लड़कियों को पढ़ाने के लिए क्यों गंभीर नहीं समाज ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 22-05-2024
Why is society not serious about educating girls ?
Why is society not serious about educating girls ?

 

richaऋचा पांडे

पिछले कुछ वर्षों में बिहार में जिन क्षेत्रों में सबसे अधिक बदलाव और प्रगति हुई है उसमें शिक्षा का क्षेत्र प्रमुख है. समय पर शिक्षकों के आने और सभी कक्षाओं का समय पर संचालित होने से स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ने लगी है. शहर ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढांचों में सुधार किया गया है.

माना जाता है कि इसका सबसे अधिक लाभ बालिका शिक्षा में देखने को मिलेगा. एक ओर जहां राज्य सरकार लड़कियों की शिक्षा का प्रतिशत बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना, पोशाक योजना और साइकिल योजना जैसी अनेकों योजनाएं चला रही है वहीं स्कूलों की दशा को सुधारने से उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना आसान हो गया है.

प्रशासनिक स्तर पर किशोरी शिक्षा के मामले में भले ही प्रगति हुई हो लेकिन सामाजिक स्तर पर आज भी लड़कियों को पढ़ाने के प्रति सोच बहुत अधिक विकसित नजर नहीं आता है. केवल ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में आबाद कई ऐसे स्लम एरिया हैं जहां लड़कियों को उच्च शिक्षा मिलने के अवसर बहुत सीमित होते हैं.

बिहार की राजधानी पटना शहर के बीचों बीच आबाद स्लम एरिया अदालतगंज इसका एक उदाहरण है. पटना जंक्शन के करीब आबाद इस स्लम बस्ती की आबादी लगभग एक हजार के आसपास है. तीन मोहल्ले अदालतगंज, ईख कॉलोनी और ड्राइवर कॉलोनी में बटे इस इलाके में शिक्षा की लौ तो पहुंच गई है लेकिन अभी भी पूरी तरह से जगमगाती नजर नहीं आती है.

इन कॉलोनियों में कुछ ही किशोरियां हैं जो 12वीं के बाद आगे उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो पाई हैं.इस स्लम एरिया में अधिकतर परिवार रोजी रोटी की तलाश में दूर दराज के ग्रामीण क्षेत्रों से आकर आबाद हुआ है. इसमें अनुसूचित जाति और ओबीसी समुदाय की बहुलता है.

ड्राइवर कॉलोनी में रहने वाले अधिकतर परिवारों के पुरुष ऑटो चलाने का काम करते हैं वहीं ईख कॉलोनी में रहने वाले परिवारों के पुरुष पटना शहर के विभिन्न इलाकों में गन्ने का जूस बेचने का काम करते हैं. काम के अनुरूप ही इन दोनों कॉलोनियों का नाम स्थापित हो गया है.

इन निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की शिक्षा को लेकर अभी भी बहुत अधिक जागरूकता देखने को नहीं मिलती है. यहां आज भी लड़कियों की तुलना में लड़कों की शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती है.इस संबंध में 18वर्षीय कविता (बदला हुआ नाम) कहती है कि 12वीं के बाद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई क्योंकि उसके भाई को आगे पढ़ना था.

वह कहती है कि "हम 3बहनें और एक भाई है. भाई अभी 10वीं में है जबकि बाकी दो बहनें छठी और आठवीं में पढ़ रही हैं. घर में पैसों की कमी है. पिताजी को ड्राइवरी से इतनी आमदनी नहीं होती है कि वह घर का खर्च चलाने के साथ साथ हम भाई-बहनों की शिक्षा का भी खर्च उठा सकें.

इसलिए 12वीं के बाद मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई ताकि भाई की शिक्षा पर पैसा खर्च किया जा सके." वह कहती है कि मुझे भी कॉलेज जाने का शौक था, लेकिन जब बात पैसों की आती है तो पहले लड़की की पढ़ाई छुड़वा दी जाती है.

कविता के पड़ोस में संध्या कुमारी (नाम परिवर्तित) का घर है. घर के गंदे बर्तनों के ढेर को धोते हुए वह बताती हैं कि "उसके घर में बड़े भैया की मर्जी चलती है. किसे कितना पढ़ना है और नहीं पढ़ना है इसका फैसला वही करते हैं.

