बसा-जहाँ अशांति की गूँज अक्सर बचपन की हँसी को दबा देती है-एक युवा महिला की प्रेरक कहानी उभरती है, जिसने अलग सपने देखने की हिम्मत की. 28 वर्षीय इर्तिका अयूब ने अपने लिए एक ऐसी जगह बनाई है, जहाँ कश्मीर की बहुत कम महिलाएँ पहले पहुँच पाई हैं:

रग्बी की ऊबड़-खाबड़, पुरुष-प्रधान दुनिया. आज, वह जम्मू-कश्मीर में सबसे कम उम्र की रग्बी विकास अधिकारी (आरडीओ), एक कोच, एक संरक्षक और घाटी भर में सैकड़ों लड़कियों और लड़कों के लिए एक रोल मॉडल के रूप में प्रतिष्ठित हैं.

लेकिन उनका सफर, उनके पसंदीदा खेल की तरह ही आसान नहीं रहा है. इर्तिका का रग्बी से नाता तब शुरू हुआ जब वह सिर्फ 16 साल की थीं और कोठी बाग हायर सेकेंडरी स्कूल में छात्रा थीं.

तब तक उन्होंने कभी रग्बी बॉल भी नहीं देखी थी. वह हँसते हुए याद करती हैं, “शुरू में मैं झिझक रही थी.” वह कहती हैं "मुझे खेल, नियम या यहाँ तक कि गेंद कैसी दिखती है, यह भी समझ में नहीं आया. लेकिन मेरे कोच ने मुझे प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित किया."

अभ्यास के एक सप्ताह बाद, उनकी झिझक जुनून में बदल गई. तीव्रता, शारीरिकता, खेल की भावना - यह सब काम आया. इर्तिका, जो पहले से ही अपने इलाके में लड़कों के साथ फुटबॉल खेलकर मानदंडों को चुनौती दे रही थी, को रग्बी में एक नया लक्ष्य मिला.

लेकिन अपने जुनून को अपनाने का मतलब था सामाजिक अपेक्षाओं के खिलाफ जाना और सबसे दर्दनाक बात, अपने ही परिवार की अस्वीकृति.

उन्होंने आवाज़-द वॉयस को बताया "उन्हें मनाने के अपने संघर्ष में, मैंने अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में खेलने के दो अवसर खो दिए. उस समय, मेरे परिवार में एक लड़की का अकेले खेल के लिए यात्रा करना अकल्पनीय था."

बाधाओं के बावजूद, इर्तिका ने अपना स्थान बनाए रखा. उनकी दृढ़ता ने अंततः वर्षों के प्रतिरोध को तोड़ दिया.

"आज, जब मेरे पिता मुझे सैकड़ों छात्रों को प्रशिक्षित करते हुए देखते हैं, तो उनकी आँखें गर्व से चमक उठती हैं," वह बताती हैं.

पिछले कुछ सालों में इर्तिका का खेल के प्रति प्यार और भी बढ़ गया है. करीब दो साल पहले, वह खिलाड़ी से कोच बन गई और रग्बी को कश्मीर के स्कूलों, कॉलेजों और यहां तक ​​कि निजी ट्यूशन सेंटरों तक ले गई.

रग्बी डेवलपमेंट ऑफिसर के तौर पर उन्होंने न केवल नए खिलाड़ियों को खेल से परिचित कराया है, बल्कि युवा लड़कियों का एक समुदाय-बहन-बनाया है, जो खेल के माध्यम से अपनी कहानियों को फिर से लिखने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं. हर दिन, चाहे बारिश हो या बर्फबारी, वह राजबाग के गिंडुन स्टेडियम जाती हैं, जहाँ वह दोपहर 3बजे से शाम 6 बजे तक युवा एथलीटों को प्रशिक्षण देती हैं. वह कहती हैं, "यह मैदान मेरा दूसरा घर बन गया है."

उनकी कई उपलब्धियाँ हैं- राज्य स्तर पर सात स्वर्ण, जिला स्तर पर सात और 2016और 2017 में रग्बी 7 में रजत पदक. लेकिन जो बात इर्तिका को सबसे खास बनाती है, वह है दूसरों को आगे बढ़ाने की उनकी इच्छा.

