फिरदौस खान
देश में महिला लिंगानुपात एक वक्त काफी कम हो गया था और इससे व्यापक चिंताएं पैदा हुई थीं, लेकिन मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा दिया और बालिकाओं के सशक्तिकरण के लिए एक देशव्यापी अभियान छेड़ा.
सवाल पैदा होता है कि क्या इस अभियान का असर महिला सशक्तिकरण पर हुआ है? क्या घर में बालिका भ्रूण हत्या या लड़कियो के पैदा होने पर जो नकारात्मक माहौल घरों में बनता था, जागरूकता अभियान से उस पर कोई प्रभाव पड़ा है?
बढ़ती जागरूकता और शिक्षा का ही असर है कि जिस देश में और जिस समाज में लोग बेटियों की बजाय बेटों को ज्यादा तरजीह देते रहे हैं, वहां अब लोग बेटियों को परिवार में जरूरी मानने लगे हैं, उनकी चाहत करने लगे हैं. एक सर्वे के मुताबिक, बेटियों को लेकर समाज का नजरिया बदलने लगा है.
नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 15 से 49 साल की 79 फीसद महिलाएं और 15 से 54 साल के 78 फीसद पुरुष चाहते हैं कि उनके परिवार में कम से कम एक बेटी जरूर होनी चाहिए.
बेटी चाहने वालों में मुस्लिम, दलित और आदिवासी सबसे आगे हैं. राज्यों की बात करें, तो इसमें उत्तर प्रदेश और बिहार आगे हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी रेखा से नीचे आने वाले तबके और निम्न मध्वर्गीय परिवारों की 86 फीसद महिलाएं और 85 फीसद पुरुष बेटी के जन्म पर खुशी मनाते हैं. मुस्लिम, दलित और आदिवासी तबकों के लोगों का मानना है कि परिवार में बेटी का होना बहुत जरूरी है.
इस सर्वे की खास बात यह भी है कि साल 2005-06 के सर्वे के मुकाबले इस बार गांवों की महिलाओं ने परिवार में बेटियों को खासी तरजीह दी है. पुराने सर्वे में 74 फीसद शहरी महिलाओं ने बेटियों को तरजीह दी थी, जबकि 65 फीसद ग्रामीण महिलाओं ने बेटी की ख्वाहिश जाहिर की थी.
इस बार ग्रामीण इलाकों की 81 फीसद महिलाओं ने बेटी को तरजीह दी है, जबकि शहरी इलाकों की 75 फीसद महिलाओं ने बेटी की चाहत जताई है. ग्रामीण इलाकों के 80 फीसद पुरुष परिवार में बेटी चाहते हैं, जबकि शहरी इलाकों के 75 फीसद पुरुषों ने ही घर में बेटी को जरूरी माना है.
परिवार में बेटी को तरजीह देने के मामले में शिक्षा का असर देखने को मिला है. यानी बारहवीं पास 85 फीसद महिलाएं बेटी को जरूरी मानती हैं, जबकि इससे कम शिक्षित 72 फीसद महिलाओं ने परिवार में बेटी की पैदाइश को जरूरी माना है.
इस मामले में पुरुषों की सोच महिलाओं से एकदम विपरीत है यानी सिर्फ 74 फीसद शिक्षित पुरुष ही बेटियों की चाहत रखते हैं, जबकि 83 फीसद कम शिक्षित पुरुषों ने बेटियों को अपनी पहली पसंद करार दिया है.
रिपोर्ट के मुताबिक, 79 फीसद बौद्ध और 79 फीसद हिन्दू महिलाओं का मानना है कि घर में कम से कम एक बेटी तो होनी ही चाहिए. जातीय समुदायों का जिक्र करें, तो 81 फीसद दलित और 81 फीसद आदिवासी और 80 अन्य पिछड़ा वर्ग के परिवारों की महिलाओं ने बेटी को जरूरी माना है. इसी तरह 84 फीसद आदिवासी पुरुष और 79 फीसद दलित पुरुष भी बेटी चाहते हैं.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ पुरुष की बेटों की चाहत रखते हैं. समाज में ऐसी महिलाओं की कोई कमी नहीं है, जो खुद महिला होने के बावजूद बेटी को पसंद नहीं करतीं और बेटियों को बोझ समझती हैं.
