-ईमान सकीना
भरोसेमंद होना,जिसे अरबी में अमानत (Amānat) कहा जाता है,इस्लाम में सबसे गहरे नैतिक मूल्यों में से एक है जिस पर सबसे अधिक ज़ोर दिया गया है. यह महज़ एक सामाजिक गुण या एक वांछनीय विशेषता नहीं है, बल्कि यह ईमान (आस्था), चरित्र और एक मोमिन (विश्वासी) की आध्यात्मिक ईमानदारी का एक मूलभूत आधार है. क़ुरान की सीधी शिक्षाओं से लेकर पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के अनुकरणीय जीवन तक, अमानत की अवधारणा इस्लामी जीवन के हर आयाम—व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक,में व्याप्त है.
इस्लाम में अमानत में वह सब कुछ शामिल है जो किसी व्यक्ति को अल्लाह या लोगों द्वारा सौंपा गया है. इसमें भौतिक संपत्ति, गोपनीय जानकारी, ज़िम्मेदारियाँ, अधिकार के पद और यहाँ तक कि किसी के अपने शारीरिक और आध्यात्मिक गुण भी शामिल हैं. अल्लाह अमानत को एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी बताता है, यहाँ तक कि यह भी कहा गया है कि आकाश, पृथ्वी और पहाड़ों ने इसके भार और गंभीरता के कारण इसे उठाने से मना कर दिया था.
यह इस बात पर ज़ोर देता है कि भरोसेमंद होना वैकल्पिक नहीं है; यह हर मुसलमान के लिए एक पवित्र कर्तव्य है. अमानत में ख़यानत (विश्वासघात) करना आस्था के मूल स्वभाव के ही विपरीत जाना है.पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नबुव्वत (पैगंबरी) से बहुत पहले से ही, भरोसेमंद होना उनके सबसे शुरुआती और सबसे ज़्यादा पहचाने जाने वाले गुणों में से एक था.
उनके दुश्मन भी उन्हें अल-अमीन "सबसे भरोसेमंद” कहकर पुकारते थे. लोगों ने अपनी क़ीमती चीज़ें, राज़ और विवादों को उन्हें सौंप दिया था क्योंकि वे जानते थे कि वह कभी भी किसी अमानत में ख़यानत नहीं करेंगे. यह नेक गुण उनके मिशन की पहचान बन गया. उन्होंने सिखाया कि भरोसेमंद होना सच्चे ईमान की निशानी है और विश्वासघात मुनाफ़िक़त (ढोंग या पाखंड) की निशानियों में से एक है.
एक रिवायत (कथन) में, उन्होंने कहा है: “उस व्यक्ति का कोई ईमान नहीं, जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता.” इस प्रकार, इस्लाम में, किसी व्यक्ति का अल्लाह और समाज के साथ संबंध अमानत के बिना अधूरा है.
इस्लाम भरोसे को केवल एक दुनियावी दायित्व के रूप में नहीं देखता; यह एक मोमिन के ईमान (आस्था) से गहराई से जुड़ा हुआ है. एक भरोसेमंद दिल ईमानदारी, सच्चाई और अल्लाह के डर को दर्शाता है. जब कोई व्यक्ति उसे सौंपी गई अमानत को पूरा करता है, तो वह यह जागरूकता प्रदर्शित करता है कि अल्लाह उसे देख रहा है, भले ही लोग उसे देखें या न देखें. इसके विपरीत, विश्वास तोड़ना न केवल मानवीय रिश्तों को नुक़सान पहुँचाता है, बल्कि व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति को भी नुक़सान पहुँचाता है.
यह नैतिक कमज़ोरी और अल्लाह के सामने जवाबदेही की चेतना की कमी को दर्शाता है.भरोसेमंद होने की इस्लामी समझ बहुत व्यापक और विस्तृत है. इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
1. वित्तीय अमानत: उधार ली गई चीज़ों को लौटाना, समय पर क़र्ज़ चुकाना, और व्यापार तथा लेनदेन में ईमानदार होना सब अमानत के अंतर्गत आते हैं.इस्लाम धोखाधड़ी, जमाख़ोरी, बेईमानी और अनुबंध तोड़ने की कड़ी निंदा करता है.
2. ज़िम्मेदारियाँ और पद: कोई भी भूमिका—चाहे माता-पिता, शिक्षक, कर्मचारी, प्रबंधक या नेता के रूप में हो—एक अमानत है. विशेष रूप से नेतृत्व को एक भारी अमानत के रूप में वर्णित किया गया है. अधिकार का दुरुपयोग करना, कर्तव्यों की उपेक्षा करना या अन्याय करना इस पवित्र अमानत का उल्लंघन है.
3. बात और गोपनीयता: किसी के राज़ को बनाए रखना, जानकारी को विकृत न करना, और पीठ पीछे बुराई करने या लोगों के ऐब उजागर करने से बचना भी अमानत को पूरा करने का हिस्सा है. एक भरोसेमंद मुसलमान अपनी ज़बान की सावधानी से हिफ़ाज़त करता है.
4. समय और प्रतिबद्धताएँ: मुलाक़ातें, समय सीमाएँ और वादे नैतिक दायित्व हैं. इनके साथ लापरवाही बरतना विश्वासघात माना जाता है.
5. अल्लाह से मिले व्यक्तिगत उपहार: यहाँ तक कि किसी का स्वास्थ्य, धन, बुद्धि और अवसर भी अल्लाह की ओर से मिली अमानत हैं. इनका ज़िम्मेदारी से उपयोग करना और ख़ुद को या दूसरों को नुक़सान पहुँचाने से बचना आध्यात्मिक स्तर पर अमानत को पूरा करना है.
भरोसेमंद होना एक स्वस्थ समाज के स्तंभों में से एक है. जब लोग एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, तो आर्थिक व्यवस्थाएँ फलती-फूलती हैं, परिवार मज़बूत होते हैं और समुदाय शांत हो जाते हैं. विश्वास के बिना समाज भ्रष्टाचार, बेईमानी और डर में सिमट जाता है.
इस्लाम का अमानत पर ज़ोर एक ऐसा समुदाय बनाने का लक्ष्य रखता है जहाँ व्यक्ति भरोसेमंद, पारदर्शी और ईमानदार हों. अमानत केवल बातों से हासिल नहीं होती; इसके लिए लगातार कर्मों की आवश्यकता होती है. एक मुसलमान आत्म-अनुशासन, सच्चाई, अल्लाह के डर और इस्लाम की शिक्षाओं को अपनाने की सच्ची इच्छा के माध्यम से इस गुण को पोषित करता है. माता-पिता को इसे बच्चों में डालना चाहिए, नेताओं को इसका आदर्श बनना चाहिए, और व्यक्तियों को इसे जीवन के हर पहलू में अमल में लाना चाहिए.