-फ़िरदौस ख़ान
किसी ज़माने में उर्दू हिन्दी फ़िल्मों की जान हुआ करती थी. हिन्दुस्तान में फ़िल्मों की शुरुआत से लेकर सत्तर-अस्सी के दशक तक उर्दू के बिना हिन्दी फ़िल्मों का तसव्वुर करना भी बेमानी था. फ़िल्मों के संवादों से लेकर गीतों तक में उर्दू का जलवा था. हिन्दुस्तान की पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ थी, जो साल 1931 में प्रदर्शित हुई थी. अर्देशिर ईरानी ने इसका निर्देशन किया था.
इसके संवादों में भी उर्दू का ही बोलबाला था. जांनिसार अख़्तर, शकील बदायूंनी, कैफ़ भोपाली, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी और हसरत जयपुरी जैसे शायरों ने अपनी उम्दा शायरी और गीतों से फ़िल्मों में इंद्रधनुषी रंग भरे.
हिन्दी सिनेमा के इतिहास में फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ का कोई सानी नहीं है. यह फ़िल्म 5 अगस्त 1960 को प्रदर्शित हुई थी. यह शानदार फ़िल्म करीमउद्दीन आसिफ़ के निर्देशन में बनी थी और नौशाद ने इसे संगीत से सजाया था.
इसके संवाद अमानउल्लाह, एहसान रिज़वी और वज़ाहत मिर्ज़ा ने लिखे थे. यह फ़िल्म अपने भव्य सेटों, दिलकश गीत-संगीत, शानदार अभिनय और दमदार संवादों के लिए जानी जाती है. बानगी देखें-
“वो तीर ही क्या संगतराश, जो दिल के पार न हो. वो बुत ही क्या जिसके आगे मग़रूर सर ख़ुद न झुक जाएं.”
“तो फिर मैं एक ऐसा बुत बनाऊंगा, जिसके क़दमों में सिपाही अपनी तलवार, शहंशाह अपना ताज और इंसान अपना दिल निकालकर रख दे.”
“मालूम होता है जैसे किसी फ़रिश्ते ने आसमां से उतरकर संगमरमर में पनाह ले ली हो.”
“शहंशाह की इन बेहिसाब बख़्शीशों के बदले में ये कनीज़ जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर को अपना ये ख़ून माफ़ करती है.”
इस फ़िल्म के सभी गीत सदाबहार हैं. शकील बदायूंनी के लिखे इस गीत के बोल हैं-
ऐ मेरे मुश्किलकुशा
फ़रियाद है, फ़रियाद है
आपके होते हुए
दुनिया मेरी बर्बाद है
बेकस पे करम कीजिये
सरकार-ए-मदीना
बेकस पे करम कीजिये
गर्दिश में है तक़दीर
भंवर में है सफ़ीना...
साल 1970 में आई चेतन आनन्द द्वारा निर्देशित ‘हीर रांझा’ इकलौती ऐसी फ़िल्म है, जिसके सभी संवाद नज़्म यानी पद्य में हैं. इसके संवाद और गीत दोनों ही मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे. बानगी देखें-
ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं
किसको सुनाऊं हाल दिल-ए-बेक़रार का
बुझता हुआ चराग़ हूं अपने मज़ार का
ऐ काश भूल जाऊं मगर भूलता नहीं
किस धूम से उठा था जनाज़ा बहार का...
कमाल अमरोही की फ़िल्म ‘रज़िया सुल्तान’ ख़ालिस उर्दू संवादों और दिलकश गीत-संगीत के लिए याद की जाती है. यह फ़िल्म 16 सितम्बर 1983 को प्रदर्शित हुई थी. निदा फ़ाज़ली के लिखे इस गीत को कब्बन मिर्ज़ा ने अपनी आवाज़ देकर अमर कर दिया. गीत के बोल हैं-
तेरा हिज्र मेरा नसीब है
तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों
तू कहीं भी हो मेरे साथ है
मेरे वास्ते तेरे नाम पर
कोई हर्फ़ आए नहीं, नहीं
मुझे ख़ौफ़-ए-दुनिया नहीं
मगर मेरे रूबरू तेरी ज़ात है...
इसी फ़िल्म का जांनिसार अख़्तर का लिखा यह गीत भी बहुत ही दिलकश है-
ऐ दिल-ए-नादान, ऐ दिल-ए-नादान
आरज़ू क्या है, जुस्तजू क्या है
ऐ दिल-ए-नादान...
हम भटकते हैं, क्यों भटकते हैं, दश्तो-सेहरा में
ऐसा लगता है, मौज प्यासी है, अपने दरिया में
कैसी उलझन है, क्यों ये उलझन है
एक साया सा, रूबरू क्या है...
उस वक़्त फ़िल्मी कलाकारों के लिए उर्दू बोलना लाज़िमी था, ताकि वे संवाद की सही अदायगी कर सकें, उर्दू शब्दों का सही उच्चारण कर सकें. बंगाली अभिनेता प्रदीप कुमार ने एक साक्षात्कार में बताया था कि हिन्दी फ़िल्मों में काम करने के लिए उन्होंने उर्दू सीखी थी.
