साकिब सलीम
स्वतंत्रता-पूर्व युग में, ओपनिवेशिक शासकों और उनके समर्थकों द्वारा फैलाया गया एक लोकप्रिय झूठ था कि भारत में पारंपरिक इस्लामी विद्वान अन्य धार्मिक धर्मों के लोगों की तुलना में देशभक्त नहीं थे, या उससे कम थे. इसका मकसद विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच अविश्वास पैदा करना और स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करना था. अफसोस की बात है कि आजादी के बाद भी यह प्रचार जारी है. बहुत से लोग मानते हैं कि मुस्लिम विद्वानों या उलेमा ने खुद को स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रखा. यह उन लोगों द्वारा फैलाया गया झूठ है, जो कभी भारत को आजाद नहीं देखना चाहते थे.
मैं वर्षों से औपनिवेशिक दस्तावेज, अदालती मामले, सीआईडी फाइलें, अंग्रेजों के पत्र-व्यवहार और अखबारों की रिपोर्ट पढ़ रहा हूं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि उलेमा ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, बल्कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अंग्रेज इन इस्लामी विद्वानों को सबसे खतरनाक मानते थे. मुसलमानों के बीच उलेमा के काफी अनुयायी थे, वे ब्रिटिश विरोधी थे और हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देते थे. ब्रिटिश सरकार को कभी भी अंग्रेजी पढ़े-लिखे मुसलमानों से खतरा महसूस नहीं हुआ. स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद का मानना था कि मदरसा में पढ़े-लिखे व्यक्ति को अंग्रेजी शिक्षित की तरह सरकारी नौकरी के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता है, इसलिए ऐसा व्यक्ति अधिक ब्रिटिश विरोधी हो सकता है, क्योंकि उसे भविष्य में उनके किसी भी पक्ष की आवश्यकता नहीं थी.
1918में, अंग्रेजों ने जस्टिस रॉलेट के नेतृत्व में एक राजद्रोह समिति का गठन किया. इसकी रिपोर्ट कुख्यात रॉलेट एक्ट का आधार थी. जलियांवाला बाग हत्याकांड तब हुआ, जब लोग इस अधिनियम के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे. रिपोर्ट के अनुसार, उलेमा ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लोगों के सबसे खतरनाक समूहों में से एक थे. रॉलेट कमेटी, ‘रेशमी रूमाल आंदोलन’ यानि सिल्क लेटर मूवमेंट के नाम से विख्यात आंदोलन के बारे में विशेष रूप से चिंतित थी.
अगस्त, 1916में, मुल्तान में ब्रिटिश अधिकारियों ने पीले रेशमी कपड़ों पर लिखे तीन (सिल्क लेटर) पत्रों को पकड़ लिया. मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अब्दुर रहीम और मौलाना महमूद हसन को पत्र लिखे थे. पत्रों ने अंग्रेजों को भारत में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने की एक बड़ी योजना का खुलासा किया. मौलाना महमूद देवबंदी के नेतृत्व में उलेमा ने प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान अफगानिस्तान में आदिवासी बेल्ट, अफगानिस्तानी सरकार, रूस, जर्मनी, तुर्की और ब्रिटेन का विरोध करने वाले अन्य देशों की मदद से ब्रिटिश नियंत्रित भारत पर सशस्त्र हमले की योजना बनाई थी. उलेमा इस प्रयास में गदर पार्टी और आर्य समाजियों के साथ सहयोग कर रहे थे.
मौलाना महमूद हसन देवबंदी
अंग्रेजों को जब्त किए गए पत्रों से योजना का पूरा पता चल गयाा. कई देशों ने भारत में सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम को अपना समर्थन देने का वादा किया था. जब उलेमा ने अफगान सीमा से ब्रिटिश सेना पर हमला किया, सीआईडी ने अपनी जांच में इस आंदोलन को पिछले 50वर्षों के विभिन्न मुस्लिम नेतृत्व वाले आंदोलनों से जोड़ा. अदालत में, 59भारतीय राष्ट्रवादियों पर ‘ताजे-बरतानिया के खिलाफ युद्ध छेड़ने’ का आरोप लगाया गया था.
1909 में, मौलाना महमूद हसन ने जमीयत-उल-अंसार के गठन की शुरुआत की, जो दारुल उलूम के ओल्ड ब्वॉयज का एक संघ था. उबैदुल्लाह को इसका मुखिया बनाया गया था. संघ ने उलेमाओं के बीच ब्रिटिश विरोधी और राष्ट्रवादी विचारों को फैलाना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि देवबंद में कई शिक्षक और छात्र विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने लगे. मौलाना महमूद ने दिल्ली में एक मदरसा, निजारतुल मारीफ की स्थापना की और 1912 में उबैदुल्ला को इसका नेतृत्व करने के लिए भेजा. इस मदरसे ने उलेमा और अंग्रेजी शिक्षित युवाओं के बीच एक सेतु का काम किया. अलीगढ़ कॉलेज के कई लोग मदरसे में शामिल होने लगे. मदरसे ने उलेमा और कांग्रेस की मुख्यधारा के राष्ट्रवादी नेतृत्व को एकजुट करने में मदद की. एमए अंसारी, हकीम अजमल खान और अन्य आंदोलन की ओर आकर्षित हुए. मदरसे ने दो पुस्तकें भी प्रकाशित कीं - ‘तालीम-ए-कुरान’ और ‘कलीद-ए-कुरान’, जो अंग्रेजों के अनुसार ओपनिवेशिक सरकार के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को उकसाती थीं.
