अब्दुल्लाह मंसूर
गाजा में युद्धविराम की घोषणा केवल बंदूकों की गूंज का शांत होना नहीं है.यह महीनों से जारी विनाश के अंत की उम्मीद तो जगाता है, लेकिन साथ ही कई गहरी आशंकाओं को भी जन्म देता है.यह युद्धविराम, जो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के 20सूत्रीय शांति प्रस्ताव के तहत लागू हुआ है, सतह पर तो शांति की एक कोशिश दिखाई देता है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक दांवपेंच, आर्थिक लालच और वैश्विक रणनीतियों का एक जटिल जाल बिछा है.यह समझने के लिए हमें इस संघर्ष के इतिहास, इसके मानवीय पहलू और विश्व राजनीति के समीकरणों को गहराई से देखना होगा.
बीसवीं सदी के मध्य में इज़राइल की स्थापना के साथ ही इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष मध्य-पूर्व का सबसे पुराना और अनसुलझा विवाद बन गया.यह ज़मीन, आज़ादी और अधिकारों की एक ऐसी लड़ाई है, जिसका केंद्र हमेशा से गाजा पट्टी रही है.2006 में जब हमास ने गाजा में सत्ता संभाली, तो यह क्षेत्र एक राजनीतिक और सैन्य गतिरोध का प्रतीक बन गया.
अक्टूबर 2023 में हमास द्वारा इज़राइल पर किए गए अप्रत्याशित हमले ने इस विवाद को एक बेहद भयानक मोड़ दिया, जिसके जवाब में इज़राइल ने गाजा पर ऐसा सैन्य अभियान चलाया, जो पहले कभी नहीं देखा गया था.
इस भीषण लड़ाई में भारी संख्या में आम नागरिक मारे गए, जिनमें बच्चे, महिलाएँ, डॉक्टर और पत्रकार भी शामिल थे.गाजा में मानवता का सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया.अस्पताल दवाओं और सुविधाओं के बिना खाली हो गए, और खाने-पीने की चीज़ों का अकाल पड़ गया।समझौते से पहले, गाजा की 10%आबादी (यानी 67,000लोग) मार दिए गए, 20,000से अधिक बच्चे मारे गए, और पौने दो लाख से अधिक घायल हुए.
दुनिया भर में इस तबाही इस नरसंहार के खिलाफ आवाज़ें उठीं.संयुक्त राष्ट्र, मानवाधिकार संगठनों और कई देशों ने लगातार युद्धविराम की अपील की, जबकि दुनिया के बड़े शहरों में लाखों लोग सड़कों पर उतर आए.इसी वैश्विक दबाव के बीच अमेरिका, खासकर पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीधे तौर पर दखल दिया.हालांकि, शांति की इन कोशिशों के बीच 9 सितंबर 2025 को एक चौंकाने वाली घटना हुई.जिस समय दोहा में इज़राइल और अमेरिकी अधिकारियों की मौजूदगी में मध्यस्थता की बैठक चल रही थी, उसी वक्त इज़राइल ने कतर पर अचानक हमला कर दिया.
इस हमले ने अरब देशों को नाराज़ कर दिया और अमेरिका की ट्रंप सरकार अमीर अरबो से यह नाराज़गी नहीं मोल सकती थी.यही वजह है कि ट्रंप सीधे कमान संभालने पर मजबूर हुए। यह घटना एक बड़ा संकेत थी कि अब अमेरिका, ट्रंप के नेतृत्व में, इज़राइल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर रहा है और उसे अब रोक सकता है.
इसी पृष्ठभूमि में ट्रंप का 20सूत्रीय शांति कार्यक्रम सामने आया.इसका मुख्य उद्देश्य तत्काल लड़ाई रोकना, मानवीय सहायता के लिए गलियारे खोलना, बंधकों और कैदियों की रिहाई सुनिश्चित करना और गाजा के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू करना था.
इस योजना के तहत एक अंतरराष्ट्रीय स्थिरीकरण बल (ISF) की स्थापना का प्रस्ताव है, जो गाजा में शांति और सुरक्षा की निगरानी करेगा.इज़राइल को अपनी सेना धीरे-धीरे हटानी होगी और गाजा पर कब्ज़ा न करने का वादा करना होगा.
वहीं, हमास को अपने हथियार सौंपने और राजनीतिक व्यवस्था से हटने की शर्त माननी पड़ी, जिसके बदले में उसे अपने कैदियों की रिहाई और सीमित माफी का आश्वासन मिला.अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई भी देश नहीं चाहता कि किसी और देश का प्रॉक्सी संगठन यानी किसी देश का अप्रत्यक्ष हथियारबंद समूह दूसरे देशों में सक्रिय रहे.
महीनों की बर्बादी झेल रहे फिलिस्तीनियों के लिए यह एक मुश्किल लेकिन व्यावहारिक समझौता था.उनकी 98प्रतिशत खेती की ज़मीन बर्बाद हो चुकी थीऔर स्कूल-अस्पताल खंडहर बन गए थे.ऐसे में कैदियों की वापसी और अंतरराष्ट्रीय सेना की तैनाती एक छोटी सी राहत थी.
