Iran-Israel confrontation: US intentions are deeper than the surface - West Asia analyst
आवाज द वॉयस/नई दिल्ली
13 जून को जब इज़राइल ने ईरान के सैन्य और परमाणु ठिकानों पर निशाना साधा, तो पूरी दुनिया एक पल के लिए ठहर गई. इस हमले के साथ ही वेस्ट एशिया के दो प्रमुख विरोधियों के बीच तनाव ने नया मोड़ ले लिया. यमन के हूती विद्रोहियों और अमेरिका की भूमिका ने स्थिति को परमाणु संकट की कगार तक पहुँचा दिया। लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक यह सब अप्रत्याशित नहीं था.
वास्तव में, यह संघर्ष केवल परमाणु कार्यक्रम का मामला नहीं है. वेस्ट एशिया के जानकार और सीरिया में जन्मे वरिष्ठ पत्रकार वाएल अव्वाद के अनुसार, "जब इज़राइल, जो खुद परमाणु अप्रसार संधि (NPT) का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है और जिसके पास 90 से अधिक परमाणु हथियार हैं, एक ऐसे देश पर हमला करता है जिसे अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने परमाणु हथियार मुक्त घोषित किया है, तो यह साफ संकेत है कि निशाना असल में ईरानी सरकार है, न कि उनका परमाणु कार्यक्रम.
अव्वाद का मानना है कि इस संघर्ष में इज़राइल की घरेलू राजनीति भी अहम भूमिका निभा रही है। उन्होंने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का हवाला देते हुए कहा कि इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का उद्देश्य सत्ता में बने रहना है, और ईरान से युद्ध उन्हें वह राजनीतिक मौका देता है.
इसके अलावा, अमेरिका की सक्रिय भागीदारी पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने कहा, "अगर आप अमेरिका के प्रभाव क्षेत्र में रहते हैं, तो आप सुरक्षित हैं.लेकिन जैसे ही आप अपनी संप्रभुता की ओर बढ़ते हैं, आपको निशाना बनाया जाता है—जैसा कि इराक, लीबिया और अब ईरान के साथ हुआ.
अव्वाद ने इतिहास का हवाला देते हुए बताया कि 1953 में ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग की सरकार को अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से गिरा दिया गया था, क्योंकि उन्होंने ईरान के तेल संसाधनों को राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इसके बाद ईरान पश्चिमी प्रभाव में चला गया. लेकिन 1979 की इस्लामी क्रांति ने इस समीकरण को बदल दिया और ईरान ने इज़राइल का दूतावास बंद कर फिलिस्तीन का दूतावास खोल दिया.
इसी क्रांति के बाद ईरान ने अमेरिका और इज़राइल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, जो आज तक जारी है। अव्वाद के अनुसार, "ईरान जानता था कि एक दिन अमेरिका और पश्चिमी शक्तियां उस पर हमला करेंगी, क्योंकि वेस्ट एशिया के लगभग हर देश को अशांत कर दिया गया है—सिरिया, इराक, लेबनान, फिलिस्तीन... अब सिर्फ ईरान बचा है.
उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि अमेरिका अक्सर आतंकवाद को एक राजनीतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल करता है—"अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, और सीरिया में यही हुआ। जब भी अमेरिका युद्ध में उतरता है, आतंकवादी तत्व सक्रिय हो जाते हैं.
इस पूरे घटनाक्रम में भारत की स्थिति भी चर्चा का विषय बनी हुई है। दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ माइकल कुगेलमैन के अनुसार, भारत को अभी कोई सीधा जोखिम नहीं है क्योंकि अमेरिका और इज़राइल दोनों से उसके मजबूत संबंध हैं. उन्होंने यह भी कहा कि भारत का युद्धविराम और तनाव कम करने का समर्थन इज़राइल विरोधी नहीं माना जा सकता, क्योंकि इज़राइल ने भी युद्धविराम को मंजूरी दी थी.
हालांकि, अगर संघर्ष दोबारा भड़कता है और भारत को किसी पक्ष में खड़ा होना पड़े, तो यह चुनौतीपूर्ण हो सकता है. इसके अलावा, होर्मुज़ जलडमरूमध्य के बंद होने की आशंका से भारत की ऊर्जा सुरक्षा भी प्रभावित हो सकती है। कुगेलमैन ने बताया कि भले ही भारत ने तेल आपूर्ति के लिए रूस और अमेरिका जैसे विकल्प तलाशे हैं, लेकिन अभी भी 30 से 50 प्रतिशत तक कच्चा तेल और लगभग 55 प्रतिशत एलएनजी आयात इसी मार्ग से आता है.
अगर यह जलमार्ग बंद हो जाता है, तो भारत को वैकल्पिक मार्ग अपनाने होंगे, जिससे व्यापार लागत कई गुना बढ़ जाएगी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि ईरान के लिए भी यह कदम आर्थिक रूप से नुकसानदायक होगा, इसलिए निकट भविष्य में ऐसा होना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है.
यदि हालात बिगड़ते हैं, तो भारत को ऊर्जा आपूर्ति में और विविधता लानी होगी और सौर, पवन और हरित हाइड्रोजन जैसे घरेलू स्रोतों पर अधिक ध्यान देना होगा. कुल मिलाकर, वेस्ट एशिया में जारी संघर्ष वैश्विक रणनीति, कूटनीति, संसाधनों और प्रभुत्व की एक गहरी कहानी बयान करता है—जो अक्सर सतह से नजर नहीं आती.