सवाल रिपोर्ट नहीं , टाइमिंग का है

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 12-05-2024
The question is not about the report, it is about timing.
The question is not about the report, it is about timing.

 

harjinderहरजिंदर
 
चुनाव का नैरेटिव बनाने, बिगाड़ने और बदलने का काम सिर्फ राजनेता ही नहीं करते इसमें एक बड़ी भूमिका अकसर कवि-कलाकार, बुद्धिजीवी और अकादमिक जगत के लोग भी निभाते हैं. बहुत सारी सरकारी, गैर सरकारी संस्थाएं और नौकरशाही भी इसमें हाथ बंटाती हैं.

इस बार के चुनाव में हिंदू-मुसलमान के आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश तो काफी पहले  शुरू हो गई थीं. मतदान का तीसरा चरण आते-आते आवाज तेज और तीखी होने लगीं. कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल भी शुरू हो गया, जो ऐसे मौके पर वर्जित होने चाहिए.
 
 खासकर दो बातों का इस्तेमाल बहुत बड़े स्तर पर होने लगा. एक है ‘घुसपैठिये‘ और दूसरा ‘ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले‘.ऐसी बातें करने वालों की दिक्कत यह थी कि इस बार इस तरह की शब्दावली बहुत ज्यादा असर नहीं कर पाई.
 
आम लोगों ने इसे ऐसे लफ्फाजी मान लिया जो हर चुनाव से पहले बाहर निकल आती है. लोगों को ऐसी बातें अब बेमतलब और आधारहीन लगती हैं. शायद इसीलिए सोचा गया इन बातों को एक नया आधार दिया जाए.
जल्द ही यह आधार मिल गया.
 
प्रधानमंत्री कार्यालय की आर्थिक सलाहकार समिति ने इस दौरान दुनिया की जनसंख्या पर एक रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट में दुनिया के बहुत सारे देशों की आबादी धार्मिक आधार पर विश्लेषण किया गया है.रिपोर्ट का कुलजमा लब्बो-लुबाब यह है कि भारत में 1950 से लेकर 2015 तक के 65 साल में बहुसंख्यको की आबादी तेजी से घटी है, जबकि अल्पसंख्यकों की आबादी तेजी से बढ़ी है.
 
यानी इस रिपोर्ट में जो कहा गया  वह हमें आखिर में ‘ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले‘ की चुनावी लफ्फाजी की ओर ही ले जाता है.हालांकि इसे एक अकादमिक अध्ययन बताया गया, लेकिन अकादमिक जगत के सभी लोग इससे सहमत नहीं.
 
आबादी के मामलों का अध्ययन करने वाली संस्था पाॅपुलेशन फाउंडेशन आॅफ इंडिया ने आंकड़ों को गलत और भ्रामक कहा. इस संगठन ने हालांकि अपनी टिप्पणी मीडिया में छपी खबरों पर की है. कहा है कि आंकड़ों को चुनींदा ढंग से पेश किया जा रहा है, जबकि आबादी के रुझानों की जटिलता को पूरी तरह नजरंदाज किया जा रहा है.
 
पॉपुलेशन फाउंडेशन की आपत्तियों की अलग एक नजर डालते हैं मीडिया में छपी खबरों पर. इन खबरों में एक खास बात यह बताई गई है कि भारत में अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ी है, जबकि जबकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश वगैरह में अल्पसंख्यकों की आबादी घटी है. ये आंकड़ें सही भी हो सकते हैं, लेकिन शायद यह तुलना सही नहीं. भारत एक पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष देश है, जबकि इन देशों में कोई भी ऐसा नहीं है.
 
असल मसला वह मौका है जिस पर इस रिपोर्ट को जारी किया गया है. चुनाव के समय होने वाली किसी भी गतिविधि को चुनाव से ही जोड़कर देखा जाता है. यह माना जाता है कि इसके पीछे की मंशा चुनाव को प्रभावित करने की है. इस रिपोर्ट को भी उसी तरह से देखा जाएगा.
 
अच्छी बात यह है कि रिपोर्ट जारी होने के दो दिन बाद ही यह भी साफ होने लग गया कि इस बार इस तरह की चीजें भी लोगों पर असर डालने में नाकाम हो रही हैं.
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)