इस काम में मीना कुमारी और कमाल अमरोही ने उनकी बहुत मदद की थी. उन्होंने यह भी बताया था कि उर्दू से उन्हें दिली लगाव था. उर्दू की मिठास ने उनके मन को छू लिया था.
उर्दू संवादों और उर्दू गीतों वाली फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है. इन सबका यहां ज़िक्र करना मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि चन्द अल्फ़ाज़ में इसे बयां नहीं किया जा सकता. इस पर तो कई किताबें लिखी जा सकती हैं.
बहरहाल, हिन्दी फ़िल्मों से उर्दू ही नहीं, बल्कि कलात्मकता भी ख़त्म होने लगी और इसकी जगह मसाला फ़िल्मों ने ले ली. इसीलिए नब्बे के दशक के बाद फ़िल्मों से उर्दू लुप्त होने लगी.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि फ़िल्म बनाने का मक़सद बदलने लगा. फ़िल्म निर्माता सिर्फ़ और सिर्फ़ मारधाड़ वाली मसाला फ़िल्में बनाकर ज़्यादा से ज़्यादा धन कमाना चाहते थे.
इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि कलात्मक फ़िल्मों में जिस सब्र और क़ाबिलियत की ज़रूरत होती है, वह भी ख़त्म होने लगी थी. पहले निर्माता एक दृश्य फ़िल्माने के लिए महीनों इंतज़ार किया करते थे. साल 1965 में आई फ़िल्म ‘आरज़ू’ की ही मिसाल लें. हसरत जयपुरी का लिखा एक बेहद दिलकश गीत है-
बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है
बरसता है जो आंखों से वो सावन याद करता है
कभी हम साथ गुज़रे जिन सजीली रहगुज़ारों से
फ़िज़ा के भेस में गिरते हैं अब पत्ते चनारों से
ये राहें याद करती हैं ये गुलशन याद करता है...
कहा जाता है कि फ़िल्म के निर्देशक को गीत के बोलों के हिसाब से चनारों से गिरते पत्तों का दृश्य शूट करना था. उस वक़्त चनारों से पत्ते गिरने का मौसम नहीं था. इसलिए उन्होंने कश्मीर में एक व्यक्ति को ज़िम्मेदारी सौंपी कि जब चनारों से पत्ते गिरने शुरू हो जाएं तो उन्हें इत्तला दी जाए.
उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया. फिर निर्देशक अपनी पूरी टीम के साथ कश्मीर पहुंच गए और अपनी मनमर्ज़ी का दृश्य शूट किया. अब ऐसी शिद्दत कहां देखने को मिलती है. गीत में ज़ुल्फों और आंचल या दुपट्टे का ज़िक्र होता है और छोटे बालों वाली नायिका आंचल या दुपट्टे से भी महरूम होती है.
बस किसी तरह लटकों-झटकों के सहारे ही गीत को शूट कर लिया जाता है. दरअसल अब बोलचाल की भाषा से ख़ूबसूरती ख़त्म होती जा रही है. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह हिंग्लिश का दौर है, खिचड़ी बोली का दौर है. फ़िल्मों में इसी हिंग्लिश का बोलबाला है. आज के युवा हिंग्लिश को ‘स्टाइल’ मानने लगे हैं.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि फ़िल्मों से उर्दू पूरी तरह ख़त्म हो रही है. साल 2008 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म जोधा अकबर में भी कहानी की मांग के मुताबिक़ उर्दू का ख़ूब इस्तेनाल किया गया.
चूंकि यह फ़िल्म मुग़ल बादशाह अकबर की प्रेमकथा पर आधारित है, इसलिए इसमें उर्दू का इस्तेमाल बहुत ज़रूरी था. उर्दू के बिना फ़िल्म बेजान लगती. इसी तरह साल 2024 में प्रदर्शित हुई संजय लीला भंसाली की फ़िल्म हीरा मंडी में उर्दू का ख़ूब इस्तेमाल किया गया है.
ऐसा कहानी को अधिक प्रामाणिक और सांस्कृतिक रूप से सार्थक बनाने के उद्देश्य से किया गया. फ़िल्म में उर्दू साहित्य के इस्तेमाल से भी इसकी अहमियत बढ़ गई है.
दरअसल, आम बोलचाल की भाषा में उर्दू के शब्द ही सबसे ज़्यादा बोले जाते हैं. आज जो हिन्दी बोली जाती है, उसमें सबसे ज़्यादा उर्दू के ही शब्द शामिल हैं. ख़ुद ‘हिन्दी’ शब्द ही फ़ारसी से लिया गया है. उर्दू के बिना ‘हिन्दी’ का ख़ुद अपना कोई वजूद ही नहीं है.
(लेखिका शायरा, कहानीकार और पत्रकार हैं)