जश्न सहाफत में उर्दू पत्रकारिता की दुर्दशा पर मंथन

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-09-2023
Brainstorming on the plight of Urdu journalism in Jashn Sahafat
Brainstorming on the plight of Urdu journalism in Jashn Sahafat

 

मंसूरुद्दीन फरीदी / नई दिल्ली

उर्दू किसी धर्म की भाषा नहीं,लेकिन उर्दू अखबारों को धार्मिक मंच बना दिया गया. हालांकि उर्दू वाले खुद मानते हैं कि इसका कोई धर्म नहीं. अगर ऐसा है तो तफसीर कुरान और अहादीस अखबारों में किस आधार पर छपते हैं. यह हमारी गलती है कि हमने उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया है, जबकि सच्चाई यह है कि इस भाषा का समर्थन मुसलमानों से ज्यादा गैर-मुसलमानों ने किया है. हमें उर्दू अखबारों का अंदाज और मिजाज बदलना होगा. कट - पेस्ट की प्रवृत्ति  बदलनी होगी. हमें नई तकनीक स्वीकार करना चाहिए. हमें अपने पाठकों को वह सब कुछ देना होगा जो अन्य राष्ट्रीय समाचार पत्र देते हैं.

ये विचार प्रतिष्ठित एक्सचेंज 4 मीडिया द्वारा राष्ट्र राजधानी में आयोजित जश्न सहाफत में वक्ताओं द्वारा व्यक्त किए गए. इस दौरान 40 से कम उम्र के 40 पत्रकारों को पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. 200 प्रविष्टियों में से, 40 उर्दू पत्रकारों को जूरी प्रक्रिया के माध्यम से चुना गया.
 
इस सूची में उर्दू क्षेत्र के संपादक, पत्रकार, एंकर, डिजिटल मीडिया पेशेवर, वीडियोग्राफर, समाचार निर्माता और वीडियो संपादक शामिल हैं. प्रमुख उद्योगपति और मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति जफर सरेशवाला ने कहा कि हमें समय की जरूरत में जाना होगा.
 
हम जानते हैं कि देश में दस करोड़ लोग उर्दू बोलते हैं, जिनमें से आधे गैर-मुस्लिम हैं. अगर हम उर्दू अखबार को सिर्फ खबरों का जरिया बना दें तो इसमें क्या हर्ज है? मैं साफ शब्दों में कह रहा हूं कि मैं अखबारों में कुरान और हदीसों की तफसीर छापने के खिलाफ हूं.
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इस तरह रमजान के दौरान मौलवी उर्दू चैनलों पर नजर आते हैं. आप इससे क्यों जोड. रहे हैं ? यह एक व्यवस्थित खेल है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा बननी चाहिए और साथ ही मुसलमानों को राजनीतिक समझ भी नहीं मिली है. मेरा मानना है कि हमें अपने मजहब को घर में ही रखना होगा.
 
जफर सरेशवाला ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद उर्दू पसंद करते हैं. उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं उर्दू में भी अपनी वेबसाइट बनाना चाहता हूं. मैं इसका उद्घाटन पटकथा लेखक सलीम खान से करना चाहता हूं. मैंने ये इच्छा पूरी की और सलीम खान ने वेबसाइट लॉन्च की.
 
उन्होंने कहा कि आज अगर उर्दू की हालत खराब है तो इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं. हमने उर्दू को अपने घरों से बाहर निकाला. उत्तर प्रदेश में ही उर्दू गायब हो गई. उर्दू को भुला दिया गया. जब उर्दू लिखना-पढ़ना नहीं आएगा तो पत्रकारिता तो दूर की बात है.
 
जफर सरेशवाला ने कहा कि अब समय आ गया है कि उर्दू पत्रकारिता में जो कमियां हैं उन्हें दूर किया जाए. यह संभव है. हमें बस यथार्थवादी होना होगा. हमें अपनी कमजोरियों को पहचान कर उन पर काम करना होगा.
 
हालांकि, टीवी पत्रकार बुशरा खानम इस बात से सहमत नहीं थीं. उन्होंने कहा कि आप हिंदी अखबार और न्यूज चैनल देख लीजिए, सभी में धार्मिक जानकारी दी जा रही है. इतना ही नहीं कई तरह के बाबा पैसे देकर स्लॉट ले रहे हैं.
 
सत्तार की चाल सबसे लोकप्रिय कॉलम है, इसलिए यह कहना गलत होगा कि केवल उर्दू अखबारों में ही धर्म को बढ़ावा दिया जा रहा है. उन्होंने इस मामले पर अपनी चिंता जरूर जताई कि उर्दू पत्रकारिता में वेतन के नाम पर जो किया जाता है वह शर्मनाक है. उर्दू अखबार या चैनल ऐसे लोगों को नौकरी पर रखते हैं जो सिर्फ उर्दू जानते हैं, लेकिन उनका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है.
 
