मुस्लिम आरक्षण निशाना नहीं बहाना

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 05-05-2024
Muslim reservation is not a target but an excuse
Muslim reservation is not a target but an excuse

 

harjinderहरजिंदर

चुनावी सभाओं में एक शब्द इन दिनों काफी बोला जा रहा है- मुस्लिम आरक्षण. एक तरफ दावा किया जा रहा है कि इसके जरिये दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के आरक्षण में सेंध लगाई गई है. उनके हिस्सा छीन कर मुसलमानों को दे दिया गया है. दूसरी तरफ यह भी दावा किया जा रहा है कि वे इसे खत्म कर के ही दम लेंगे.

माना जाता है कि चुनावी रैलियों में दिए गए भाषणों को सच और झूठ की कसौटी पर कसना मूर्खता होती है. इन रैलियों, उनमें दिए गए भाषणों और वहां लगाए गए नारों का एक ही मकसद होता है- किसी भी तरह से वोट बटोरना. अगर सच कहने से वोट मिलते हैं तो सच बोला जाएगा और अगर झूठ बोलने से वोट मिलते हैं तो झूठ बोला जाएगा. वैसे इनमें से ज्यादातर दूसरी चीज ही होती है.
 
मामला कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का है जहां यह मामूली सा आरक्षण दो दशक पहले लागू हुआ था और जब लागू हुआ था तो भी इसे लेकर खासा हंगामा हुआ था. यह कहा गया कि धर्म के आधार पर किसी एक पूरे समुदाय को पिछड़ा मान लेने ठीक नहीं है. बात में दम था। मामला अदालतों में भी गया और कईं बार इस पर रोक भी लगाई गई। और फिर चीजें वहां पहंुच गईं जहां आज वह खड़ी हैं.
 
कुछ समय पहले कर्नाटक की एसआर बोम्मई सरकार ने इस मुस्लिम आरक्षण पर पूरी तरह से रोक लगा दी थी, लेकिन अदालत में उनका यह फैसला गिर गया. सरकार बदली तो वह फैसला वापस ही ले लिया गया.
दो दशक से ज्यादा की इस राजनीति में सिवाय वोट बैंक बनाने के किसी को क्या हासिल हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं है.
 
हमारे पास इसके कोई आंकड़ें भी नहीं हैं. हमें यह ठीक से मालूम नहीं है कि आरक्षण लागू होने से पहले और बाद में समुदाय की स्थिति पर फर्क पड़ा भी या नहीं.यह ठीक वैसे ही जैसे हम दलितों और आदिवासियों के बारे में दावे के साथ नहीं कह सकते कि आरक्षण ने उनके समुदाय की स्थिति को किस हद तक सुधार दिया है.
 
देश में विभिन्न समुदायों के जो हालात हैं उनमें आरक्षण जरूरी हो सकता है लेकिन किसी समुदाय का उत्थान सिर्फ इसी से हो जाएगा और इसके लिए किसी अन्य कोशिश की जरूरत नहीं है यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन दिक्कत यह है कि आरक्षण से वोट मिल सकते हैं इसलिए सिर्फ इसी की बात होती है और बाकी तरीकों के बारे में कोई सोचता भी नहीं है.
 
अभी जो आरक्षण की बात हो रही है वह दो तरीके से खतरनाक है. एक तो इसमें किसी समुदाय को आरक्षण देने की बात नहीं हो रही बल्कि आरक्षण छीनने की बात हो रही है. इसे सिर्फ भड़काने वाली कार्रवाई ही कहा जा सकता है. इसके अलावा इस बात के जरिये वोट लेने की खातिर सांप्रदायिक तनाव को भी भड़काया जा रहा है.
 
अभी कुछ ही समय पहले तक पसमांदा शब्द का इस्तेमाल बहुत जगहों पर होने लगा था. एकबारगी यह लगा था कि पसमांदा के लिए कुछ ठोस चीजें सामने आएंगी. कुछ लोग तो पसमांदा समाज के लिए आरक्षण की राह निकलने की उम्मीद भी बांध रहे थे, लेकिन चुनाव में उसे पूरी तरह भुला दिया गया. फिलहाल सिर्फ सांप्रदायिक बाते ही हो रही हैं.
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)