दिलकश आवाज़ के मालिक यूनुस ख़ान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 11-02-2023
विश्व रेडियो दिवस: दिलकश आवाज़ के मालिक यूनुस ख़ान
विश्व रेडियो दिवस: दिलकश आवाज़ के मालिक यूनुस ख़ान

 

फ़िरदौस ख़ान 
 
दिलकश आवाज़ के मालिक यूनुस ख़ान किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. वे रेडियो की दुनिया का एक जाना माना नाम हैं. वे विविध भारती के जाने-माने उद्घोषक और श्रोताओं के चहेते प्रस्तोता हैं. उनकी आवाज़ जितनी दिलकश है, उनका अंदाज़ भी उतना ही निराला है. उनके प्रशंसक उनकी आवाज़ के दीवाने हैं. वे बहुमुखी प्रतिभाशाली हैं. वे दिल से कवि हैं, तो ज़हन से स्तंभकार हैं. वे एक कहानीकार भी हैं, उनकी कहानियों में ज़िन्दगी के अनछुये पहलुओं की झलक मिलती है. वे बेहतरीन लेखक हैं और विभिन्न मुद्दों पर लिखते हैं.       

यूनुस ख़ान का जन्म मध्य प्रेदश के दमोह में हुआ, लेकिन बचपन भोपाल में बीता. वे कहते हैं कि भोपाल में बिताए बचपन के दिनों को याद करता हूं, तो आंखों के सामने वह गली-मुहल्ले आ जाते हैं और कानों में विविध भारती गूंजने लगती है.
 
भोपाल की उन गलियों और सड़कों पर चलते हुए हम हमेशा विविध भारती के दायरे में होते थे. हर घर और दुकान से रेडियो की आवाज़ आ रही होती थी. तब शायद अंदाज़ा नहीं था कि एक दिन विविध भारती में माइक्रोफ़ोन संभालना होगा और तमाम अहम शख़्सियतों से रूबरू होने का मौक़ा मिलेगा, उनके बात करने का मौक़ा मिलेगा, उन्हें क़रीब से जानने का मौक़ा मिलेगा.
 
 
 
यूनुस ख़ान ख़ुद साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक हैं. मज़हब को लेकर उनका नज़रिया बहुत ही लिबरल हैं. वे मानते हैं कि मज़हब तोड़ने का नहीं, बल्कि जोड़ने का काम करता है. उन्होंने एक हिन्दू लड़की से प्रेम विवाह किया है.
 
वे कहते हैं कि यह सब इतना आसान नहीं था, लेकिन जब हम सच के साथ होते हैं, तो कुछ भी मुश्किल नहीं होता. जब दो लोग अलग-अलग मज़हब से हों, तो ऐसे मामले में मज़हब हमारे देश में एक बड़ी अड़चन है. लेकिन मैं मज़हब को लेकर कभी कट्टर नहीं रहा, मेरी सोच हमेशा से ही बड़ी लिबरल रही है. शायद इसलिए कि मेरी पृष्ठभूमि रंगमंच रही है.
 
दरअसल पढ़े-लिखे तबक़े के लोग लिबरल ही हुआ करते हैं. सामाजिक तौर पर हमारे विवाह में बहुत मुश्किलें आईं, लेकिन वे हमारी राह में रुकावट नहीं बन पाईं. उनकी पत्नी ममता सिंह भी विविध भारती में उद्घोषिका हैं और वे रेडियो सखी के नाम से प्रसिद्ध हैं. वे एक लेखिका भी हैं. हाल ही में उनका एक उपन्यास आया है, जिसका नाम है- अलाव पर कोख.
 
 
यूनुस ख़ान कहते हैं कि रेडियो स्टेशन पर ही उनकी ममता सिंह से पहली मुलाक़ात हुई थी. वे दोनों साथ काम करते थे. उनसे मेलजोल की शुरुआत लड़ाई से हुई और बाद में उनकी दोस्ती हो गई. ये दोस्ती न जाने कब प्रेम में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला.
 
