नशे को ना कहकर आत्मनिर्भर गांव बना राजस्थान का छोटी बेरी, सांप्रदायिक सद्भाव में भी एक मिसाल

Story by  रावी द्विवेदी | Published by  [email protected] | Date 30-01-2023
 आत्मनिर्भर गांव छोटी बेरी
आत्मनिर्भर गांव छोटी बेरी

 

रावी द्विवेदी

राजस्थान के नागौर जिले के छोटी बेरी गांव को कई मायने में आदर्श माना जा सकता है. सबको बराबरी का दर्जा, महिलाओं को सम्मान और देशभक्ति की भावना यहां के लोगों के रग-रग में समाई है. जरा सोचिए, कोई ऐसा गांव हो, जहां लोग आपस में एकदम मिल-जुलकर रहते हों, हर परिवार समृद्ध और आत्मनिर्भर हो, लोग देश-दुनिया में अपने गांव का नाम रौशन कर रहे होंए जाति-धर्म को लेकर किसी तरह का कोई भेदभाव न हो, महिलाएं सशक्त हों और उन्हें किसी तरह की सामाजिक बेड़ियों में भी न जकड़ा जाता हो. ऐसे गांव का अस्तित्व में होना कोई कोरी-कल्पना नहीं है, बल्कि राजस्थान के नागौर जिले का करीब 11 हजार लोगों की आबादी वाला छोटी बेरी गांव इसकी जीती-जागती मिसाल है.

बहुत संभव है, आपने इस गांव का नाम सुना होए लेकिन क्या आपको पता है कि इस गांव ने यह आदर्श स्थिति कैसे हासिल की और किस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी इस परंपरा को बरकरार रखा?

स्थानीय लोग बताते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि यहां के नागरिकों ने नशे और जुए जैसी बुराइयों से दूरी बनाई और मेहनत की कमाई को ही अपने जीवन का मूलमंत्र बनाए रखा है. सेना में अपनी सेवाएं देना लोगों की पहली पसंद हैं. सांप्रदायिक सौहार्द्र के मामले में भी यह गांव एक आदर्श ही है.

पुरखों की बातों से मिली समृद्धि

छोटी बेरी के सरपंच इकबाल खान बताते हैं, “इस गांव की समृद्धि का राज बुजुर्गों की दुआओं और नसीहत में छिपा है.” उन्होंने बताया कि इस गांव को 1652 में मलयागर खान ने बसाया था.

उसी समय इसे एक आदर्श गांव बनाने की कल्पना की गई थी और अपने बुजुर्गों की सीख को ही अपनी विरासत मानकर लोग आज भी तमाम तरह की बुराइयों से खुद को दूर रखते हैं.

 

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इकबाल खान कहते हैं, ‘‘हमारे गांव के बुजुर्गों ने तय किया था कि यहां कोई किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा, महिलाओं को पूरा सम्मान देगा, अपना जीवन देशसेवा के लिए समर्पित कर देगा, किसी तरह का नशा नहीं करेगा, और अपनी मेहनत की कमाई से ही गुजर-बसर करेगा. आज भी गांव के लोग इन्हीं आदर्शों पर अमल करते हैं.’’

इकबाल खान के मुताबिक, गांव के लोगों के पास आय के दो प्रमुख साधन हैं. एक सेना में अपनी सेवाएं देना और ऊंटों के जरिये जीविकोपार्जन करना. इसके अलावा, देश से बाहर जाकर नौकरी कर रहे लोग भी अपने घरों में पैसा भेजते हैं.

बुजुर्गों की नसीहत मानकर जुआ, शराब या किसी भी तरह के नशे से दूरी बना लेने का ही नतीजा है कि करीब 2,000 घरों वाला यह गांव राजस्थान के सबसे सम्पन्न गांवों में शुमार होता है. यहां आपको न शराब के ठेके मिलेंगे और न ही चाय-पान की दुकानें. लोग जुए-सट्टे और ताशपत्ता खेलने से भी दूर रहते हैं.

आमतौर पर यहां ऐसा कोई परिवार नहीं मिलेगा जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर स्थिति में हो. क्षेत्र में सड़कों और मकानों आदि का हाल भी गांव की समृद्धता की कहानी बयां करता है.

पढ़ाई-लिखाई को तरजीह, महिलाओं पर बंदिशें नहीं

सरपंच के मुताबिक, छोटी बेरी में पढ़ाई-लिखाई का स्तर बहुत ही अच्छा है. वह कहते हैं, ‘‘यहां साक्षरता दर करीब 98 फीसदी है. उच्च शिक्षा में यहां के लोग पीछे नहीं हैं.’’

गांव के बुजुर्गों को इस बात पर काफी फख्र होता है कि युवा पीढ़ी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रही है. यहां के युवा न केवल पढ़ाई-लिखाई में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैंए बल्कि क्षेत्र के विकास में पूरा योगदान दे रहे हैं.