लेकिन इस शांति योजना की कई गंभीर खामियां हैं, जो इसके असली मकसद पर सवाल खड़े करती हैं.सबसे बड़ी चिंता अंतरराष्ट्रीय स्थिरीकरण बल (ISF) को लेकर है.यह बल संयुक्त राष्ट्र के अधिकार के बिना बनाया गया है, जिससे इसकी कानूनी हैसियत पर सवाल उठते हैं.इतिहास गवाह है कि संयुक्त राष्ट्र की भागीदारी के बिना चलाए गए शांति अभियान अक्सर असफल रहे हैं.
1982में लेबनान में अमेरिका के नेतृत्व वाला एक बहुराष्ट्रीय बल असफल हो गया था और उसे जल्द ही पीछे हटना पड़ा.यहाँ तक कि अफगानिस्तान में यूएन-समर्थित नाटो मिशन भी अपने रणनीतिक उद्देश्यों में विफल रहा.इससे भी ज़्यादा चिंताजनक यह है कि गाजा के भविष्य का फैसला करने के लिए बने 'बोर्ड ऑफ पीस' की अध्यक्षता डोनाल्ड ट्रंप और ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर करेंगे.
यह फिलिस्तीनी लोगों के आत्म-निर्णय के अधिकार का मज़ाक बनाने जैसा है.इस पूरी प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका केवल मानवीय सहायता बांटने तक सीमित कर दी गई है, जो इस समझौते की सबसे कमज़ोर कड़ी है.
इस समझौते के पीछे छिपे असली खेल को समझने के लिए हमें भू-राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाओं पर नज़र डालनी होगी.यह समझौता असल में "इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर" (IMEC) जैसी विशाल परियोजना को हकीकत में बदलने की एक सीढ़ी है.
इस कॉरिडोर का मकसद भारत के बंदरगाहों को यूएई, सऊदी अरब, जॉर्डन और इज़राइल से होते हुए सीधे यूरोप से जोड़ना है.इस योजना में गाजा को एक बड़ा लॉजिस्टिक हब बनाने की तैयारी है.
यह कॉरिडोर न केवल चीन के 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' को टक्कर देने का एक अमेरिकी प्रयास है, बल्कि यह स्वेज नहर पर दुनिया की निर्भरता को भी कम करेगा.इसलिए, गाजा में शांति स्थापित करना मानवीय चिंता से कहीं ज़्यादा एक आर्थिक और रणनीतिक ज़रूरत बन गया है.आठ मुस्लिम देशों का इस योजना का समर्थन करना इसी बड़े आर्थिक लालच का नतीजा है, जहाँ उन्होंने फिलिस्तीनी संप्रभुता के सवाल पर अपने आर्थिक हितों को प्राथमिकता दी है.
इज़राइल की जवाबदेही का सवाल भी इस पूरी तस्वीर में अहम है.संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं ने इज़राइल पर नरसंहार के गंभीर आरोप लगाए हैंऔर यह कोई नई बात नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही उसकी नीतियों का परिणाम है.
वहीं, यह भी सच है कि हमास ने बंधकों को एक ऐसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया, जिससे इज़राइल पर दबाव बनाया जा सके.दो साल की लड़ाई ने उसे कमज़ोर कर दिया था, लेकिन गाजा में हो रहे नरसंहार और भुखमरी ने सभी पक्षों को ट्रंप की योजना मानने पर मजबूर कर दिया.
हालांकि, इज़राइल के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए इस समझौते के भविष्य पर भरोसा करना मुश्किल है.2008से लेकर 2025तक हुए लगभग सभी युद्धविराम समझौते इज़राइल ने ही तोड़े हैं.प्रधानमंत्री नेतन्याहू अच्छी तरह जानते हैं कि जैसे ही युद्ध पूरी तरह खत्म होगा, उन्हें 7अक्टूबर के हमलों में हुई सुरक्षा चूक और अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ेगा.युद्ध उन्हें इन सभी सवालों से बचाता है। ऐसे में यह सवाल बना हुआ है कि क्या बंधकों की वापसी के बाद वह गाजा में फिर से युद्ध शुरू कर देंगे? इसकी आशंका बहुत ज़्यादा है.
गाजा का यह युद्धविराम और शांति योजना अंतरराष्ट्रीय संबंधों के उस कठोर यथार्थ को उजागर करती है, जिसे यूनानी इतिहासकार थुसीडाइड्स ने सदियों पहले कहा था: "शक्तिशाली वही करते हैं जो वे कर सकते हैं, और कमज़ोर को वह सहना पड़ता है जो उन्हें सहना चाहिए."
आज फिलिस्तीनियों के पास कोई विकल्प नहीं बचा है और उन्हें एक ऐसी योजना स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जो उनकी ज़मीन का भविष्य बाहरी शक्तियों के आर्थिक और रणनीतिक हितों के आधार पर तय करती है.
यह युद्धविराम भले ही गोलियों की आवाज़ को कुछ समय के लिए शांत कर दे, लेकिन यह उस गहरे संघर्ष का अंत नहीं है जो पहचान, संप्रभुता और न्याय के लिए लड़ा जा रहा है.यह शांति की आड़ में एक नए तरह के नियंत्रण की शुरुआत हो सकती है, जहाँ गाजा की किस्मत का फैसला उसके लोग नहीं, बल्कि वैश्विक ताकतों के रणनीतिकार करेंगे.
(लेखक पसमांदा चिंतक हैं)