भावना मेव
राजस्थान के अनेक ग्रामीण अंचलों में आज भी घर-घर, गली-गली, बस्तियों में ऐसा फर्क मौजूद है जो न केवल ज़मीन पर दिखाई देता है बल्कि रिश्तों, रोजगार और बच्चों की उम्मीदों में भी गहरा असर डालता है. एक तरफ अलग बस्तियाँ और सीमित सार्वजनिक स्थान हैं, दूसरी तरफ बातचीत में छोड़ दिया जाना, पानी के स्रोतों व बर्तन के उपयोग में पृथक व्यवहार और तिरस्कार की आम है. यह केवल व्यक्तिगत कटुता नहीं, बल्कि सामूहिक तौर पर बनी हुई असमानता का परिणाम है जो किस्सों और नियमों के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है.
ऐसे व्यवहार का दायरा केवल सामाजिक जगहों तक सीमित नहीं रह जाता है. आर्थिक रूप से भी बहुत से परिवारों को श्रम-आधारित सीमाओं, मजदूरी में पक्षपात और संसाधनों तक पहुंचने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी आय और सुरक्षा घटती है और इलाके की समग्र प्रगति रुक जाती है.
आंकड़े और रिपोर्टें यह स्पष्ट करती हैं कि हिंसा और होने वाले अपराधों की दर्ज संख्या भी चिंताजनक है. हालिया वर्षों में केंद्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के आधार पर विभिन्न रिपोर्टों ने यह दिखाया है कि राजस्थान में संबंधित प्रवृत्तियाँ उच्च रही हैं और दर्ज मामलों की संख्या व अपराध दर दोनों ने यह संकेत दिया है कि समस्या गंभीर और व्यापक है.
स्कूलों में यह असमानता अक्सर सूक्ष्म रूप में ही दिखाई देती है, पर असर बहुत बड़ा होता है. बच्चों का अलग बैठना, शौचालय और पेयजल के उपयोग में भेदभाव, शिक्षकों या साथी छात्रों द्वारा तिरस्कारपूर्ण व्यवहार, ऐसे अनुभव बच्चों के आत्मसम्मान को कम करते हैं और उन्हें स्कूल से दूरी बनाने पर मजबूर कर सकते हैं.
अध्ययनों और क्षेत्रीय परियोजनाओं ने यह दिखाया है कि जो बच्चे इन स्थितियों को झेलते हैं, विशेषकर लड़कियाँ, वे जल्दी स्कूल छोड़ देती हैं, उनकी सीखने की उपलब्धियाँ कम होती हैं और उच्च शिक्षा या नौकरी के अवसरों से वंचित रह जाती हैं.
शिक्षा क्षेत्र में किए गए विश्लेषणों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जाति-आधारित असमानता और लिंग-आधारित अपेक्षाएँ मिलकर एक विषम बाधा बन जाती हैं, जिससे सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएँ भी दब कर रह जाती हैं.
जातिगत भेदभाव किशोरियों पर असर कई गुना गहरा डालता है. परिवारों में संसाधन सीमित होने पर प्राथमिकता अक्सर लड़कों को दी जाती है, और जहाँ समुदाय के भीतर तिरस्कार या हिंसा का भय रहता है, वहाँ माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से हिचकिचाते हैं.
परिणामस्वरूप किशोरियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक भागीदारी प्रभावित होती है. उनकी स्वायत्तता सीमित रहती है और वे अपने अधिकारों की जानकारी व प्रयोग से दूर रहती हैं. साथ ही, जब कोई बच्चा स्कूल में बार-बार अपमानित होता है तो उसका मनोवैज्ञानिक असर दीर्घकालिक होता है.
उसके आत्मविश्वास में गिरावट, बोलने-लिखने में संकोच और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी की कमी स्पष्ट रूप से नजर आने लगती है. इस तरह का बहु-आयामी नुकसान परिवार, समुदाय और समाज की प्रगति तीनों को पीछे धकेल देता है. आँकड़े यह याद दिलाते हैं कि यह सिर्फ व्यक्तिगत तकलीफ नहीं बल्कि संरचनात्मक चुनौती है.
