साकिब सलीम
दिवाली और पटाखों का रिश्ता आज हमारे लिए इतना स्वाभाविक हो गया है कि यह मान लेना आम बात है कि ये परंपरा सदियों से दिवाली का हिस्सा रही है. जब भी सरकार पर्यावरण या स्वास्थ्य के आधार पर पटाखों के उपयोग पर रोक लगाने की बात करती है, तो कुछ समूह इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करार देते हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई पटाखे दिवाली के प्राचीन अंग हैं ?
इतिहास में झाँकें तो इस सवाल का जवाब है नहीं. दिवाली की परंपरा बहुत पुरानी है, लेकिन पटाखों का इससे जुड़ाव अपेक्षाकृत नया है. संस्कृत के विद्वान पी. के. गोडे ने अपने शोध में बताया है कि दिवाली शब्द की उत्पत्ति 'दीपमाला' यानी दीयों की कतार से हुई है, जिसका उल्लेख 5वीं शताब्दी के 'नीलमत पुराण' और यहां तक कि 2वीं शताब्दी के 'काम सूत्र' में 'यक्ष रात्रि' के रूप में मिलता है. तब दिवाली का स्वरूप दीप जलाने, मंदिर जाने और मिठाइयों के आदान-प्रदान तक सीमित था.कहीं भी पटाखों का उल्लेख नहीं मिलता.
भारत में पटाखों का आगमन 15वीं शताब्दी के बाद शुरू होता है. फ़ारसी राजदूत अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने 1443 में विजयनगर साम्राज्य में आतिशबाज़ी का वर्णन किया था. इसके बाद इतालवी यात्री लुडोविको और पुर्तगाली लेखक डुआर्टे बारबोसा ने भी भारत में आतिशबाज़ी के उपयोग को 1500 के दशक में होते देखा. ओडिशा के राजा प्रताप रुद्रदेव ने भी अपने संस्कृत ग्रंथ 'कौतुक चिंतामणि' में पटाखों के निर्माण की विधियाँ दर्ज कीं.
इसका मतलब यह है कि 1400 के बाद भारत में पटाखे आए और 1600 तक शाही आयोजनों, शादियों और त्योहारों में मनोरंजन के साधन बन गए थे.दिवाली के साथ पटाखों का सीधा जुड़ाव हमें 18वीं शताब्दी के दस्तावेजों में मिलता है. पेशवा बखर के अनुसार, महादजी शिंदे ने कोटा (राजस्थान) में दिवाली के दौरान 'दारूची लंका',एक प्रकार की विशाल आतिशबाज़ी का वर्णन किया, जिसमें रावण, हनुमान और बंदरों की बारूद से बनी आकृतियाँ जलाई जाती थीं.
यह आयोजन इतना भव्य होता था कि पेशवा ने पुणे में भी इसी तरह का आतिशबाज़ी प्रदर्शन करवाने का आदेश दिया.रोचक बात यह है कि 19वीं सदी के सरकारी दस्तावेजों और जनगणनाओं से पता चलता है कि पटाखों के निर्माता अधिकतर मुसलमान थे.
'आतिशबाज़' और 'बारूतसाज़' जैसे शब्दों से उन्हें पहचाना जाता था और ये जातियाँ बारूद और आतिशबाज़ी के निर्माण में पारंगत थीं. लेकिन ब्रिटिश काल में बारूद पर नियंत्रण लगाने के कारण इस पेशे को झटका लगा.
आज, जब पर्यावरणीय चिंता के चलते पटाखों पर प्रतिबंध की माँग उठती है, तो यह जानना ज़रूरी है कि पटाखे दिवाली की मूल परंपरा नहीं थे, बल्कि यह जुड़ाव बाद के समय में हुआ. हालांकि अब वे कई लोगों के लिए दिवाली का अहम हिस्सा बन चुके हैं, परंतु उनका सांस्कृतिक आधार उतना प्राचीन नहीं जितना समझा जाता है. पटाखों के बिना भी दिवाली रोशनी, उमंग और सांस्कृतिक जुड़ाव का उत्सव बनी रह सकती है.