ममता सिंह से लगाव के बारे में वे कहते हैं कि दरअसल साहित्य ही वह डोर है, जो हमें आपस में जोड़कर रखती है. संगीत वह डोर है, जो हमें आपस में जोड़ती है. हमारे व्यक्तित्व में बहुत बड़ा फ़र्क़ है. मैं बहुत शरारती हूं और ममता बहुत गंभीर हैं. मैं बहुत बोलता हूं और ममता कम बोलती हैं. 
 
अपने पति के बारे में ममता सिंह बताती हैं कि वे एक बेहतरीन इंसान हैं. प्रेम ही वह चीज़ है, जो दो इंसानों को जोड़ती है. वे कहती हैं कि प्रेम करना आसान है, लेकिन प्रेम को क़ायम रखना बहुत मुश्किल होता है. हमारे विवाह में मुश्किलें ज़्यादा आईं, क्योंकि लड़की के माता-पिता और भाई-बहन यही चाहते हैं कि हम जहां रिश्ता तय करें, वह ब्याह कर वहीं जाए. लेकिन जब आप ग़लत न हों, तो उनका साथ मिल ही जाता है. विवाह के बाद मुझे लगा कि कहीं मैं अकेली न पड़ जाऊं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
 
मुझे मायके और ससुराल वालों का भरपूर सहयोग और प्यार मिला. आज हम दोनों अपनी ज़िन्दगी में बहुत ख़ुश हैं. वे कहती हैं कि दरअसल एक-दूसरे की छोटी-छोटी कमियों और शिकायतों को नज़रअंदाज़ करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं. इस तरह ही प्रेम क़ायम रहता है और ये प्रेम ही हमें आपस में जोड़कर रखता है. हम दोनों को ही साहित्य, संगीत और कला से लगाव है. हमारी पसंद और नापसंद भी बहुत मिलती है. हम साथ काम करते हैं. इसलिए हमें एक-दूसरे के साथ रहने का ज़्यादा मौक़ा मिल जाता है. 
  
यूनुस ख़ान अपने रेडियो के काम से बहुत ख़ुश हैं. वे कहते हैं कि इस रेडियो की वजह से ही उन्हें ऐसी हस्तियों से मुलाक़ात करने के मौक़े मिले, जिनसे मिलना किसी के लिए भी फ़ख़्र की बात होगी. फ़िल्मी हस्तियों से साक्षात्कार के बारे में वे बताते हैं- “कई लोगों के चेहरे याद आ रहे हैं. यादों के दरीचों से जाने कितनी-कितनी आवाज़ें कानों में गूंज रही हैं. लेकिन अपना पहला साक्षात्कार याद आ रहा है.
 
साल 1996 में मैंने विविध भारती पर अपना पहला साक्षात्कार लिया था गीतकार योगेश जी का. मुझे याद है कि जब पता चला कि कल योगेश जी आ रहे हैं और मुझे उनसे बात करनी है तो जैसे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे. और ये सहज भी था.
 
जिस गीतकार के गाने याद हों, जिसके आप मुरीद रहे हों- उससे रूबरू होना सौभाग्य नहीं तो क्या है. तब वह ज़माना था जब हम काग़ज़ पर सवाल बाक़ायदा लिख लिया करते थे. हालांकि इतने बरस बाद अब बिना काग़ज़ के ज़ेहनी तैयारी के साथ साक्षात्कार लेते हैं.
 
बहुत बरस बाद जब फिर योगेश जी से और भी लम्बा साक्षात्कार लेने का मौक़ा मिला, तो मैंने  पुराने दिन फिर याद किए. साक्षात्कार के बाद चर्चगेट की सड़कों पर टहलते हुए योगेश जी से बात करना बहुत ही ख़ुशी देने वाला था.   
 
इसी तरह संगीतकार ओपी नैयर जब विविध भारती में आए, तो यह तय था कि हमारे वरिष्ठ साथी अहमद वसी उनसे बातचीत करेंगे. नैयर साहब का जलवा ही अलग था, कार से उतरते ही जैसे उनकी नज़रें कुछ तलाश रही थीं. कहीं एक तरफ़ मैं खड़ा था. जाने क्यों वे मेरी तरफ़ आए तो मैं पसीना-पसीना हो उठा. दरअसल वे कंधे पर हाथ रखकर चलने के लिए एक लम्बा व्यक्ति तलाश रहे थे और इत्तेफ़ाक़ से मैं वह व्यक्ति बन गया.
 
साक्षात्कार वसी साहब ले रहे थे. फिर इसमें एक और वरिष्ठ साथी कमल शर्मा भी शामिल हो गए और बीच साक्षात्कार में मुझे भी भेज दिया गया. इसकी वजह यह थी कि नैयर साहब सवाल टालने में माहिर थे. और शरारती सवाल पूछने के लिए उम्र में सबसे छोटे होने की वजह से मुझे भेजा गया.
 
दोहरा चौहरा कर सवाल कई बार पूछे गए, जिनमें से कुछ के जवाब नैयर साहब ने दिए और वह दिन मेरे लिए बड़ा यादगार बन गया. बक़ौल नैयर साहब- “नैयर ने कभी किसी गाने की दो ट्यून नहीं बनाई, कभी कोई गाना दूसरी बार रिकॉर्ड नहीं किया, पहला टेक ही फ़ाइनल रहा.” या उनका रफ़ी साहब से नाराज़ हो जाने वाला और फिर बरसों बाद उनसे मेल हो जाने का क़िस्सा भावुक कर देने वाला था. हमारे स्टूडियो में नैयर साहब का मौजूद होना ही हमें ख़ुशी दे रहा था. 
 
शुरुआती दौर के बहुत ही यादगार साक्षात्कारों में से एक था दादामुनि अशोक कुमार के साथ एक पूरा दिन बिताना. यूनियन पार्क चेम्बूर का दादामुनि का भव्य घर और उस घर में पसरा दादामुनि का अकेलापन. अशोक कुमार ने बताया कि कई दिन हो गए, वे घर की पहली मंज़िल से नीचे नहीं उतरे हैं. सामने हॉल की खिड़की से गोल्फ़-कोर्स नज़र आ रहा था. दादामुनि ने बताया कि एक ज़माने में वे वहां गोल्फ़ खेला करते थे.
 
 
दादामुनि से बातें करना एक पूरे युग से होकर गुज़रना था. उसमें उनके ज़माने की नायिकाओं की, बॉम्बें टॉकीज़ की बातें थीं, तो उनमें किशोर कुमार भी थे. दादामुनि के विवाह का दिलचस्प क़िस्सा भी था और फिर ज़ईफ़ी आने के बाद का निपट अकेलापन और उदासी भी इसमें शामिल थी. उनकी ये हालत देखकर दुष्यंत कुमार का शेअर याद आ गया-
 
एक बूढ़ा जी रहा है, इस शहर में या यूं कहें
एक अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है...

मेरी नौशाद साहब और ख़ैयाम से विविध भारती के स्टूडियो में कई मुलाक़ातें हुईं. संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी के आनंदजी से विविध भारती के चर्चगेट स्टूडियो में मुलाक़ात हुई थी. यूनुस ख़ान कहते हैं कि बड़ी हस्तियों के साक्षात्कार लेना कोई आसान काम नहीं है.
 
बस यही डर लगा रहता है कि न जाने किस सवाल पर वे नाराज़ हो जाएं. हालांकि अभी तक मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. अभिनेता शत्रुघ्न‍ सिन्हा से साक्षात्कार के लिए उनके घर जाते वक़्त मैं बहुत सतर्क था. उनके साथ बहुत अच्छा वक़्त गुज़रा. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के कई क़िस्से बड़े ही अपनेपन से सुनाये. 
 
