परमाणु ऊर्जा में निजी भागीदारी: भारत की ऊर्जा नीति में ऐतिहासिक मोड़

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 20-12-2025
Powering the future: A new direction for nuclear energy
Powering the future: A new direction for nuclear energy

 

"परमाणु ऊर्जा में महत्वपूर्ण वृद्धि के बिना दुनिया नेट-जीरो (शून्य कार्बन उत्सर्जन) का लक्ष्य हासिल नहीं कर सकती।"

— फातिह बिरोल

राजीव नारायण

दिल्ली की एक ठंडी शाम, जब न तो विरोध का शोर था और न ही किसी तरह की वैचारिक बहस, भारत ने अपने ऊर्जा भविष्य की दिशा ही बदल दी। संसद द्वारा नागरिक परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी भागीदारी की अनुमति देने वाला कानून पारित किया गया। यह कोई अचानक बदलाव नहीं था, बल्कि इस बात का संकेत था कि भारत आने वाले कठिन दशकों में अपनी ऊर्जा जरूरतों को लेकर नए सिरे से सोचने को तैयार है। न तो परमाणु शक्ति के गौरवगान वाले भाषण हुए, न ही किसी चमत्कारी बदलाव के बड़े-बड़े दावे किए गए।

यह क्षण शांत था, लेकिन इसका असर स्थायी है। आज़ादी के बाद पहली बार भारत ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि उसकी ऊर्जा चुनौतियों का पैमाना और जलवायु प्रतिबद्धताओं की तात्कालिकता ऐसी है, जिसे केवल सरकारी क्षमता के बल पर नहीं संभाला जा सकता। इसके लिए पूंजी, तकनीक और भरोसे के एक बड़े गठजोड़ की जरूरत है। भारत में परमाणु ऊर्जा हमेशा एक विशेष स्थान रखती रही है—वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता का प्रतीक, रणनीतिक ताकत और राष्ट्रीय गर्व का स्रोत। लेकिन ऊँची लागत, लंबा निर्माण समय और संस्थागत सावधानी ने इसके विस्तार को सीमित रखा। निजी निवेश को अनुमति देना इस विरासत को छोड़ना नहीं, बल्कि उसे बदलते भविष्य तक पहुँचाने की कोशिश है।

परमाणु ऊर्जा की ज़रूरत अभी क्यों

भारत की ऊर्जा चुनौती बेहद साफ़ है। बढ़ती आमदनी, फैलते शहरों और उद्योगों के विस्तार के साथ आने वाले वर्षों में बिजली की मांग दोगुनी से भी अधिक होने वाली है। साथ ही भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता कम करने और नेट ज़ीरो की दिशा में बढ़ने का वादा किया है। विकास और कार्बन कटौती—ये दोनों लक्ष्य तब तक टकराते रहेंगे, जब तक उन्हें भरोसेमंद, कम-कार्बन ऊर्जा का सहारा न मिले।

नवीकरणीय ऊर्जा ने तस्वीर बदल दी है। रेगिस्तानों में फैले सोलर पार्क, पहाड़ियों पर लगे पवन टरबाइन और तेज़ी से बढ़ती स्थापित क्षमता इसके प्रमाण हैं। लेकिन अपनी तमाम संभावनाओं के बावजूद नवीकरणीय ऊर्जा अनियमित है। बैटरी भंडारण और ग्रिड तकनीक में सुधार हो रहा है, फिर भी स्थिर बिजली आपूर्ति के लिए एक मजबूत आधार ज़रूरी है। यहीं परमाणु ऊर्जा की भूमिका सामने आती है—लगातार, आधारभूत बिजली, वह भी लगभग शून्य कार्बन उत्सर्जन के साथ।

दशकों से ऊर्जा योजनाकार इसे समझते रहे हैं, लेकिन विस्तार धीमा रहा। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, परमाणु ऊर्जा के बिना गहरी कार्बन कटौती “ज़्यादा कठिन, ज़्यादा महंगी और जोखिम भरी” होगी। भारत की परमाणु क्षमता उसकी महत्वाकांक्षाओं के मुकाबले अभी भी सीमित है। 2047 तक क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य इस बात की स्वीकारोक्ति है कि अब छोटे-छोटे कदम काफ़ी नहीं हैं।

निजी भागीदारी का अर्थ

निजी भागीदारी का मतलब परमाणु ऊर्जा का निजीकरण नहीं है। रणनीतिक नियंत्रण, नियमन और सुरक्षा पूरी तरह राज्य के पास ही रहेंगे। बदलाव सिर्फ़ इतना है कि पूंजी, परियोजना प्रबंधन और तकनीकी साझेदारी के नए स्रोत खुलेंगे। परमाणु परियोजनाओं में भारी निवेश और लंबी अवधि की ज़रूरत होती है। सार्वजनिक क्षेत्र की तकनीकी क्षमता के बावजूद वित्तीय सीमाएँ हैं। ऐसे में नियंत्रित और दिशा-निर्देशों से बंधी निजी पूंजी गति ला सकती है।