हाल के वर्षों की रिपोर्ट में राज्यों के स्तर पर दर्ज किए गए अपराधों और उत्पीड़न के मामलों की संख्या में उल्लेखनीय संख्या देखने को मिली है, और कुछ रिपोर्टों ने राजस्थान को उन क्षेत्रों में गिना है जहाँ पड़े हुए सामाजिक विस्थापन और दर्ज मामलों की दरें चिंताजनक रही हैं.
यह संकेत है कि रिपोर्टिंग और जागरूकता बढ़ाने के साथ ही दबे हुए मामलों की परतें भी खुल रही हैं और समाधान की आवश्यकता और तीव्र हो गई है। साथ ही, विश्लेषणों में यह भी कहा गया है कि केवल कानूनों के होने से काम नहीं चलता है. नियमों के पालन, स्थानीय प्रशासन की संवेदनशीलता और समुदाय स्तर पर व्यवहार में बदलाव की जरूरत है.
इस असमानता से होने वाला नुकसान न केवल क्षणिक है बल्कि भविष्य के संसाधनों और संभावनाओं पर असर डालता है. शिक्षा में गिरावट अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी घटाती है, स्वास्थ्य संकेतकों को नीचे लाती है, और सामाजिक तनावों को बढ़ाकर स्थानीय विकास परियोजनाओं और सहयोगी पहलों को कम प्रभावी बनाती है.
जब किसी समुदाय की कुछ आबादियाँ बार-बार अपमान या हिंसा झेलती हैं तो उनकी भागीदारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी कम हो जाती है. पंचायतों, विद्यालय समितियों और स्थानीय निर्णय लेने वाले मंचों में उनकी आवाज़ दब जाती है, जिससे न्यायसंगत नीतियाँ बनना मुश्किल हो जाता है.
इसके अलावा, आर्थिक असमानता और शोषण का चक्र पीढ़ियों तक चलता है. कम संसाधन, कम पहुँच और कम अवसर मिलकर उस समुदाय को लगातार कमजोर करते हैं. समाधान का रास्ता केवल दंडात्मक कदम नहीं हो सकता है.
जरूरत है सामुदायिक संवाद, स्कूलों में समावेशी परिवेश, पानी और शौचालय जैसी आधारभूत सुविधाओं तक समतल पहुँच, और स्थानीय प्रशासन की सक्रिय भागीदारी की.
शिक्षक प्रशिक्षण में संवेदनशीलता, स्कूल सामुदायिक कार्यक्रम जो विभिन्न समूहों को जोड़ें, तथा लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता देने वाली योजनाएँ, ये कदम प्रभाव डाल सकते हैं। साथ ही, स्थानीय नेतृत्व और युवा समूहों की भागीदारी से सामाजिक विचारों में धीरे-धीरे बदलाव आता है, और जब लोग साथ मिलकर सार्वजनिक स्थानों और त्योहारों को साझा करते हैं तब अलगाव की दीवारें कम होती हैं.
दिवाली के इस पावन अवसर पर एक छोटी अपील और भी ज़रूरी बन जाती है. दीप जलाकर केवल अंधेरे का विरोध नहीं किया जाता, बल्कि एक दूसरे को रोशनी देने की ठानी जाती है. इसी तर्ज पर हमें अपने गांवों में, मोहल्लों में, विद्यालयों में और समाज में ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है जहां सभी लोग बिना भेदभाव के खुल कर बोल सकें, लोकतांत्रिक अधिकार के साथ अपनी बात कह सकें.
इस दीयों से निकलने वाली छोटी-छोटी रोशनियाँ अगर दूसरों के लिए अवसर और सम्मान की भी रोशनी फैलाएँ, तो असल परिवर्तन का मार्ग खुलता है। इस दिवाली पर यह सोचना जरूरी हो जाता है कि हमारी खुशियों का मतलब दूसरों की पीड़ा नहीं होना चाहिए, और अगर हम अपने घरों में, पंचायतों में और स्कूलों में छोटे-छोटे कदम उठाएँ तो उन उजालों से एक सशक्त और न्यायसंगत समाज की नींव रखी जा सकती है. जहां किसी के साथ केवल जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो.
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)