सर्वे के मुताबिक 19 फीसद महिलाएं ऐसी भी हैं, जो बेटा चाहती हैं. इसके विपरीत 3.5 फीसद ऐसी महिलाएं भी सामने आईं, जिन्हें सिर्फ बेटियां चाहिए. हालांकि बिहार की 37 फीसद महिलाएं और उत्तर प्रदेश की 31 फीसद महिलाएं बेटों को बेटियों से ज्यादा अच्छा समझती हैं.
साल 2011 की जनगणना के आंकड़े भी यह साबित करते हैं कि मुसलमानों में बेटियों का लिंगानुपात अन्य समुदायों के मुकाबले में बेहतर है. मुस्लिम समुदाय में कुल लिंग अनुपात 950:1000 है, जबकि हिन्दू समुदाय में लिंगानुपात 925:1000 है.
हालांकि, इस मामले में ईसाई समुदाय सबसे आगे है. ईसाइयों में लिंगानुपात 1009:1000 है. औसत राष्ट्रीय लिंग अनुपात 933:1000 है.
तकरीबन 81 फीसद मुसलमान परिवारों ने घर में बेटियों का होना बेहद जरूरी माना है. दरअसल, मुस्लिम समाज में बेटियों को चाहने की मजहबी वजह भी है. गौरतलब है कि अरब देशों में पहले लोग अपनी बेटियों को पैदा होते ही जिन्दा दफना दिया करते थे, लेकिन अल्लाह के नबी हजरत मुहम्मद ने इस घृणित और क्रूर प्रथा को खत्म करवाकर बेटियों को इज्जत का मुकाम दिया.
उन्होंने मुसलमानों से अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने को कहा. एक हदीस के मुताबिक अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- ‘‘जिसकी तीन बेटियां या तीन बहनें या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उसने अच्छी तरह रखा गया और उनके बारे में अल्लाह से डरता रहा, तो वह जन्नत में दाखिल होगा.’’ (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या 446)
इस्लाम में वंश चलाने के लिए बेटों को जरूरी नहीं माना जाता. अल्लाह के नबी हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का वंश उनकी प्यारी बेटी सैयदना फातिमा जहरा सलामुल्लाह अलैहा से चला.
जब तमाम लोग अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह में आते, तो सबसे पहले यह कहते- ‘‘या रसूल अल्लाह ! मेरे मां-बाप आप पर कुर्बान.’’ फिर उसके बाद ही वे अपनी कोई फरियाद करते. लेकिन जब अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपनी बेटी से कोई बात करते, तो सबसे पहले यह इरशाद फरमाते- ‘‘फातिमा! तुझ पर मेरे मां-बाप कुर्बान.’’
रसूल अल्लाह ने अपनी बेटी को इतना बुलंद मर्तबा दिया. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दुनिया की हर बेटी को आदर-सम्मान दिया.
इस्लाम के मुताबिक रोजे-महशर में हर शख्स अपनी मां के नाम के साथ पुकारा जाएगा. उस वक्त उसे उसकी मां के नाम से ही पहचाना जाएगा. ऐसा इसलिए है कि इस दुनिया में उन औरतों की कमी नहीं है, जिनके साथ जबरदस्ती की गई या जिन्हें जिस्मफरोशी के गलीज धंधे में धकेल दिया गया. रोजे महशर में ऐसी मांओं के बच्चों को शर्मिंदगी से बचा लिया गया है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बेटियां हर घर की रौनक होती हैं. बेटियां अपने माता-पिता के दिल के करीब होती हैं. बेटियां दूर होकर भी अपने मां-बाप से दूर नहीं होतीं. बहरहाल, यह एक अच्छी खबर है कि बेटियों के प्रति समाज का नजरिया बदलने लगा है.
(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फहम अल कुरआन लिखा है.)