भुला दिए गए भारतीय फुटबॉल के असली द्रोणाचार्य सैय्यद अब्दुल रहीम

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 2 Years ago
भुला दिए गए फुटबॉल के द्रोणाचार्य
भुला दिए गए फुटबॉल के द्रोणाचार्य

 

आवाज विशेष । शख्सियत

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

आज दुनियाभर के फुटबॉल की तकनीक और तेजी और फुटबॉल खेलने वाले देशों की फेहरिस्त में हिंदुस्तान की स्थिति को देखते हुए यह कल्पना करना मुश्किल है कि कभी भारत एशिया की सर्वश्रेष्ठ टीम थी. फुटबॉल के मामले में कई यूरोपीय टीमों की बराबरी से खेलती थी. और भारत को उस स्थिति में ले जाने वाला एक शख्स थेः हैदराबाद के सैयद अब्दुल रहीम.

रहीम साहब के योगदान की चर्चा के बगैर भारतीय फुटबॉल की बात अधूरी रहेगी. उनके मार्गदर्शन में भारत 1956 में मेलबर्न ओलंपिक में चौथे स्थान पर आया था और दो बार एशियाई खेलों में जापान और कोरिया जैसी टीमों को हराकर स्वर्ण पदक जीता.

बहरहाल, छह दशक बाद काफी पानी बह चुका है और जापान अब फीफा विश्व कप की अगुआ टीमों में है और हम बांग्लादेश से जूझने वाली टीम रह गए हैं. जाहिर है भारतीय फुटबॉल को अब एक बार फिर से रहीम के जादू की जरूरत है.

रहीम का निधन कैंसर के कारण तब हो गया जब वह केवल 53 वर्ष के थे. उनकी अंतिम प्रतियोगिता 1962 में इंडोनेशिया में एशियाई खेल था. उन्हें भारतीय टीम को कोचिंग देने का काम सौंपा गया था. लेकिन वह पहले से ही भयानक कैंसर से पीड़ित थे और वह जानते थे कि उसके आखिरी दिन नजदीक हैं.

फाइनल मैच दक्षिण कोरिया के खिलाफ था. दक्षिण कोरिया को हराना मुश्किल था. रहीम ने इसका रास्ता जज्बातों के जरिए निकाला और मैच शुरू होने से कुछ मिनट पहले, उन्होंने खिलाड़ियों को एक साथ बुलाया और कहा: “लड़कों, आज मेरी एक आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दो. मुझे एक गोल्ड मेडल दिलवा दो.”

खिलाड़ियों को पता था कि उनका कोच आगे से दोबारा उनके साथ नहीं रहेगा. लेकिन टीम अपने कोच को आखिरी सौगात देना चाहती थी.  इंडोनेशियाई भीड़ पूरी तरह से भारत के खिलाफ थी. भारतीय खिलाड़ी जैसे ही मैदान में आए, भीड़ ने गाली-गलौज और अपमानजनक टिप्पणियां शुरू कर दीं.

लेकिन भारतीय टीम कामयाब होने के लिए दृढ़ थी. टीम का हर खिलाड़ी दिलों में आग के साथ मैदान में गया और मजबूत कोरियाई विरोधियों के खिलाफ शेरों की तरह खेले. बेहतरीन फुटबॉल खेलते हुए भारत के लिए पी.के. बनर्जी और जरनैल सिंह ने दो गोल किए जबकि कोरिया के लिए चा ताए सुंग ने एकमात्र गोल किया.

जीत के बाद खिलाड़ियों ने एक साथ सभी पदक एकत्र किए और रहीम के पास आकर अपने सारे पदक उनके हाथों में सौंप दिया. लेकिन ऐसा करते हुए भी उनकी आंखों में आंसू थे. कोच इतने भावुक हो गए कि वह बोल भी नहीं पा रहे थे.

ड्रेसिंग रूम में टीम उदास और खामोश बैठी रही. जब रहीम अंदर गए तो उन्होंने देखा कि टीम का मूड मैच जीतने वाली टीम की तरह नहीं, पराजित टीम की तरह था. उन्होंने कहा: “आज हम जीत गए हैं. आज जश्न मनाओ. ऐसा मौका बार-बार नहीं आएगा.”

फिर उन्होंने हर खिलाड़ी को गले लगाया और कहा कि हमेशा जोश में रहो. इन अंतिम शब्दों के साथ, वह आखिरी बार कमरे से बाहर चले गए और फिर कभी नहीं लौटे.

रहीम के जाने के बाद भारतीय टीम में गिरावट का दौर शुरू हुआ. मौजूदा वक्त में भारत की फीफा विश्व रैंकिंग 105 है. यहां तक ​​कि वियतनाम और अफ्रीका के बुर्किना फासो जैसे छोटे देश भी हमसे आगे हैं.

रहीम पेशे से शिक्षक थे. उन्होंने काचीगुडा मिडिल स्कूल, उर्दू शरीफ़ स्कूल, दारुल-उल-उलूम हाई स्कूल और चदरघाट हाई स्कूल में काम किया. फिर उन्होंने शारीरिक शिक्षा में डिप्लोमा किया और सभी उम्र के बच्चों के लिए खेल गतिविधियों की कमान संभाली.

उन्होंने हैदराबाद सिटी पुलिस को भारत की सर्वश्रेष्ठ टीमों में से एक बना दिया. ईस्ट बंगाल, मोहन बागान और मोहम्मडन स्पोर्टिंग जैसी मजबूत टीमें हैदराबाद की टीम का सामना नहीं कर सकीं. 1950 और 1963 के बीच हैदराबाद सिटी पुलिस ने रिकॉर्ड नौ बार मुंबई में रोवर्स कप जीता.

उसने युवा लड़कों को फुटबॉल के नायकों में बदल दिया. रहीम एक दूरदर्शी व्यक्ति थे, लेकिन उनके प्रयासों को सरकार ने हमेशा नजरअंदाज किया. कोई इनाम-इकराम कुछ नहीं. यहां तक कि कभी उनको पद्मश्री के लायक भी नहीं समझा गया.