ज़ाहिद ख़ान
आज़ादी के बाद जिन लोगों ने रेडियो को आम आदमी तक पहुंचाया, उसकी लोकप्रियता बढ़ाई, उनमें सबसे अव्वल नंबर पर अमीन सयानी का नाम है. एक दौर था, जब अमीन सयानी रेडियो की आवाज़ थे. उसकी पहचान थे. रेडियो की आवाज़ के मायने अमीन सयानी थे. हफ़्ते में एक बार बुधवार के दिन पूरी फैमिली साथ बैठती और उनमें से एक मेंबर रात के 8 बजने से पहले रेडियो सिलोन ट्यून करता.
रेडियो पर जैसे ही उनका सुपर हिट प्रोग्राम ‘बिनाका गीतमाला’ शुरू होता, तो वक़्त जैसे थम जाता. बेहद जोश-ओ-ख़रोश और मेलोडियस अंदाज़ में रेडियो पर जब ये आवाज़ गूंजती ‘‘जी हां भाइयों और बहनों, मैं हूं आपका दोस्त अमीन सयानी और आप सुन रहे हैं बिनाका गीतमाला’’, तो एक जादू सा तारी हो जाता. लोग दिल थाम कर बैठ जाते.
फ़िल्मी गानों की इस हिट परेड को लेकर तमाम क़यास लगाए जाते. मोहल्लों के नुक्कड़ और चौराहों पर फ़िल्मी गीतों के दीवानों के बीच यह शर्त लगतीं कि आज के प्रोग्राम में कौन सा गाना किस पायदान पर रहेगा, तो कौन सा टॉप पायदान पर ? ऐसी मक़बूलियत बहुत कम रेडियो प्रोग्राम और एनाउंसर को हासिल हुई है. अब यह सब एक तवारीख़ है.
21 दिसम्बर, 1932 को मुंबई में जन्मे अमीन सयानी का परिवार, वतनपरस्तों का परिवार था. जिनका सीधा तअल्लुक़ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से था. अमीन सयानी के वालिद के चचा रहमतुल्ला साहनी ने न सिर्फ़ गांधी जी को वकील बनाने में मदद की, बल्कि वे उन्हें अपने साथ साउथ अफ्रीका भी ले गए थे. यही नहीं अमीन सयानी के नाना तजब अली पटेल, मौलाना आज़ाद के साथ-साथ गांधी के भी डॉक्टर थे. ज़ाहिर है कि उनकी अम्मी कुलसुम साहनी भी महात्मा गांधी से काफ़ी मुतास्सिर थीं.
गांधी जी उन्हें बेहद पसंद करते थे. यहां तक कि वे कुलसुम सयानी को अपनी बेटी की तरह मानते थे. कुलसुम सयानी सियासी और समाजी जीवन में काफ़ी सरगर्म थीं. ख़ास तौर से औरतों की साक्षरता के लिए उन्होंने खू़ब काम किया. महात्मा गांधी उनके काम से बेहद प्रभावित हुए. गांधी के कहने पर ही कुलसुम सयानी ने देवनागरी, गुजराती और उर्दू ज़बान में एक मैगज़ीन शुरू की, जिसका नाम ‘रहबर’ था. अमीन सयानी, उस वक़्त 10-11 बरस के थे. वे भी मैगज़ीन के साथ पूरी तरह जुड़ गए. प्रूफ़ देखने से लेकर वे और भी इससे जुड़े कई काम करते.
उस समय अमीन सयानी हिन्दी ज़्यादा नहीं जानते थे. वजह, उनकी शुरुआती तालीम गुजराती में हुई थी. अलबत्ता थोड़ा बहुत अंग्रेज़ी ज़रूर जानते थे. मैगज़ीन का काम करते-करते उनके अंदर हिन्दुस्तानी ज़बान की तरफ़ मुहब्बत पैदा हुई. वे उसके रंग में रंग गए. ‘रहबर’ में तमाम सामग्री के साथ दो कॉलम आते थे. सरल हिन्दी कविता और आसान उर्दू शायरी.
