कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के सिर पर चुनौतियों का ताज !

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 19-10-2022
त्वरित प्रतिक्रिया: कांग्रेस अध्यक्ष पर चुनौतियों का ताज !
त्वरित प्रतिक्रिया: कांग्रेस अध्यक्ष पर चुनौतियों का ताज !

 

qurbanकुर्बान अली

आखिरकार मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष चुने लिए गए. अब अहम सवाल ये है कि मौजूदा सूरते हाल में कांग्रेस पार्टी के समक्ष जो चुनौतियां हैं उनसे वह हद तक पार पाएंगे ?क्या वह पार्टी को फिर से उस मुकाम पर ला पाएंगे जिस पर 2004 या 2009 में थी. क्या वह 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की नैया पारने की स्थिति में होंगे ? क्या वह पार्टी को नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का विकल्प बना पाएंगे या कम से कम एक ऐसी पार्टी जिसमें लगभग 200 के आसपास लोकसभा सदस्य हों और वह अन्य समान विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर केंद्र में एक गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में हो, जैसा 2004 में हुआ था. ऐसे कई अहम सवाल हैं, जिसका जवाब देना खड़गे साहब के लिए चुनौती भरा है.

इन सवालों पर मंथन करने से पहले उनकी राजनीतिक यात्रा पर एक नजर डाल ली जाए.जहां तक 80वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की राजनीतिक शख्सियत का सवाल है, 57वर्ष से अधिक के अपने राजनीतिक सफर में उनका एक लंबा तजुर्बा रहा है. वे ग्रासरूट वर्कर हैं और अपने छात्र जीवन में ब्लॉक व तालुका स्तर से राजनीतिक जीवन की शुरुआत की है. वे छात्र राजनीति के साथ ट्रेड यूनियन आंदोलन में भी सक्रिय रहे हैं.

1964 से कांग्रेस पार्टी में शामिल मल्लिकार्जुन खड़गे सबसे पहले 1969में  कर्नाटक के गुलबर्गा शहर के पार्टी अध्यक्ष चुने गए. 1972में उन्होंने पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा और कामयाब हुए.1972से लगातार 9बार विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और राज्य की हर कांग्रेस सरकार में मंत्री बनाए गए.

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कर्णाटक के पूर्व मुख्यमंत्री देवराज अर्स के राजनीतिक शिष्य और नेहरू-गांधी परिवार के पुराने वफादार मल्लिकार्जुन खड़गे एक दलित परिवार से हैं और कांग्रेस के 137वर्षों के इतिहास में यह दूसरी बार है जब कोई दलित नेता पार्टी के सर्वोच्च पद पर पहुंचा है.

इससे पहले बाबू जगजीवन राम 50 वर्ष पहले 1971-1972 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे. तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और पार्टी में उनका दबदबा था.पिछले 50-60 वर्षों में दक्षिण भारत से कांग्रेस के जो अध्यक्ष चुने गए हैं उनमें के कामराज,नीलम संजीव रेड्डी, निजलिंगप्पा और पी वी नरसिम्हाराव के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे हैं.

सीधे-साधे स्वभाव के मल्लिकार्जुन खड़गे तीन बार कर्णाटक के मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हो चुके हैं. वह एक शरीफ आदमी के रूप में जाने जाते हैं, जो बहुत अच्छी हिंदी जानते और बोलते हैं.मल्लिकार्जुन खड़गे 2009 में पहली बार गुलबर्गा संसदीय सीट से लोक सभा के लिए चुने गए और डा. मनमोहन सिंह सरकार में श्रम, रेलवे और सामाजिक न्याय मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री बनाए गए.

2014 में जब कांग्रेस पार्टी देश भर में लोक सभा चुनाव बुरी तरह हारी मल्लिकार्जुन खड़गे उन चुनावों में गुलबर्गा से दोबारा निर्वाचित हुए और लोक सभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता बनाए गए. मगर 2019का लोकसभा चुनाव हार गए.

संसदीय राजनीति में उनकी यह पहली हार थी.मगर पार्टी ने उनकी वफादारी को देखते हुए अगले बरस उन्हें बिना मुकाबले राज्यसभा के लिए निर्वाचित करा दिया और जब सदन में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद का कार्यकाल पूरा हुआ तो मल्लिकार्जुन खड़गे राज्य सभा में विपक्ष के नेता मनोनीत किए गए.मल्लिकार्जुन खड़गे का राजनीतिक सफर चाहे जितना कामयाब रहा हो, लेकिन असली सवाल यही है कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में पार्टी के समक्ष इस समय जो  चुनौतियों हैं उनसे निपटने में वह किस हद तक कामयाब हो पाएंगे?

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नेहरू-गांधी परिवार ने पार्टी अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे का समर्थन करके दलित कार्ड चला है और पार्टी आला कमान का मानना है कि ऐसा करके पार्टी को अपना वह खोया हुआ जन आधार (ब्राह्मण, मुस्लिम,दलित) वापस मिल सकता है जो 1977तक उसका वोट बैंक हुआ करता था.