महिला सशक्तिकरण के मामले में भी यह गांव किसी से पीछे नहीं है. घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालने वाली ज्यादातर महिलाएं भी पढ़ी-लिखी हैं. महिलाएं पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही हैं, सरकारी नौकरियों में जा रही हैं और अपने फैसलों के लिए स्वतंत्र हैं.

 

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असलम खान  


लड़के-लड़कियों के बीच किसी तरह का भेदभाव न होने के मामले में आईपीएस असलम खान एक मिसाल हैं. वह कई मौकों पर बता चुकी हैं कि जब उनका जन्म हुआ, तो पिता ने पहले से ही लड़के का नाम सोच रखा था.

लेकिन लड़की हुई, तो उन्होंने उसका ही नाम असलम रख दिया. और उन्होंने असलम की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसी का नतीजा था कि असलम ने राजस्थान की पहली मुस्लिम आईपीएस बनने का गौरव हासिल किया.

जाति-धर्म को लेकर कोई भेदभाव नहीं

जानकारी के मुताबिक, गांव में जाट, मेघवाल, नाई, हरिजन, कुम्हार और सुनार आदि जातियों के लोग रहते हैं. वैसे मूलतः यहां पर कायमखानी मुस्लिम समाज के लोगों का वर्चस्व है. लेकिन यहां पर न तो सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने जैसी कोई समस्या आती है और न ही जाति के आधार पर कोई भेदभाव होता है.

सरपंच इकबाल खान कहते हैं, ‘‘हमारे यहां किसी भी तरह का कोई जातिवाद नहीं है. किसी भी समुदाय या जाति के लोगों को बराबर बैठाया जाता है.’’ पड़ोसी गांव छोटी छापरी के रहने वाले अयूब सागर भी यही बात दोहराते हैं.

स्थानीय जानकार और पेशे से सिंगर अयूब सागर बताते हैं कि सिर्फ छोटी बेरी ही नहीं संभाग में कायमखानी की 57वीं कहे जाने वाले आसपास के 57 गांवों में भी जाति-धर्म को लेकर किसी तरह का भेदभाव नहीं होता.

अयूब सागर कहते हैं, ‘‘छोटी बेरी में ज्यादातर घर मुस्लिमों के हैं, लेकिन हिंदुओं की आबादी भी अच्छी-खासी है. लेकिन हमारे गांव छोटी छापरी में हिंदुओं का सिर्फ एक परिवार ही रहता है.

परस्पर मेलजोल की स्थिति यहां ऐसी है कि कुछ समय पहले हिंदू परिवार में एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर गांव के मुस्लिम लोगों ने ही अंतिम संस्कार की सारी प्रक्रिया निभाई थी.’’

 

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आईपीएस असलम खान की कृष्ण भक्ति भी सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थिति को दर्शाती है. गौरतलब है कि हाल में असलम खान का दर्शन एवं परिक्रमा के लिए वृंदावन जाना सुर्खियों में रहा था.

इस दौरान उन्होंने कहा भी था कि वह सभी धर्मों में विश्वास करती हैं. वह कृष्ण और हनुमान जी की पूजा करती हैं. साथ ही नमाज भी पढ़ती हैं.

देशसेवा पहली पसंद

वैसे तो छोटी बेरी को फौजियों का गांव कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा, क्योंकि यहां पर करीब एक हजार पूर्व सैनिक हैं. इसके अलावा एक अनुमान के मुताबिक, करीब 500 लोग इस समय सेना में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. इसमें कर्नल, लेफ्टिनेंट स्तर के चार अधिकारी भी शामिल हैं.

अन्य क्षेत्रों में भी यहां के लोग किसी से पीछे नहीं हैं. इकबाल खान बताते हैं कि यहां करीब 200 सरकारी टीचर हैं. इसके अलावा आपको यहां अन्य सरकारी सेवाओं से जुड़े लोग और वैज्ञानिक, डॉक्टर, वकील जैसे पेशेवर भी मिल जाएंगे.

 अयूब सागर के मुताबिक, “कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें यहां के लोगों ने सफलता के झंडे न गाड़ें हो. सोशल मीडिया पर छोटी बेरी और कायमखानी समाज से जुड़े ग्रुप भी इसकी गवाही देते हैं.”

ऐसी ही एक फेसबुक पोस्ट के मुताबिक, स्वतंत्रता संग्राम से लेकर पड़ोसी देश के साथ जंग तक में गांव के लोगों ने खासा योगदान दिया है. सेना भर्ती में यहां के लोग कभी पीछे नहीं रहते.

कायमखानी समाज से जुड़े कुछ फेसबुक पेज देश के विभिन्न हिस्सों में सफलता हासिल करने वाले गांव के लोगों के बारे में जानकारी देकर गौरव जताते रहते हैं. 

यहां के लोगों के फेसबुक पेज या ट्वीट आदि पर नजर डालें, तो एक बात साफ नजर आती है कि उन्हें बुजुर्गों की बातें मानकर नशे को ना कहने, मिल-जुलकर रहने और देशसेवा के लिए खुद को समर्पित कर देने पर सबसे ज्यादा गर्व होता है.