अमीन सयानी को यह दोनों ही कॉलम बेहद पसंद थे. वे उन्हें मजे़ ले-लेकर पढ़ते. इसका ये असर हुआ कि वे हिंदुस्तानी ज़बान को अच्छी तरह से जानने-समझने लगे. यह शौक़ आगे परवान चढ़ा और फिर वे छोटे-छोटे आर्टिकल भी लिखने लगे. अमीन सयानी ने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से अपनी आला तालीम मुकम्मल की. उस ज़माने में उन्होंने थिएटर भी किया. क्लासिकल म्युज़िक सीखा. वे बहुत अच्छा गाया करते और उनकी ख़्वाहिश सिंगर बनने की थी. लेकिन आगे चलकर उनकी आवाज़ फट गई और गाना मुश्किल हो गया. यही वजह है कि बाद में उन्होंने सिंगर बनने का इरादा छोड़ दिया.
अमीन सयानी का वास्ता रेडियो से कैसे हुआ, इसका क़िस्सा कुछ इस तरह से है. उनके बड़े भाई हामिद सयानी एक बेहतरीन ब्रॉडकास्टर थे. रेडियो सीलोन में वे प्रोड्यूसर थे. उन्होंने ही सबसे पहले अमीन सयानी का रिश्ता रेडियो से जोड़ा. हामिद सयानी के मशवरे पर अमीन सयानी ने ऑल इंडिया रेडियो में हिंदी ब्रॉडकास्टर के लिए आवेदन किया. अब इस बात पर शायद ही कोई यक़ीन करे कि उनकी आवाज़ रेडियो के लिए रिजेक्ट कर दी गई थी. अपने एक इंटरव्यू में खु़द अमीन सयानी ने यह बात बताई थी कि उन्हें यह कहकर रिजेक्ट कर दिया गया, ‘‘स्क्रिप्ट पढ़ने का आपका हुनर अच्छा है, लेकिन मिस्टर सयानी आपके तलफ़्फु़ज़ में बहुत ज़्यादा गुजराती और अंग्रेज़ी की मिलावट है, जो रेडियो के लिए अच्छी नहीं.’’
ज़ाहिर है कि इस वाक़िआत के बाद अमीन सयानी के दिल को काफ़ी धक्का लगा. वे निराश हो गए. अपने गाइड और उस्ताद हामिद सयानी के पास पहुंचे, तो उन्होंने अमीन से रिकॉर्डिंग के दौरान रेडियो स्टेशन के हिंदी कार्यक्रमों को सुनने के लिए कहा. अमीन सयानी ने ब्रॉडकास्टिंग का फ़न सीखने और उसे फॉलो करने में अपना जी-जान लगा दिया. आगे चलकर उन्हें इसका सिला भी मिला.
बीसवीं सदी के पांचवे दशक में रेडियो सीलोन पर हामिद सयानी की पेशकश में अंग्रेजी गीतों का एक प्रोग्राम बहुत बढ़िया प्रदर्शन कर रहा था. इस कामयाबी से मुतास्सिर होकर एड कंपनी ऐसा ही एक प्रोग्राम हिंदी फ़िल्मी गीतों का भी करना चाहते थे. अपनी यह चाहत उन्होंने हामिद सयानी को बयान की.
हामिद सयानी ने यह प्रोग्राम खु़द न करते हुए अमीन सयानी को इसके लिए राज़ी कर लिया. इस तरह रेडियो पर एक शानदार प्रोग्राम के सफ़र का आग़ाज़ हुआ. प्रोग्राम का नाम ‘बिनाका गीतमाला’ था.
आज से सात दहाई पहले यानी 3 दिसंबर, 1952 को सात गानों की सीरीज़ का पहला प्रोग्राम रिले किया गया. प्रोग्राम खू़ब पसंद किया गया. पहले ही प्रोग्राम से इसे जो कामयाबी मिली, फिर अमीन सयानी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
इस प्रोग्राम ने बीस साल के अमीन सयानी की ज़िन्दगी बदल कर रख दी. वे रातों-रात आवाज़ की दुनिया में स्टार बन गए. रेडियो सीलोन में पहले प्रोग्राम के बाद, ‘बिनाका गीतमाला’ की तारीफ़ में श्रोताओं के तक़रीबन नौ हज़ार ख़त पहुंचे. यह सिलसिला आगे भी क़ायम रहा.
