गांव की पहली ज़रूरत: अस्पताल

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 07-09-2025
The village's first need: Hospital
The village's first need: Hospital

 

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गांव की चौपाल पर बैठे बुजुर्ग अकसर कहा करते हैं,“लहलहाती फसल जितनी जरूरी है, उतना ही जरूरी अस्पताल भी है.” खेती से पेट भरता है, मगर अस्पताल से जीवन सुरक्षित होता है. बीमारी या प्रसव जैसी अचानक आने वाली स्थितियों में यही सवाल परिवार के सामने खड़ा हो जाता है, कैसे मरीज़ को समय पर अस्पताल ले जाकर इलाज दिलाया जाए? यही चिंता आज भी देश के लाखों गांवों की सच्चाई है.

राजस्थान का नकोदेसर गाँव भी इस हकीकत का जीता-जागता उदाहरण है. बीकानेर जिले के लूणकरणसर ब्लॉक से करीब 33 किलोमीटर दूर बसे इस गाँव के लोग मेहनतकश और आत्मनिर्भर हैं. मगर स्वास्थ्य सेवाओं की कमी उनकी सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है.

यहाँ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तो है, लेकिन डॉक्टर का नियमित रहना किसी संयोग से कम नहीं. कई दिन अस्पताल सूना पड़ा रहता है. ग्रामीणों को यह सोचकर चिंता घेर लेती है कि डॉक्टर मिलेगा भी या नहीं.

जब गाँव में कोई गंभीर रूप से बीमार पड़ता है तो लोग सबसे पहले कालू कस्बे का रुख करते हैं, जो लगभग 13 किलोमीटर दूर है. यह दूरी सुनने में भले छोटी लगे, लेकिन धूल-भरी हवाओं, कच्चे रास्तों और चिलचिलाती गर्मी में यह सफर बेहद कठिन हो जाता है.

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बरसात में हालत और बिगड़ जाती है. कीचड़ से लथपथ रास्तों पर बीमार को मोटरसाइकिल पर ले जाना पड़ता है, जिससे उसकी तकलीफ और बढ़ जाती है.गर्भवती महिलाओं के लिए यह दूरी जीवन-मरण का सवाल बन जाती है.

तैंतीस वर्षीय धूली देवी बताती हैं कि प्रसव पीड़ा के समय उन्हें कालू ले जाने में कितनी परेशानी हुई थी. कई बार टूटी सड़कों के कारण सफर लंबा हो जाता है. महिलाएं रास्ते में ही बच्चे को जन्म देने पर मजबूर हो जाती हैं. यह स्थिति मां और बच्चे दोनों की जान पर भारी पड़ सकती है.

बच्चों की परेशानी भी कम नहीं. छोटे बच्चों में बुखार, दस्त और संक्रमण आम हैं. मगर गाँव के माता-पिता की सबसे बड़ी चिंता यही रहती है कि कहीं इलाज में देरी से हालत बिगड़ न जाए. धूली देवी का अनुभव यही कहता है,“जब तक लोग कालू पहुंचते हैं तब तक बीमारी बढ़ चुकी होती है. साधारण खांसी-बुखार भी गंभीर रूप ले लेता है.”

नकोदेसर के बुजुर्ग भी इस बदहाल व्यवस्था से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. 66 वर्षीय परमेश्वर सारण को डायबिटीज़ और ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियाँ हैं. इन बीमारियों में नियमित दवा और जांच बेहद जरूरी होती है. लेकिन जब हर बार दूसरे गाँव जाना पड़े तो बुज़ुर्ग अक्सर इलाज टाल देते हैं. नतीजा यह होता है कि अचानक उनकी हालत बिगड़ जाती है और पूरा परिवार संकट में पड़ जाता है.

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नकोदेसर की यह कहानी सिर्फ एक गाँव की नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की तस्वीर है. Rural Health Statistics 2021-22 रिपोर्ट के मुताबिक, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है. देश भर के सीएचसी में 83.2% सर्जन, 74.2% स्त्री रोग विशेषज्ञ, 79.1% चिकित्सक और 81.6% बाल रोग विशेषज्ञों की कमी दर्ज की गई. कुल मिलाकर लगभग 79.5% विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं हैं.

31 मार्च 2022 तक देश में 1,61,829 उप स्वास्थ्य केंद्र थे, जिनमें से 1,57,935 ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत थे. वहीं 24,935 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 6,118 शहरी पीएचसी मौजूद थे। हालाँकि 2005 से अब तक उप स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है.सबसे ज़्यादा राजस्थान (3,011), गुजरात (1,858), मध्य प्रदेश (1,413) और छत्तीसगढ़ (1,306) में.

लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि औसतन एक उप स्वास्थ्य केंद्र 5,691 ग्रामीणों की देखभाल करता है. जबकि आदर्श मानक के अनुसार हर 5,000 लोगों पर एक सब-सेंटर, हर 30,000 की आबादी पर एक पीएचसी और हर 1.2 लाख लोगों पर एक सीएचसी होना चाहिए. दुर्गम इलाकों में यह मानक और भी छोटा है—3,000 की आबादी पर एक सब-सेंटर. लेकिन हकीकत इन मानकों से कोसों दूर है.

अगर नकोदेसर जैसे गाँवों में अस्पताल नियमित रूप से काम करें तो इसका असर सिर्फ स्वास्थ्य तक सीमित नहीं रहेगा. समय पर इलाज मिलने से लोग बीमारी की चिंता छोड़कर खेती, बच्चों की पढ़ाई और अन्य कामों पर ध्यान दे पाएंगे. महिलाएं सुरक्षित महसूस करेंगी. बुज़ुर्ग दवाओं के लिए दूसरों पर बोझ नहीं बनेंगे.

गांव के लोग अक्सर कहते हैं.“अनाज भूख मिटाता है, लेकिन इलाज इंसान को जीने का भरोसा देता है.” यही भरोसा जब टूटता है तो सबसे गहरी चोट शरीर पर नहीं, बल्कि मन पर लगती है.

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गाँवों की तरक्की और आत्मनिर्भरता की बातें तभी साकार होंगी जब वहाँ की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हों. बिजली, पानी और सड़क की तरह अस्पताल भी गाँव की पहली ज़रूरत है. बिना स्वास्थ्य सुरक्षा के आत्मनिर्भरता का सपना अधूरा है.

नकोदेसर की कहानी हमें यही सोचने पर मजबूर करती है कि गाँवों के लिए अस्पताल केवल एक सुविधा नहीं, बल्कि इंसानी गरिमा और सुरक्षा की नींव है. जब तक यह नींव मजबूत नहीं होगी, तब तक गाँव की तरक्की और देश की प्रगति अधूरी मानी जाएगी.

 

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)