मलिक असगर हाशमी/ पटना
बिहार के फुलवारी शरीफ में इमारत-ए-शरिया की बिल्डिंग से लगती एक संकरी-सी गली जाती है, जिसके आखिरी छोर पर एक सरकारी हाई स्कूल के प्रिंसिपल शकील अहमद रहते हैं. शाम के वक्त उनके मकान के बाहरी कमरे में दोस्तों-रिश्तेदारों के बीच उनकी बेटी का रिश्ता फाइनल करने दरभंगा से आए सैयद मुकीम से लेन-देन की बातें तय हो रही थीं.
सारी बातें तय होने के बाद लड़की के वालिद यानी शकील अहमद ने अचानक लड़के के पिता से कहा, ‘‘डाले में मादरी हक के साथ उस्तानी जोड़ा लाना नहीं भूलेंगे!’’ उन्होंने भी सिर हिलाकर हामी भरी और शादी की सारी बातें तय कर अपने घर के लिए ट्रेन पकड़ने शकील अहमद के घर से स्टेशन के लिए निकल पड़े.
पढ़ने में ये बातें थोड़ी अटपटी सी लग सकती हैं क्योंकि किसी परिवार की शादी-ब्याह में आम लोगों की क्या दिलचस्पी हो सकती है? मगर, उनके लिए यह छोटी सी घटना बहुत अहम हो सकती है, जो यह कहकर हमेशा बेवजह का विवाद खड़ा करने का प्रयास करते रहते हैं कि मुस्लिम कौम में औरतों की इज्जत नहीं. उन्हें बच्चा पैदा करने की मशीन समझा जाता है. मगर हकीकत इसके उलट है.
अपवादों को छोड़ दें तो मुस्लिम औरतों को अपनी कौम में वही दर्जा प्राप्त है, जो अन्य कौमों में है. कुरान और हदीस की बातें एक सेकंड के लिए अलग रखकर भी देखें, तो मुस्लिम औरतों को बराबर का हक दिए जाने की तस्वीर साफ दिखाई देती हैं. इस्लाम में मां यानी एक औरत के पैर के नीचे जन्नत की बात कही गई है, मगर बिहार में बगैर औरतों को महत्व दिए शादी-ब्याह की रस्में मुकम्मल नही होती.
लेख की शुरूआत में जिस ‘मादरी हक’ और ‘उस्तानी जोड़े’ की बात कही गई है, वह दरअसल, बारात के दिन लड़के वालों की तरफ से खास तौर से लाए जाने वाले दो लिबासों का जिक्र है. मादरी हक यानी लड़की की मां के कपड़े और उस्तानी जोड़ा यानी दुल्हन को बचपन में अल्फि बे ते से और मुस्लिम संस्कृति व तहजीब की बुनियाद रखने वाली महिला के कपड़े.
बिहार में जब शादी-ब्याह की बातें फाइनल हो रही होती हैं, तो मादरी हक और उस्तानी जोड़े पर विशेष तौर से चर्चा की जाती है. दरअसल, ये दोनों ही जोड़े मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को अहमियत देने के संकेत हैं. पटना के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक फिरदौस जहां बताती हैं, “बिहार में आम तौर से बच्चे और बच्चियों को दीनी तालीम देने का रिवाज है.
कुछ लोग अपने बच्चों को मौलवी या मदरसों में इसके लिए भेजते हैं, जबकि लड़कियों को कुरान-हदीस की तालीम देने वाली महिलाओं के पास. कई महिलाएं घर पर आकर लड़कियों को पढ़ा जाती हैं. इन महिलाओं को बिहार में ‘उस्तानी’ कहा जाता है.” गया के मुरारपुर मुहल्ले की बुजुर्ग महिला फरीदा बानो बताती हैं कि ‘उस्तानी जी’ केवल बच्चियों को कुरान हदीस नहीं पढ़ाती हैं. वह उन्हें मुस्लिम संस्कृति से भी रू-ब-रू कराती हैं. उन्हें बताती हैं कि आम तौर से मुस्लिम लड़कियों को परिवार और समाज में कैसा व्यवहार करना चाहती हैं.
फरीदा बानो दावे से कहती हैं कि बचपन में उस्तानी से तालीम लेने वाली लड़की चाहे जितने उंचे ओहदे पर चली जाए, अपनी मूल संस्कृति नहीं छोड़ती. फरीदा बानो की एक पोती आईआईटी मुंबई से फाइन आर्ट में मास्टर कर बेंगलूरू में जॉब कर रही हैं, जबकि दूसरी जामिया मिल्लिया इस्लामिया से बीटेक कर एमटेक में दाखिला लेने के लिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगी है. वह कहती हैं कि उनकी दोनों ही पोतियां मॉर्डन विचार की होने के बावजूद बेहद संस्कारी हैं.
नौशाद अख्तर बताते हैं कि यदि कोई बच्ची किसी कारण से उस्तानी की बजाए किसी मौलाना से दीनी तालीम लेती है, तो शादी में उनके लिए भी विशेष तौर से लड़के के घर से कपड़े आते हैं. मगर उन्हें परिवार में वह अहमियत नहीं दी जाती जो उस्तानी की होती है.
बिहार के मूल निवासी और नागपुर में रहने वाली शहला परवीन कहती हैं, “उस्तानी जोड़े वाली संस्कृति केवल बिहार में ही है. देश के अन्य हिस्से में ऐसा देखने को नहीं मिलता. यहां तक कि जो लोग बंटवारे के समय बिहार से पाकिस्तान चले गए, वहां जाकर भी वे आज भी इस संस्कृति को बरकरार रखे हुए हैं.”
दारूल उलूम, गया के मुफ्ती हसनैन अख्तर कहते हैं, “इस्लाम में तालीम और उस्ताद को खास अहमियत दी गई है. उस्ताद यदि औरत हो तो यह महत्व और बढ़ जाता है.” उनके मुताबिक, “मुगल काल में ’उस्तानी’ की संस्कृति दूसरे रूप में थी. रानियों और राजकुमारियों को रजवाड़े आदाब सिखाने के लिए जनान खाने में विशेष गुणों वाली महिलाएं रखी जाती थीं. इसके उल्लेख इतिहास की कई पुस्तकों में मिल जाएंगे.”