एक दौर ऐसा भी आया, जब हर हफ़्ते ख़त की तादाद 50 हज़ार तक पहुँच गई. रेडियो और आवाज़ की दुनिया में यह एक इंक़लाब था. इससे पहले किसी प्रोग्राम को इतनी बड़ी कामयाबी नहीं मिली थी. रेडियो सीलोन और फिर उसके बाद आकाशवाणी के विविध भारती पर प्रसारित ‘बिनाका गीतमाला’ की 40 बरस से भी ज़्यादा समय तक, देश में ही नहीं दुनिया के कई देशों में भी धूम रही.
दुनिया में कोई दूसरा रेडियो या टीवी प्रोग्राम इतने लंबे वक़्त और एक साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान, श्रीलंका और खाड़ी के मुल्कों में मक़बूल नहीं रहा. इस प्रोग्राम के चाहने वाले दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व, पूर्वी एशिया और यूरोप के कुछ मुल्कों में भी थे. यह आज भी रिसर्च का मौजू़ है कि इस कामयाबी के पीछे हिंदी फ़िल्मी नग़मों का जादू था या अमीन सयानी की चहकती आवाज़, प्रोग्राम को पेश करने का दिलकश अंदाज़. गोया कि वे जो भी कुछ बोलते, श्रोताओं के दिल को छू जाता.
दुनिया भर के लाखों श्रोताओं के लिए अमीन सयानी सिर्फ़ एक रेडियो जॉकी भर नहीं थे, बल्कि वे उनके परिवार का हिस्सा हो गए थे. अमीन सयानी ‘बिनाका गीतमाला’ में पसंदीदा गानों को बजाने के साथ-साथ श्रोताओं के मनोरंजन का पूरा ख़याल रखते. प्रोग्राम के बीच-बीच में कुछ दिलचस्प चिट्ठियां पढ़ते, तो एक कामयाब क़िस्सागो की तरह कुछ दिल को छू लेने वाले क़िस्से सुनाते. फ़िल्मी गीतों के अलावा वे अपनी बातों से भी श्रोताओं को बांधकर रखते थे.
अमीन सयानी की शानदार पेशकश में ‘बिनाका गीतमाला’ ने एक इतिहास रचा. अलबत्ता श्रोताओं की पसंद और मांग को देखकर इसमें बीच-बीच में तब्दीलियां ज़रूर होती रहीं. मसलन प्रोग्राम में गानों की तादाद सात से बढ़कर सोलह हुई, तो ‘बिनाका गीतमाला’ के जानिब लोगों की दीवानगी को देखकर, प्रोग्राम का समय आधे घंटे से बढ़ाकर एक घंटा हुआ.
साल 1986 में ‘बिनाका गीतमाला’ का नाम बदलकर ‘सिबाका गीतमाला’ हुआ, लेकिन इसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई. इन सब बदलावों के बीच, सिर्फ़ एक चीज़ नहीं बदली और वह थी अमीन सयानी की आवाज़. ‘बिनाका गीतमाला’ के अलावा अमीन सयानी ने रेडियो पर जो भी प्रोग्राम पेश किए, वे सभी कामयाब रहे. अमीन सयानी का नाम ही इन प्रोग्राम की कामयाबी की जमानत होता था.
‘एस कुमार्स का फ़िल्मी मुक़दमा’, ‘फ़िल्मी मुलाकत’, ‘सैरिडॉन के साथी’, ‘बोर्नविटा क्विज प्रतियोगिता’, ‘शालीमार सुपरलैक जोड़ी’, ‘मराठा दरबार', 'संगीत के सितारों की महफ़िल’ वगैरह ऐसे कई प्रोग्राम हैं, जो अमीन सयानी की दिलकश आवाज़ और दिलचस्प पेशकश से श्रोताओं के दिल और जे़हन में आज भी ज़िंदा हैं.
अमीन सयानी ने अपने रेडियो करियर के दौरान फ़िल्मी दुनिया के टॉप के कलाकारों, गायकों, संगीतकारों और गीतकारों के इंटरव्यू लिए हैं. पचास हज़ार से ज़्यादा रेडियो प्रोग्रामों के लिए काम किया और पन्द्रह हज़ार से भी ज़्यादा विज्ञापनों में अपनी आवाज़ दी है. यह एक रिकार्ड है. अमीन सयानी की आवाज़, श्रोताओं के जे़हन में इस क़दर बैठी है कि आज भी रेडियो पर जब कोई अच्छी आवाज़ आती है, तो उसकी तुलना अमीन सयानी की आवाज़ से ही होती है. अमीन सयानी की मक़बूलियत का सबब यदि जानें, तो हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू के साथ गुजराती ज़बान पर भी उनकी मज़बूत पकड़ थी. वे जब बोलते, तो इस बात का ज़रूर ख़याल रखते कि उनकी बातें आम आदमी को भी समझ में आएं. यह बातें उनके दिल के क़रीब हों.
