मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली
भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त लोग सिर्फ दो हिस्से में ही नहीं बंटे, बल्कि बंटवारे में दोनों तरफ के लाखों लोगों ने अपनों को खोया है. दोनों तरफ की संस्कृति एक हैं, मगर समय की कड़वाहट से दोनों देश कभी करीब न हो सके, जिस समय भारत से मुसलमान और पाकिस्तान से हिन्दू बड़ी तादाद में पलायन कर रहे थे और दुनिया के नक्शे पर नया देश पाकिस्तान का उत्पन्न हुआ, तो पाकिस्तान में उर्दू भाषा को सरकारी भाषा घोषित करार दिया गया. मुस्लिम बाहुल्य देश में उर्दू को सरकारी दर्जा दिए जाने के बाद भारत में उर्दू को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा.
ऐसे वक्त में उर्दू साहित्यकारों ने धर्म से ऊपर उठकर उर्दू के उत्थान के लिए काम किया, जिसके कारण आज उर्दू सब की जुबान है. उर्दू साहित्य पत्रिका में ‘बीसवीं सदी’ एक जाना-पहचाना नाम है, इस पत्रिका को लाहौर पाकिस्तान से 1937 में राम रक्खामल उर्फ खुशतर गिरामी ने निकाला और इंसानी पलायन के साथ ये दिल्ली आ गई और साहित्यिक दुनिया में धूम मचाई.
साल 1975 में इस मासिक पत्रिका को जियाउर रहमान नैयर ने साढ़े तीन लाख रुपये में खरीद लिया था. साल 2009 में जियाउर रहमान के देहांत के बाद उनकी पत्नी शमा अफरोज जैदी की निगरानी में पत्रिका त्रैमासिक प्रकाशित हो रही है.
पत्रिका की कीमत
सत्तर और अस्सी के दशक में इस पत्रिका महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पत्रिका को उस समय लाखों रुपये में खरीदा गया. आवाज-द वॉयस से बात करते हुए शमा अफरोज जैदी ने बताया कि इस ‘बीसवीं सदी’ पत्रिका को लाहौर से निकालने वाले राम रक्खामल खुशतर गिरामी थे, वर्ष 1975 में इसे हमारे पति स्वर्गीय जियाउर रहमान नैय्यर ने साढ़े तीन लाख रुपये में खरीदा, उसके बाद पत्रिका को साहित्य की ऊँचाई तक पहुंचाने में नैय्यर साहब ने कोई कमी नहीं की.
विश्व विख्यात शख्सियतों के उपन्यास प्रकाशित हुए
शमा अफरोज जैदी ने बताया कि 70 से 90 के दशक में इस पत्रिका में उपन्यास प्रकाशित होना किसी भी लेखक के लिए गर्व होता था. ‘बीसवीं सदी’ पत्रिका में उर्दू दुनिया के करीब सभी विश्व विख्यात शख्सियतों के उपन्यास प्रकाशित हुए है. जिसमें कृष्ण चंद्र, राजेंद्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुगताई, कुर्तुल ऐन हैदर, सलमा सिद्दीकी और राम लाल आदि के नाम शामिल हैं. बीसवीं सदी ने उस समय के कवियों को चमकने का मौका दिया.
इंडियन एयरलाइंस में बंटते थे अंक
पत्रिका को पढ़ने की दिवानगी का अंदाजा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि एक समय में इंडियन एयरलाइंस ने अपने यहां यात्रियों को पढ़ने के लिए हजारों की संख्या में पत्रिका की मांग की थी. शमा अफरोज जैदी ने अतीत की बातों को याद करते हुए कहा कि 80-90 के दशक में इंडियन एयरलाइंस के ऑफिसर ने जियाउर रहमान नय्यर साहब को पत्र लिखकर मांग की कि उन्हें बीसवीं सदी पत्रिका दी जाए,
इस तरह जियाउर रहमान नय्यर की निगरानी में तीन हजार पत्रिका इंडियन एयरलाइंस को प्रतिमाह दी जाने लगी थीं. जहां यात्री करने वाले लोग बीसवीं सदी को पढ़ते थे.