उन्होंने अपना खुद का क्लब बनाया है, जहाँ वह लड़कियों के एक समूह को प्रशिक्षित करती हैं, जिनके सपने उनके जैसे ही बड़े हैं- भारत के लिए खेलना. उनमें से कुछ पहले ही ऐसा कर चुकी हैं.

एक रूढ़िवादी इलाके से आने वाली इर्तिका को न्याय की चुभन का एहसास है, जहाँ युवा लड़कियों का खेल किट पहनकर बाहर निकलना अभी भी बुरा माना जाता है. “जब मैं अपनी किट के साथ स्कूटी चलाती हूँ, तो लोग कमेंट करते हैं. लेकिन मैं अपने काम से जवाब देती हूँ,” वह दृढ़ता से कहती हैं.

उनकी दिनचर्या कठोर है- सुबह की दौड़, जिम वर्कआउट, कोचिंग सेशन और सोशल मीडिया पर अपने अगले कदमों की रणनीति बनाने में बिताए घंटे, जहाँ वह दूसरों को प्रेरित करने के लिए अपनी यात्रा को सक्रिय रूप से साझा करती हैं. “मुझे सोशल मीडिया की शक्ति पर विश्वास है. इसने लोगों को मेरी कहानी का दूसरा पहलू देखने में मदद की है,” वह कहती हैं.

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इर्तिका का मानना ​​है कि खेलों में महिलाओं के लिए, विशेष रूप से परिवारों से समर्थन महत्वपूर्ण है. वह बताती हैं “मैं जिन लड़कियों को कोचिंग देती हूँ, वे प्रतिभाशाली हैं, लेकिन उनका विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें घर पर कितनी आज़ादी दी जाती है,” “माता-पिता को यह एहसास होना चाहिए कि खेल संस्कृति या गरिमा के लिए खतरा नहीं हैं. वे सशक्तिकरण के साधन हैं.”

वह उन चुनौतियों के बारे में खुलकर बात करती हैं जो बनी हुई हैं. “सरकारी सहायता सीमित है. हमारे पास अभी भी बुनियादी ढाँचे और संसाधनों की कमी है. पहले, हमारे पास अभ्यास करने के लिए उचित मैदान भी नहीं था.” लेकिन जम्मू-कश्मीर स्पोर्ट्स काउंसिल और रग्बी एसोसिएशन के प्रयासों से श्रीनगर में रग्बी होम पोलो की स्थापना के साथ यह बदल गया.

वह कहती हैं, "अब हम बड़े टूर्नामेंट से पहले महीनों तक प्रशिक्षण लेते हैं." बेहतर सुविधाओं के बावजूद, मानसिकता सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है. माता-पिता को उनका संदेश सीधा है: "अगर आपकी बेटी में इच्छाशक्ति और प्रतिभा है, तो उसका साथ दें. आपके भरोसे के साथ, वह आपकी कल्पना से कहीं ज़्यादा हासिल कर सकती है."

इर्तिका अब अपने अगले लक्ष्य की ओर काम कर रही हैं—भारतीय राष्ट्रीय रग्बी टीम में जगह बनाना. वह अपनी पढ़ाई-लिखाई (वह गवर्नमेंट कॉलेज फॉर विमेन से आर्ट्स में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं) और खेल संबंधी प्रतिबद्धताओं के बीच संतुलन बनाते हुए लगातार प्रशिक्षण लेती हैं. "सफलता और असफलता खेल का हिस्सा हैं. मैं कभी हार नहीं मानती.

यह शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं है," वह उस तरह के धैर्य के साथ कहती हैं जो चैंपियन बनाता है. सिर्फ़ 28 साल की इर्तिका अयूब एक कोच से कहीं बढ़कर हैं. वह एक आंदोलन हैं—उम्मीद, दृढ़ संकल्प और रूढ़िवादिता की बेड़ियों को तोड़ने का प्रतीक.

संघर्ष से घिरे इस क्षेत्र में वह एक अलग कहानी पेश करती हैं—साहस, लचीलापन और पसीने से तर सपनों की कहानी. रग्बी के माध्यम से वह लड़कियों को न केवल मैदान पर टैकल करना सिखा रही हैं, बल्कि जीवन में मजबूती से खड़े रहना भी सिखा रही हैं.

प्रस्तुति : दानिश अली