आवाज़ की दुनिया में नये लोग कामयाबी कैसे हासिल करें, अपने एक इंटरव्यू में अमीन सयानी ने उन्हें यह सीख दी थी कि अच्छी हिंदी बोलने के लिए थोड़ा-सा उर्दू का इल्म ज़रूरी हैं. इस बात को और अच्छी तरह से वाजेह करने के लिए उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया. क़िस्सा मुख़्तसर सा है, जो उन्हीं की जु़बानी.
''एक बार कथाकार कमलेश्वर ने मुझे अपने स्टूडियों में बुलाया और ये मेरा पहला इंटरव्यू था. पहला ही सवाल उन्होंने पूछा कि आप ये कैसी भाषा बोलते हैं ? जिसमें कभी उर्दू, अंग्रेज़ी, बंगाली, मराठी तो कभी पंजाबी की खु़शबू आ जाती है. आप तो हत्या करते हैं इनकी. मैंने सोचा कि अब हमला हुआ है, तो अपना बचाव करना ही पड़ेगा.
मैने कहा देखिए कमलेश्वर भाई, को-कम्यूनिकेशन दो पहियों की गाड़ी होती है. एक पहिया है वक्ता और दूसरा है श्रोता. इन दो पहियों में से कोई एक लुढ़क गया, तो गाड़ी नहीं चल सकती. जो मैं बोलता हूं, वो सभी समझते हैं. लेकिन जो कमलेश्वर बोलते हैं, वो बहुत ही कम लोग समझते हैं.'' ज़ाहिर है कि अपनी बात को समझाने का इससे बेहतर तरीक़ा कोई हो नहीं सकता. अमीन सयानी को यह हुनर अच्छी तरह से आता था. यही वजह है कि उन्होंने लोगों के दिलों पर बरसों राज किया.
अमीन सयानी की हिंदुस्तानी ज़बान और आसान बातचीत की शैली के लोग आज भी क़ायल हैं. उन्होंने कई नए लफ़्ज़ गढ़े. मसलन टॉप के गाने को वे ‘सरताज’ तो गीतों की रैंक को ‘पायदान’ कहते थे. नई पीढ़ी के नौजवानों और रेडियो जॉकी बनने की चाहत रखने वालों को अमीन सयानी की सीख है, ''रेडियो पर वे जो भी भाषा बोलें, पहले वह उसे ठीक से समझ लें. मुश्किल और किताबी ज़बान बिल्कुल नहीं होनी चाहिए. ज़बान ऐसी होनी चाहिए कि आप बात करें और वह श्रोता को सीधे समझ में आ जाए. उसे डिक्शनरी देखने की नौबत नहीं आए.''
आवाज़ की दुनिया में बेमिसाल योगदान के लिए अमीन सयानी को कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित किया गया है. ‘पद्मश्री’ पुरस्कार के अलावा इंडिया रेडियो फोरम के साथ लूप फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने ‘लिविंग लीजेंड अवार्ड’, इंडियन सोसाइटी ऑफ एडवर्टाइजर्स (आईएसए) से गोल्ड मेडल, पर्सन ऑफ द ईयर अवार्ड के अलावा उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी शामिल रहा है.
अमीन सयानी ने अपनी बेहतरीन ज़िंदगी के नब्बे साल मुकम्मल कर लिए हैं. आज भी उनकी आवाज़ में वही दम-ख़म है, मगर सेहत ने साथ छोड़ दिया है. बावजूद इसके वे ज़िंदगी से निराश नहीं, उनके दिल में सिर्फ़ एक हसरत है कि वे अपनी आत्मकथा कम्प्लीट कर लें. ज़ाहिर है कि इस आत्मकथा का इंतज़ार, तो दुनिया भर में उनके लाखों चाहने वालों को भी है.