साथ ही पार्टी दक्षिण भारत में अपना जनाधार मजबूत करना चाहती है. इस लिहाज से कर्णाटक के कद्दावर नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का लाभ पार्टी हासिल करना चाहती है. लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे कितने बड़े नेता हैं, इस बात का अंदाजा अगले बरस राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में हो जाएगा.

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हालांकि कर्नाटक में इस समय बीजेपी की सरकार है और उसके खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी फैक्टर भी है. मगर इस बात की संभावना कम है कि कांग्रेस अपने बल बूते पर स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बना पाएगी. 

वैसे मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए इस वर्ष के अंत तक गुजरात और हिमाचल प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव भी परीक्षा से कम नहीं होंगे, जहां पार्टी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है. इन राज्यों में जहां अभी तक कांग्रेस पार्टी मुख्य विपक्षी दल हुआ करती थी, वहां अब आम आदमी पार्टी अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज करा रही है, कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है.

इसके अलावा 1998 में जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था, तक तर्क दिया गया था कि नेहरू-गांधी परिवार के अलावा कोई व्यक्ति न तो पार्टी को एक रख सकता है और न ही मजबूत बना सकता है.

यह बात सोनिया गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने पर कुछ हद तक सही साबित हुई. हालांकि कांग्रेस पार्टी उनके नेतृत्व में 1999 में पहला आम चुनाव तो हार गई, पर 2004 और 2009 में वह पार्टी को केंद्र सहित कई राज्यों में सत्तानशीं करने में कामयाब रहीं. यह कमाल राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष रहते नहीं हो सका और पार्टी लगातार एक के बाद एक चुनाव हारती गई.

हद तो ये कि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में सत्ता हासिल करने के बावजूद पार्टी अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख सकी. बीजेपी ने उसके विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बना ली और गोवा व मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के  बावजूद  सरकार नहीं बना पाई.

मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए सबसे बड़ी चुनौती कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कोहिमा तक अपने संगठन के लिए जानी जाने वाली 137 पुरानी कांग्रेस पार्टी का कायाकल्प करने की भी होगी.बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस एक मात्र ऐसी पार्टी है जिसका देश के हर हिस्से में कार्यकर्त्ता मौजूद है, पर पार्टी दो चार राज्यों को छोड़कर किसी भी राज्य में अपनी अहम भूमिका निभा नहीं पा रही है.देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश जो किसी जमाने में पार्टी का गढ़ हुआ करता था, जिस पार्टी ने राज्य से चार-चार प्रधानमंत्री दिए और जहां से कभी 80-80सांसद जीत कर आते थे, वहां आजकल एक विधायक का चुनाव जीतना भी पार्टी के लिए मुश्किल हो रहा है.इस राज्य में पिछले 33 वर्षों से पार्टी सत्ता से बाहर है.

यही हाल कमोबेश बिहार का है, जहां पार्टी दूसरे दलों के नेतृत्व में गठबंधन सरकारों में तो शामिल रही है, मगर अपने बल पर पिछले 33वर्षों से पार्टी सत्ता से बाहर है.तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य में तो कांग्रेस 1967से सत्ता से बाहर है, जबकि एक दूसरे बड़े राज्य पश्चिमी बंगाल से 1977 से.

 मल्लिकार्जुन खड़गे को यह भी देखना होगा कि कांग्रेस पार्टी से अलग हुए नेता मसलन शरद पवार, ममता बनर्जी, जगनमोहन रेड्डी अपनी अलग पार्टियां बनाकर अपने राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब क्यों हैं ? क्या उन्हें दोबारा पार्टी में शामिल किया जा सकता है या नहीं ? अगर वे दोबारा पार्टी में शामिल नहीं हो सकते तो क्या उनके साथ किसी तरह का तालमेल और गठबंधन संभव है ?

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इसके अलावा कांग्रेस को यह स्वीकारना होगा कि देश भर में एक पार्टी का वर्चस्व होने के दिन लद गए. अब किसी भी राष्ट्रीय दल को समान विचारधारा वाले दलों से गठबंधन करना ही होगा. महाराष्ट्र में तो पार्टी मजबूरी में शिवसेना जैसे दल तक से चुनावी गठबंधन कर चुकी है. फिर उसे अन्य रीजनल दलों और वामपंथी दलों से तालमेल करने में क्या परेशानी है ?

ऐसा 2004 में यूपीए सरकार का गठन करते समय किया गया था.कुल मिलाकर,  मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए कांग्रेस अध्यक्ष का ताज एक कांटों भरा है और उनकी राह बहुत कठिन है.

( लेखक कांग्रेस पर खास नजर रखते हैं. बीबीसी में लंबे समय तक काम किया है.)