ओवैस सक़लैन अहमद
जब सिंडी नगाम्बा पिछले साल पेरिस ओलंपिक में पोडियम पर पहुँचीं, तो उनके कंधों पर ऐसा बोझ था जिसे कोई पदक नहीं माप सकता। 25 वर्षीय कैमरून की मुक्केबाज़ के लिए न तो कोई राष्ट्रगान बजा, न कोई झंडा फहराया गया। वह रिफ्यूजी ओलंपिक टीम के लिए खेल रही थीं, क्योंकि अपने देश लौटना उनकी यौन पहचान के कारण उत्पीड़न को न्योता देना था।कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली शरणार्थी एथलीट बनने के बाद उन्होंने कहा:“मैं उन 12 करोड़ से ज़्यादा विस्थापित लोगों का प्रतिनिधित्व करती हूँ, जिनके सपने तो हैं, लेकिन अवसर नहीं।”

उस पल में उन्होंने हर उस प्रवासी की आवाज़ बनकर बात की,जो ऐसे शहर बनाता है जिनमें वह खुद रह नहीं सकता, जो दूसरों के बच्चों को पालता है जबकि उसके अपने सपने धूल खाते रहते हैं, जो फर्श साफ करता है लेकिन उसकी अपनी ज़िंदगी कभी चमक नहीं पाती।“ऐ हमारे रब! हमें और हमारे उन भाइयों को माफ़ कर दे जो हमसे पहले ईमान लाए, और हमारे दिलों में ईमान वालों के लिए कोई बैर न रख।”(क़ुरआन 59:10)
यह विस्थापन की कहानी नई नहीं है। चौदह सौ साल पहले, पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ को मक्का से जान के दुश्मनों से बचकर हिजरत करनी पड़ी। वह मदीना पहुँचे एक शरणार्थी के रूप में। वहाँ के निवासियों—अंसार—ने एक मिसाल कायम की। उन्होंने हर शरणार्थी को अपने घर और कारोबार में बराबर का साझेदार बनाया। यह दान नहीं था, बल्कि सच्ची साझेदारी थी।क़ुरआन ने उन लोगों की प्रशंसा की जिन्होंने “उन लोगों से मोहब्बत की जो उनके पास शरण लेने आए, और अपनी ज़रूरतों के बावजूद उन्हें प्राथमिकता दी।”
आज अगर आप मुंबई की सड़कों पर सुबह या दिल्ली में शाम को चलें, तो वही दृश्य दिखेगा। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, 45 करोड़ से अधिक आंतरिक प्रवासी गाँवों से शहरों की ओर गए—उन अवसरों की तलाश में जो घर पर नहीं मिले। इसमें बांग्लादेशी मज़दूर, नेपाली सुरक्षा गार्ड और अफ्रीकी व्यापारी भी शामिल हैं।संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, आज 28.1 करोड़ लोग अपने जन्म देश से बाहर रह रहे हैं। भारत न केवल लाखों लोगों को बाहर भेजता है, बल्कि उतने ही लोगों को अपनाता भी है।
मदीना में पैग़म्बर ﷺ का पहला संदेश बहुत व्यावहारिक था:“सलाम फैलाओ, लोगों को खाना खिलाओ, और जब लोग सो रहे हों तो इबादत करो।”यह उस समाज के निर्माण का नक्शा था, जहाँ अचानक बड़ी संख्या में विस्थापित लोग आ जाएँ।
आज की हक़ीक़त इससे बहुत अलग है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि प्रवासी मज़दूर,खासकर दुनिया भर की 1.15 करोड़ घरेलू कामगार महिलाएँ अक्सर पासपोर्ट ज़ब्त किए जाने, वेतन चोरी और उत्पीड़न का शिकार होती हैं।अंतरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन के अनुसार, पिछले साल यात्रा के दौरान 8,500 से ज़्यादा प्रवासियों की मौत हुई—अब तक की सबसे बड़ी संख्या। हर आँकड़े के पीछे किसी की बेटी है जो 16 घंटे काम करती है, किसी का बेटा है जिसे महीनों वेतन नहीं मिलता लेकिन वह जा भी नहीं सकता।

