आवाज द वॉयस/ नई दिल्ली
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल में तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया है.तलाक-ए-हसन के अनुसार, एक मुस्लिम व्यक्ति हर महीने में एक बार और तीन महीने में तीन बार तलाक कहकर अपनी पत्नी से रिष्ता खत्म कर सकता है.
जस्टिस दिनेश कुमार शर्मा की अवकाशकालीन पीठ ने दिल्ली पुलिस के साथ उस मुस्लिम व्यक्ति से जवाब मांगा, जिसकी पत्नी ने तलाक-ए-हसन के नोटिस को चुनौती देते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है. मुस्लिम महिला का दावा है कि शादी के बाद उसके पति और उसके ससुराल वाले न केवल अपने घर, उसकी मां के घर पर भी उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहे हैं.
उसके ससुराल वाले नकदी और महंगे उपहार मांगते रहे हैं, जिसे उसके मैके वालों ने पूरा करने से मना कर दिया. महिला अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला दर्ज करा चुकी है. याचिका में दावा किया गया है कि उसके पति और उसके परिवार वालों ने अपने खिलाफ कार्रवाई से बचने के लिए तलाक-ए-हसन को प्राथमिकता दी़. उसे पहला नोटिस यानी तलाक दिया जा चुका है.
याचिका में कहा गया है कि तलाक-ए-हसन न केवल मनमाना, अवैध, निराधार, कानून का दुरुपयोग है,एकतरफा अतिरिक्त-न्यायिक अधिनियम भी है जो सीधे अनुच्छेद 14, 15, 21, 25और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का उल्लंघन है. याचिका में तर्क दिया गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 एक गलत धारणा देता है कि कानून तलाक-ए-हसन को एकतरफा अतिरिक्त न्यायिक तलाक होने की अनुमति देता है,
जो याचिकाकर्ता और अन्य विवाहित मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. आगे कहा गया है, मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939का विघटन, तलाक-ए-हसन से याचिकाकर्ता की रक्षा करने में विफल रहता है, जिसे अन्य धर्मों की महिलाओं के लिए वैधानिक रूप से सुरक्षित किया गया है. यह अनुच्छेद 14, 15, 21और 25और नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का उल्लंघन है.
याचिका में कहा गया है कि तलाक-ए-हसन, संविधान के अनुच्छेद 21का इस कारण से उल्लंघन करता है कि यह पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव करता है. इससे महिला की गरिमा के अधिकार का घोर उल्लंघन होता है.
याचिका में कहा गया है, इसलिए, तलाक-ए-हसन की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 21द्वारा प्रदत्त अधिकार के साथ हस्तक्षेप है. उक्त अधिकार को केवल एक न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और उचित कानून द्वारा ही छीना जा सकता है, जिसका वर्तमान मामले में अभाव है. तलाक-ए-हसन को चुनौती देने के अलावा, याचिका में निर्देश के लिए प्रार्थना की गई है कि सभी धार्मिक समूह, निकाय और नेता जो इस तरह की प्रथाओं की अनुमति और प्रचार करते हैं, उन्हें याचिकाकर्ता को सरिया कानून के अनुसार कार्य करने और तलाक-ए-हसन को स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए.
यह याचिकाकर्ता को सभी धार्मिक समूहों, निकायों और नेताओं से सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस से निर्देश मांगता है जो इस तरह की प्रथाओं की अनुमति देते हैं. उन्हें तलाक-ए-हसन को स्वीकार करने के लिए मजबूर करते हैं.
ध्यान देने वाली बात यह है कि तलाक-ए-हसन के माध्यम से तलाक की मुस्लिम पर्सनल लॉ प्रथा को चुनौती देने वाली एक समान याचिका को भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्राथमिकता दी गई है. याचिका में तर्क दिया गया है कि यह प्रथा भेदभावपूर्ण है. केवल पुरुष ही इसका प्रयोग कर सकते हैं.
यह घोषणा करना चाहते हैं कि यह प्रथा असंवैधानिक है. यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21और 25का उल्लंघन भी है. याचिकाकर्ता के अनुसार, यह इस्लामी आस्था का एक अनिवार्य अभ्यास नहीं है.