10वीं में उसके कम नंबर आने की वजह से भैया ने उसकी पढ़ाई छुड़वा कर मां के साथ घर के कामों में हाथ बटाने को कहा है. हालांकि वह आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन भैया ने उसे पढ़ाई छोड़ कर घर का काम करने को कहा है.

वह बताती है कि उसके भैया स्वयं 12वीं से आगे नहीं पढ़े हैं. संध्या के अनुसार घर में अब उसकी शादी की बात की जा रही है. जबकि वह शादी नहीं बल्कि आगे पढ़ना चाहती है. वहीं 15वर्षीय पूजा बताती है कि दो वर्ष पूर्व किन्हीं कारणों से उसका स्कूल से नाम काट दिया गया था.

जिसके बाद वह फिर कभी स्कूल नहीं गई. वह कहती है कि "स्कूल में दोबारा नामांकन के लिए उसके पिता या घर के किसी सदस्यों ने कभी गंभीरता नहीं दिखाई, इसलिए अब उसे भी पढ़ने में रुचि खत्म हो चुकी है."हालांकि इसी कॉलोनी में रहने वाली प्रतिमा बताती है कि वह बीए सेकेंड ईयर की छात्रा है.

उसे घर में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर मिले हैं. वह कहती है कि जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती है तब तक उसे पढ़ने की आजादी मिली हुई है. मोहल्ले की अधिकतर लड़कियों के साथ यही होता है. कुछ घरों में उन्हें पढ़ने की तबतक छूट रहती है जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती है.

प्रतिमा के अनुसार इन स्लम बस्तियों में अधिकतर लड़कियां 12वीं से आगे नहीं पढ़ पाती हैं. वह बताती है कि स्कूल के दिनों में वह खेलकूद में भी भाग लिया करती थी लेकिन जब कॉलेज में एडमिशन लिया तो घर वालों ने कॉलेज में किसी भी प्रकार की खेलकूद गतिविधियों में भाग लेने से मना कर दिया क्योंकि खेलने के लिए उसे पटना से बाहर भी जाना पड़ सकता था.

घर वालों का कहना है कि खेलकूद करने वाली लड़की की शादी में अड़चन आती है.इस संबंध में समाज सेविका फलक का कहना है कि "अदालतगंज भले ही राजधानी पटना शहर के बीचो बीच स्थित है लेकिन यहां अभी भी जागरूकता का काफी अभाव है. विशेषकर लड़कियों की शिक्षा और उनसे जुड़े मुद्दों पर परिवार वालों की सोच बहुत संकुचित है.

वह लड़कियों को शिक्षित करने के प्रति अभी भी बहुत अधिक गंभीर नहीं हैं. 12वीं के बाद या तो उनकी शादी करा दी जाती है या फिर पढ़ाई छुड़वा कर घर के कामों में लगा दिया जाता है. बहुत कम संख्या में ऐसा परिवार है जहां लड़कियों ने ग्रेजुएशन में एडमिशन लिया हो और उसे पूरा भी किया हो.

वह कहती हैं कि बालिका शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की विभिन्न योजनाओं के बावजूद अदालतगंज स्लम बस्ती में लड़कियों की शिक्षा के प्रति बहुत अधिक जागरूकता का नहीं होना चिंता का विषय है.हमारे देश में शिक्षा आज भी एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है.

विशेषकर जब महिला साक्षरता दर की बात की जाती है तो इसमें काफी कमी नज़र आती है. इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में पर्याप्त सुधार हुआ है. वर्ष 2012-13 में 43.9 फीसद की तुलना में वर्ष 2021-22 में बढ़कर 48 फीसद पर पहुंच गई है. लेकिन बड़ी संख्या में किशोर लड़कियां अभी भी स्कूल से बाहर हैं.

साल 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1.35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12.25% हो गई है. वहीं अगर बिहार की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार देश में महिला साक्षरता का राष्ट्रीय औसत जहां करीब 65 प्रतिशत है वहीं बिहार में महिला साक्षरता की दर मात्र 50.15 प्रतिशत दर्ज किया गया है.

जो राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. यह इस बात को इंगित करता है कि केवल योजनाओं के क्रियान्वयन से नहीं बल्कि धरातल पर जागरूकता फैलाने की भी ज़रूरत है. सामाजिक स्तर पर बालिका शिक्षा के प्रति चेतना जगाने की आवश्यकता है ताकि समाज लड़कों की तरह लड़कियों की शिक्षा के महत्व को भी समझ सके. (चरखा फीचर)