कार्यक्रम में पैनल डिस्कशन में शामिल हुए युवा पत्रकार दैनिक रिवोल्यूशन के रेजिडेंट एडिटर यामीन अंसारी ने कहा कि उर्दू पत्रकारिता आज भी प्रभावशाली है. आजादी से पहले के दौर की बात करें तो उर्दू पत्रकारिता हिंदी और अंग्रेजी से काफी आगे थी.  अब भी है. उर्दू पत्रकारिता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. इस संबंध में उन्होंने दैनिक इंकबाल में छपी एक खबर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया का जिक्र किया.
 
एक अन्य पत्रकार खुर्शीद रब्बानी ने कहा कि मैंने संसद सदस्यों के हाथों में उर्दू अखबार देखे हैं और भाषा में उर्दू चैनलों के नाम भी सुने हैं, लेकिन अगर हम अतीत की बात करें तो हम अपने वर्तमान और भविष्य के लिए बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
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जिसकी शुरुआत हमारे घरों से होती है. हमने उर्दू को अपने घरों से बाहर निकाल दिया है. हमारे बच्चे उर्दू नहीं जानते. हम उर्दू अखबार नहीं पढ़ते. दूसरी समस्या उर्दू को रोजगार से जोड़ने की है. इसके साथ ही हमें अपने बोलने का तरीका भी बदलना होगा.
 
प्रमुख पत्रकार फरहत बसीर खान ने कहा कि नकल कभी मूल से प्रतिस्पर्धा नहीं करती. हमें कट पेस्ट से बाहर आना होगा.इस बीमारी ने उर्दू पत्रकारिता को अवसाद में धकेल दिया है. उन्होंने यह भी कहा कि उर्दू का कोई धर्म नहीं है. उर्दू पढ़ने वाले बड़ी संख्या में लोग गैर-मुस्लिम हैं, जबकि उर्दू को धर्म से जोड़ा गया है.
 
 इस पैनल चर्चा का आयोजन करते हुए भारत एक्सप्रेस के उर्दू संपादक खालिद रजा ने कहा कि उर्दू पत्रकारिता का सबसे नकारात्मक पहलू महबी पत्रकारिता है.हर्ष भल्ला ने कहा कि उर्दू का प्रयोग देश में सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देता है और जनसंपर्क में अहम भूमिका निभाता है.
 
यह सर्वोत्कृष्ट रूप से भारतीय है. शायरी निस्संदेह इसकी आत्मा है क्योंकि उसने भाषा की लिपि को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है . शायरों ने इसे भावनाओं की अभिव्यक्ति की भाषा बनाया है.यही गुण इसे सार्वभौमिक बनाता है.
 
उन्होंने कहा कि उर्दू सिर्फ एक भाषा नहीं बल्कि एक सभ्यता का नाम है, जो लोगों को एकजुट रख सकती है. हर्ष भल्ला ने कहा कि अगर भारत को गुलदस्ता कहा जाता है, तो उर्दू को ताज महल की तरह कहा जाता है. यदि भारत न होता तो उर्दू न होती. तेरहवीं शताब्दी में सूफी अमीर खुसरो ने इस भाषा को नई भावना दी, तो सोलहवीं शताब्दी में राजाओं के दरबार में उर्दू खूब फली-फूली.
 
यह देश में उर्दू पत्रकारों के लिए अपनी तरह का पहला पुरस्कार समारोह था, जिसमें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरेशी, एक्सचेंज 4 मीडिया के अध्यक्ष डॉ. अनुराग बत्रा, राष्ट्रीय उर्दू भाषा परिषद के निदेशक डॉ. (प्रोफेसर) शेख अकील अहमद शामिल हुए. अनबरीन खान, मीडिया मार्केटिंग एक्सपर्ट बुशरा खानम, प्रोफेसर फरहत बसीर खान, डॉ. हरीश भल्ला कल्चर जार और सोशल क्रूसेडर, डॉ. खालिद रजा खान, खुर्शीद रब्बानी, मोइन शादाब, प्रो. (डॉ.) प्रमोद कुमार, एचओडी, उर्दू पत्रकारिता विभाग, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली, सुमन वर्मा, सीएमओ, हमदर्द, जफर सरेशवाला, पूर्व चांसलर मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू की उपस्थिति यूनिवर्सिटी और अन्य शख्सियत मौजूद रहे.