मदीना के संविधान में साफ़ लिखा था:“प्रवासियों के अधिकार वही हैं जो मेज़बानों के हैं।”क़ुरआन भी कहता है:“अगर कोई तुम्हारी शरण चाहता है, तो उसे शरण दो।” (9:6)I इसमें कोई शर्त नहीं, कोई बहाना नहीं।यह सिर्फ़ धार्मिक शिक्षा नहीं थी—यह ज़िंदगी में उतारी गई सच्चाई थी। लेकिन आज हम भूल गए हैं कि हमारे अपने पूर्वज भी कभी प्रवासी थे।आपके दादा शहर पढ़ने आए होंगे। आपकी बुआ ने किसी और राज्य में शादी की होगी। हम सब ऐसे लोगों की औलाद हैं जो कभी डर और उम्मीद के साथ कहीं नए पहुँचे थे।
रिफ्यूजी ओलंपिक टीम 2016 में रियो में 10 खिलाड़ियों से बढ़कर 2024 में पेरिस में 37 खिलाड़ियों तक पहुँच गई। सीरियाई जुडो खिलाड़ी मूना दाहूक, अफ़ग़ान साइक्लिस्ट मसूमाह अली ज़ादा और सिंडी नगाम्बा ने साबित किया कि विस्थापन सपनों को खत्म नहीं करता,कभी-कभी उन्हें और तेज़ कर देता है।
पैग़म्बर ﷺ ने कहा:“इस दुनिया में ऐसे रहो जैसे तुम मुसाफ़िर या अजनबी हो।”इसका मतलब यह भी है कि किसी और को अपने बीच अजनबी महसूस न होने दें, क्योंकि हम सब इस धरती पर अस्थायी मेहमान हैं।जिस मज़दूर ने आपका घर बनाया, वह शायद उसमें रह नहीं सकता।जो महिला सुबह 5 बजे दफ़्तर साफ करती है, वह हफ्तों अपने घर की सफ़ाई नहीं देख पाती।
जो डिलीवरी बॉय भागता है, वह अपने बच्चे के पहले कदम मिस कर सकता है।उन्हें दया नहीं चाहिए,सिर्फ़ इंसाफ़ चाहिए।अच्छी शिक्षा, सम्मानजनक जीवन और बिना डर घर जाने-आने का हक़।इस अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस पर सवाल सीधा है:
हमने सुरक्षा गार्ड को किसी का पिता समझना कब छोड़ दिया ?“आप कहाँ से हैं?” सवाल कब जिज्ञासा की जगह शक बन गया?
अंसार ने मुहाजिरों को सिर्फ़ सहन नहीं किया,उन्होंने अपना घर और दौलत बाँटी। इसलिए नहीं कि उनके पास ज़्यादा था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने अजनबियों में खुद को देखा।अजनबी बस वह परिवार होते हैं, जिनसे हम अभी मिले नहीं हैं।

तो आज शायद अपने बिल्डिंग के गार्ड का नाम जानिए।अपनी घरेलू सहायिका से उसके सपनों के बारे में पूछिए।डिलीवरी करने वाले को थोड़ा ज़्यादा टिप दीजिए।छोटे काम हैं, हाँ,लेकिन बदलाव हमेशा देखने से शुरू होता है।कड़वी सच्चाई यह है कि हम सब समय के प्रवासी हैं, चाहे जगह न बदली हो।आज का निवासी कल का नया आने वाला था।जो व्यवस्था आज हमें बचाती है, वही कल हमें बाहर भी कर सकती है।
सवाल यह नहीं है कि क्या हम दुनिया के 28 करोड़ प्रवासियों के लिए दयालु हो सकते हैं।सवाल यह है कि क्या हम बिना दया के ज़िंदा रह सकते हैं?