पत्नी ने दोबारा शुरू की
नवंबर 2009 में पत्रिका के संपादक जियाउर रहमान नैयर के देहांत के बाद कुछ माह के लिए पत्रिका बंद हो गई. अहल-ए-उर्दू को साल 2010 में रहमान नैयर की पत्नी शमा अफरोज जैदी ने दोबारा शुरू किया. शमा अफरोज जैदी कहती हैं कि हमारे पति की मौत के बाद उर्दू से प्रेम रखने वालों को पत्रिका की कमी का मुझे एहसास हुआ, बहुत सारे लोग अमेरिका, दुबई, बहरीन से पत्रिका के निकालने को बोलते थे, मैंने जिम्मेदारी कबूल करते हुए छमाही पत्रिका निकालना शुरू किया, जिसका विषय ‘रहमान नय्यर का गोशा’ था.
इस पूरे काम में उनके दोनों लड़के फसीहुद्दीन जैदी और शोएब रहमान जैदी मदद करते हैं, पत्रिका के प्रेस से आने से लेकर लोगों के पते पर डाक के हवाले करने तक दोनों भाई मां के काम में मदद करते हैं.
आज भी “बीसवीं सदी” में छपना पसंद
शमा अफरोज जैदी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कुछ वर्षों तक सेवा देने के बाद पति जियाउर रहमान नय्यर के साथ “बीसवीं सदी” को दुनिया भर में फैले उर्दू प्रेमियों के बीच पहुंचाया. वह कहतीं हैं कि इस पत्रिका के निकलते हुए 93 साल हो गए हैं, इस पत्रिका की खास बात हैं कि इसमें अप्रकाशित लेख ही छपते हैं, आज भी इसमें में लेखक इसमें छपना पसंद करते हैं.
पत्रिका आज भी क्यों हैं खास?
बाजार में कई पत्रिका हैं, लेकिन बीसवीं सदी को आज भी उर्दू साहित्य की दुनिया में कद्र की निगाह से देखा जाता है. इसकी विशेषता यें हैं कि इसमें रोमांटिक कहानियां छपती हैं. हमारी कोशिश भी होती हैं कि पाठक के दिल को छू लेने वाली सभी तरह की कहानियों को जगह दूं.
खुद के लेख को आलोचक नजर से देखें
शमा जैदी आगे बताती हैं कि आज भी बड़ी तादाद में नई पीढ़ी के लोग लिख रहे हैं, लेकिन वह मेहनत नहीं करते है. लेखकों को चाहिए कि वह अपने लेख लिखने के बाद खुद से आलोचक की नजर से उसे देखें और पढ़ें.
उर्दू कभी मर नहीं सकती
भारत में उर्दू भाषा की मौजूदा हालत पर बात करते हुए शमा जैदी कहती हैं कि उर्दू कभी नहीं मर नहीं सकती हैं, इसकी चाशनी ऐसे हैं कि लोग इसे हर हाल में पढ़ना चाहते हैं. उर्दू वालों को चाहिए कि वह इसके विकास के लिए अखबार, मैगजीन खरीदें.
अखबार और पत्रिका मुश्किल हालत में
किसी भी अखबार और पत्रिका को ज्यादा दिनों तक जिंदा रखने के लिए विज्ञापन की आवश्यकता होती हैं, सरकारी स्तर पर अखबार और पत्रिका को विज्ञापन नहीं मिलने से दम तोड़ रही है. इस बारे में शमा जैदी कहती हैं कि पहले की तरह विज्ञापन नहीं मिलता है. इसलिए नुकसान होता है.
शमा अफरोज जैदी जिस मुश्किल से उर्दू पत्रिका निकाल रहीं हैं. यह बड़े दिल वालों की बात है. वह पूरी पत्रिका अपने और बच्चों की मदद से तैयार करती हैं. यह उर्दू साहित्य के लिए सच्ची मोहब्बत और पति के लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि है, उर्दू दुनिया अपने काम को नहीं भूल सकती.