मेरे लिए सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर से बात करना भी बहुत ही यादगार रहा. मुझे उनसे टेलीफ़ोन पर बात करने के कई मौक़े मिले. मुझे उनके घर जाने और उनसे मुलाक़ात करने का भी मौक़ा मिला. मुझे याद है कि जब फ़ोन पर मैंने उनसे साक्षात्कार की बात की तो उन्होंने कहा- “मेरे गाने के बारे में तो सारी बातें पहले ही हो चुकी हैं.
 
क्या बार-बार वही बातें दोहराऊं. लेकिन जब मैंने उनसे कहा कि गाने के अलावा कोई और बात करते हैं, तो वे एकदम से बोल पड़ीं- “चलिए शुरू करते हैं.” फिर मैंने उनसे क्रिकेट, फ़ोटोग्राफ़ी, जूलरी डिज़ाइनिंग और परफ़्यूम के शौक़ के बारे में बहुत सी बातें कीं. जब मैंने उनसे परफ़्यूम गिफ़्ट करने की उनकी आदत के बारे में सवाल किया, तो उन्होंने फ़ौरन कहा कि “जब आप मेरे घर आएंगे, तो मैं आपको भी परफ़्यूम गिफ़्ट करूंगी.” 
 
इसी तरह मैंने सदाबहार अभिनेता देव आनंद साहब से भी फ़ोन पर बात की. यह तब की बात है, जब उन्हें दादा साहेब फ़ालके पुरस्कार मिला था. उन्होंने बताया कि वह ज़िन्दगी में हमेशा पुरानी बातों को भूलकर आगे की सोचते हैं. उन्हें कोई गिला-शिकवा नहीं कि इतनी देर से अवॉर्ड क्यों दिया जा रहा है. वे बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे. 
 
इसी तरह जाने माने निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी से बात करना भी यादगार है. जब उन्हें दादा साहेब फ़ालके पुरस्कार से नवाज़ा गया तो मुझे उनसे फ़ोन पर बात करने का मौक़ा मिला. जब मैंने उनसे पूछा कि उनकी फ़िल्मों में रेडियो एक बैक-ग्राउंड ध्वनि की तरह हमेशा आता है. इस पर उनका जवाब था कि “मैं ये मानता हूं कि विविध भारती मध्यमवर्गीय जीवन का जीवन-संगीत है. उसका बैकग्राउंड म्यूज़िक है. इसीलिए मैंने जानबूझकर ऐसा किया है.” विविध भारती की तारीफ़ सुनकर दिल बाग़-बाग़ हो गया. और उस वक़्त ख़ुद पर नाज़ होने लगा.
 
इसी तरह अभिनेत्री शबाना आज़मी और उनके भाई और मशहूर सिनेमेटोग्राफ़र बाबा आज़मी का साक्षात्कार भी बहुत अच्छा और यादगार रहा. ऐसे न जाने कितने साक्षात्कार हैं, जो ज़ेहन में हैं. रेडियो के बारे में पूछने पर यूनुस ख़ान कहते हैं कि कभी वॉल्व वाले सजीले रेडियो सेट होते थे, पूरे परिवार के लाडले. आज रेडियो मोबाइल में भी है. गाड़ी में भी. घर पर तो कई रूपों में है.
 
मोबाइल एप के रूप में भी है और वेब स्ट्रीमिंग के रूप में भी. रेडियो ने कभी सरहदों के दायरे नहीं माने. आवाज़ें सरहदों और समन्दर के आर-पार छनती रहीं. रेडियो ने दिलों को जोड़ा. रेडियो दिल में उतरा. ज़िन्दगी का सुरीला साथी बना. आपदाओं में रेडियो सूचना का ज़रिया बना. बचपन में जिन महान प्रसारकों को सुना. अवचेतन पर जिनकी छाप पड़ी, उनको सलाम.
 
सलाम इस पेशे को, जिसने हमारी ज़िन्दगी को संवारा. सलाम सभी सुनने वालों को, जिन्होंने अच्छे काम की दाद दी और ग़लतियों पर ध्यान खींचा. रेडियो ज़िन्दाबाद. मजरूह सुलतानपुरी साहब ने कितना सही फ़रमाया है-
हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं...
 
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)