ऊर्जा नीति विशेषज्ञ कार्तिक गणेशन के अनुसार, “निजी क्षेत्र को बुलाना यह दिखाता है कि भारत परमाणु ऊर्जा को कोयले की जगह आधारभूत बिजली स्रोत के रूप में गंभीरता से लेना चाहता है।” यह कदम विचारधारा से ज़्यादा पैमाने और गति से जुड़ा है। दुनिया के अनुभव भी यही बताते हैं कि परमाणु क्षमता बढ़ाने वाले देशों ने सरकारी निगरानी और निजी क्रियान्वयन का संतुलन अपनाया है। भारत की चुनौती इन सबक़ों को अपनी व्यवस्था के अनुरूप ढालने की है—बिना सुरक्षा या संप्रभुता से समझौता किए।

संभावनाएँ और सावधानी

परमाणु ऊर्जा में गलती की गुंजाइश नहीं होती। सुधार जितना महत्वाकांक्षी होगा, उतनी ही सावधानी भी ज़रूरी है। लागत एक बड़ा सवाल है। परमाणु ऊर्जा पूंजी-प्रधान है और इसकी आर्थिक व्यवहार्यता लंबी अवधि और स्थिर दरों पर निर्भर करती है। अगर ढांचा सही न बना, तो बिजली महंगी हो सकती है। रेटिंग एजेंसी आईसीआरए ने भी चेतावनी दी है कि निवेश तभी आएगा और सस्ता रहेगा, जब टैरिफ और जोखिम का बँटवारा समझदारी से किया जाए।

सुरक्षा सर्वोपरि है। भारत का परमाणु सुरक्षा रिकॉर्ड मज़बूत रहा है और इसे और मजबूत करना होगा। नियामक संस्थाओं को स्वतंत्र, सक्षम और निडर होना होगा। स्थानीय समुदायों के साथ पारदर्शिता और संवाद भी बेहद ज़रूरी है। जैसे-जैसे स्वामित्व संरचना बदलेगी, सार्वजनिक हित की रक्षा में राज्य की भूमिका और स्पष्ट होनी चाहिए।

संस्थाएँ और भरोसा

असल में परमाणु ऊर्जा तकनीक से ज़्यादा संस्थाओं और भरोसे की परीक्षा है। रिएक्टर बनाए जा सकते हैं, लेकिन विश्वास अर्जित करना पड़ता है। भारत के पास वैज्ञानिक प्रतिभा और अनुभव है, लेकिन नियामक संस्थाओं को समय के साथ मज़बूत करना होगा। परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड जैसी संस्थाओं को सशक्त बनाना, पारदर्शिता बढ़ाना और मानव संसाधन में निवेश आवश्यक है।

साथ ही जनता से खुला संवाद भी ज़रूरी है। वर्षों की गोपनीयता ने डर और आशंकाएँ पैदा की हैं। तथ्यों पर आधारित, खुले संवाद से ही भरोसा बन सकता है। यह सुधार भारत को छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर जैसी नई तकनीकों में नेतृत्व का अवसर भी दे सकता है।

संतुलित ऊर्जा भविष्य

भारत का ऊर्जा संक्रमण किसी एक तकनीक से नहीं होगा। सौर, पवन, जलविद्युत, भंडारण, ऊर्जा दक्षता और परमाणु ऊर्जा सबको मिलकर काम करना होगा। परमाणु ऊर्जा का मक़सद नवीकरणीय स्रोतों की जगह लेना नहीं, बल्कि उन्हें स्थिर आधार देना है।

निजी भागीदारी अगर चरणबद्ध और समीक्षा के साथ आगे बढ़े, तो यह संतुलन मज़बूत कर सकती है। तेज़ी ज़रूरी है, लेकिन स्थिरता उससे भी ज़्यादा। हाल ही में मस्कट में हुए व्यापार समझौते की तरह यह सुधार भी बिना शोर-शराबे के आया, लेकिन इरादे के साथ।

परमाणु क्षेत्र को खोलकर भारत नियंत्रण नहीं छोड़ रहा, बल्कि अपनी क्षमता बढ़ा रहा है-संस्थागत, वित्तीय और वैचारिक। यह स्वीकार कर रहा है कि भविष्य की चुनौतियों को अतीत के औज़ारों से नहीं सुलझाया जा सकता। महत्वाकांक्षा और संयम, नवाचार और नियमन, निजी क्षमता और सार्वजनिक उद्देश्य इन्हीं के मेल से आगे का रास्ता निकलेगा।

परमाणु ऊर्जा धैर्य मांगती है। इसकी समय-सीमा लंबी है और जिम्मेदारी स्थायी। इस क्षेत्र को खोलकर भारत यह संदेश दे रहा है कि वह चुनावी चक्रों में नहीं, पीढ़ियों में सोच रहा है। जलवायु संकट और ऊर्जा अनिश्चितता के इस दौर में, यही दूरदृष्टि शायद सबसे बड़ी ऊर्जा है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और संचार विशेषज्ञ हैं।