कोलकाता में कहीं और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने मौलाना महमूद के परामर्श से अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए एक उग्रवादी संगठन जमीयत हिजबुल्लाह की स्थापना की. अक्सर एक अहिंसक गांधीवादी नेता माने जाने वाले आजाद के उग्रवादी संगठन में 1700से अधिक सदस्य थे, जिन्होंने इस उद्देश्य के लिए अपने जीवन का बलिदान देने का संकल्प लिया था. अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध के विचारों को लोकप्रिय बनाने के लिए एक समाचार पत्र, अल-हिलाल और एक मदरसा, दारुल इरशाद, भी आजाद द्वारा कोलकाता में स्थापित किया गया था. अखबार पर प्रतिबंध लगा दिया गया, मदरसे से नोट जब्त कर लिए गए और आजाद को गिरफ्तार कर लिया गया.
मौलाना महमूद और कई अन्य लोगों ने सोचा कि अंग्रेजों से लड़ने के लिए गिरफ्तारी से बचना महत्वपूर्ण था. 1915 में, मौलवी सैफुर रहमान ने उनकी सलाह पर कई पंजाबी मुसलमानों को अफगानिस्तान की सीमा पार करने के लिए प्रेरित किया. इसका उद्देश्य वहां की जनजातियों को भारत में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए राजी करना था. उबैदुल्ला को अफगानिस्तान के शासक अमीर हबीबुल्लाह को युद्ध में शामिल करने के लिए काबुल जाने का निर्देश दिया गया था. मौलाना महमूद खुद हेजाज के तुर्की गवर्नर का समर्थन हासिल करने के लिए सऊदी अरब के वर्तमान हेजाज के लिए रवाना हुए.
काबुल में, राजा महेंद्र और मौलाना बरकतुल्लाह जर्मनी से अमीर हबीबुल्लाह को विश्व युद्ध में तुर्की और जर्मनी को शामिल होने के लिए प्रभावित करने के लिए पहुंचे. एक अस्थायी सरकार का गठन किया गया था. राजा महेंद्र को राष्ट्रपति नियुक्त किया गया, बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री थे और उबैदुल्ला इसके भारत मामलों के मंत्री बने. एक सेना, जुनूद-ए-रब्बानिया भी प्रस्तावित की गई थी, जिसके जनरल मौलाना महमूद और उबैदुल्लाह थे. मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. एम.ए. अंसारी, मौलाना अब्दुल बारी (फिरंगी महली), हसरत मोहानी, मुहम्मद अली और जफर अली खान प्रस्तावित सेना में नामित कई अधिकारियों में से कुछ थे. इस सरकार ने रूस, तुर्की, जापान आदि देशों में कई मिशन भेजे. इन मिशनों पर सरकार के प्रतिनिधि मथुरा सिंह को रूस में गिरफ्तार किया गया और बाद में 1917में लाहौर में उनके देशभक्ति के काम के लिए फांसी पर लटका दिया गया.
मक्का और मदीना में, मौलाना महमूद ने हेजाज के तुर्की गवर्नर गालिब पाशा से मुलाकात की और भारत में विद्रोह के लिए अपना समर्थन जीता. गालिब से एक पैम्फलेट ‘गालिबनामा’ एक सशस्त्र विद्रोह के लिए उनके सशस्त्र समर्थन का वादा करते हुए भारत भेजा गया था. अनवर पाशा और जमाल पाशा ने मेडियन में मौलाना महमूद और हुसैन अहमद मदनी से भी मुलाकात की. उन्होंने भी समर्थन का वादा किया. लेकिन, जल्द ही तुर्की को युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा और मित्र देशों की सेनाओं के लिए हेजाज को खो दिया. मौलाना महमूद और हुसैन अहमद को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें युद्धबंदियों के रूप में माल्टा भेजा गया और तीन साल बाद रिहा किया गया. 1920में मुंबई पहुंचने पर मौलाना महमूद का एक नायक की तरह स्वागत हुआ, जब महात्मा गांधी कई नेताओं के साथ उनका स्वागत करने पहुंचे.
हालांकि यह आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्य में विफल रहा, लेकिन इसके द्वारा फैले आदर्शों ने भारतीय दिलों में विद्रोह की आग को जलाए रखा. बाद में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, भारतीयों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में फिर से एक अंतरिम सरकार ‘आजाद हिंद सरकार’ और एक सेना ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया.