समीर दि. शेख
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इथोपिया दौरा पूरा हुआ। इस दौरे में उन्हें इथोपिया के सबसे बड़े सम्मान 'ग्रेट ऑनर निशान' से नवाज़ा गया। इस मौक़े पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने एक ऐतिहासिक याद ताज़ा की। उन्होंने कहा, "भारत और इथोपिया के रिश्ते आज के नहीं, बल्कि पूरे 2,000 साल पुराने हैं।"
भारत और इथोपिया के बीच इस 2,000 साल पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ते की सबसे चमकदार और अहम कड़ी अगर कोई है, तो वो हैं— मलिक अंबर। एक ऐसा इंसान जो इथोपिया में ग़ुलाम बनकर पैदा हुआ, लेकिन अपनी क़ाबिलियत से दक्कन का 'बेताज बादशाह' बन गया। जिसने मुग़लों की ताक़तवर सत्ता को धूल चटा दी और जिनसे आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज्य के लिए प्रेरणा ली।

ग़ुलामी की जंजीरों से सेनापति बनने तक का सफ़र
मलिक अंबर का जन्म 1540 के आस-पास इथोपिया के 'ओरोमो' क़बीले में हुआ था। उनका असली नाम 'चापू' था। बचपन में ही उन्हें पकड़कर ग़ुलामों के बाज़ार में बेच दिया गया। अरब व्यापारियों के ज़रिए बगदाद और वहां से भारत तक का उनका सफ़र हुआ। क़िस्मत उन्हें अहमदनगर की निज़ामशाही में ले आई। वहां के पेशवा ने मलिक अंबर को ख़रीद लिया। मालिक की मौत के बाद मलिक अंबर को आज़ादी मिली, लेकिन वे सिर्फ़ अपनी आज़ादी पाकर नहीं रुके, बल्कि उन्होंने अपने हुनर से 7,000 सैनिकों की फ़ौज खड़ी कर दी।
मलिक अंबर और भोसले ख़ानदान का रिश्ता
मलिक अंबर की कामयाबी में मराठा सरदारों का बड़ा हाथ था। मलिक अंबर के सबसे भरोसेमंद और दाहिने हाथ थे छत्रपति शिवाजी महाराज के दादा मालोजी राजे भोसले। मलिक अंबर ने मालोजी राजे की बहादुरी को पहचाना और उन्हें पुणे और सुपे जैसे अहम इलाक़ों की जागीर दी। यही वह ज़मीन थी, जहां आगे चलकर स्वराज्य का पौधा लगाया गया। बाद के दौर में शहाजी राजे भोसले ने भी मलिक अंबर की देखरेख में कई जंगे लड़ीं। 1624 की 'भातावाड़ी की जंग' में जब मुग़ल और बीजापुर की आदिलशाही ने एक साथ मिलकर अहमदनगर पर हमला किया, तो मलिक अंबर और शहाजी राजे ने मिलकर उनके छक्के छुड़ा दिए थे।
मराठा साम्राज्य की नींव रखने में बजाई उत्प्रेरक की भूमिका
मराठा साम्राज्य को खड़ा करने में मलिक अंबर का स्थान कितना अहम है, इस पर ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता वरिष्ठ लेखक भालचंद्र नेमाडे के विचार बहुत गहरे हैं। नेमाडे कहते हैं, "मराठा साम्राज्य की स्थापना किसने की, अगर यह देखें तो हम ज़्यादा से ज़्यादा शहाजी तक जाते हैं। शहाजी के पीछे जाना हमें गवारा नहीं होता। लेकिन शहाजी से पहले मराठा साम्राज्य का असली निर्माता मलिक अंबर है। मलिक अंबर ने ही सबसे पहले मराठों को राष्ट्रीयता का अहसास दिलाया। उत्तर भारत के मुग़लों के ख़िलाफ़ दक्कनी मराठों को एक किया, 'गनिमी कावा' (गुरिला युद्ध) को पहली बार कामयाबी से इस्तेमाल किया। शहाजी राजे जैसे सरदार तैयार किए।
आपस में लड़ने वाले सभी दक्कनी मराठों को एक झंडे के नीचे लाने वाले मलिक अंबर को क्या महाराष्ट्र की अपनी संस्कृति का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए?"नेमाडे के इस बयान ने इतिहास के जानकारों में खलबली मचा दी थी, लेकिन इससे यह सच सामने आया कि मलिक अंबर ने बिखरी हुई मराठा ताक़त को एक मक़सद के लिए इकट्ठा किया था।
छत्रपति शिवाजी महाराज भी करते थे आदर
मलिक अंबर के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के दिल में कितना सम्मान था, इसका सबसे बड़ा सबूत 1670 के दशक में मिलता है। जब शिवराय ने कवींद्र परमानंद को 'शिवभारत' महाकाव्य लिखने का आदेश दिया, तो उसमें इस मरहूम मुस्लिम योद्धा मलिक अंबर की जमकर तारीफ़ की गई।
'शिवभारत' में एक जंग का ज़िक्र करते हुए कवि कहते हैं, "जिस तरह कार्तिकेय ने तारकासुर के साथ युद्ध में देवताओं की रक्षा की थी, उसी तरह शहाजी राजे और दूसरे राजा मलिक अंबर के आस-पास जमा हुए थे।" शिवराय के कवि ने मलिक अंबर को 'सूरज जैसा पराक्रमी', 'बेहिसाब ताक़त का स्वामी' और 'जिसे देखकर दुश्मन थर-थर कांपते हैं' जैसे शब्दों में बयान किया है। मरने के बाद भी 'तेजस्वी डूबते सूरज' जैसा महसूस होने वाला यह महा-पराक्रमी योद्धा असल में अफ़्रीका में जन्मा एक ग़ुलाम था, यह अपने आप में ख़ास बात है।
गनिमी कावा (गुरिल्ला वॉर) के जनक
छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज्य बनाने में गनिमी कावा (गुरिल्ला वॉर) का बहुत असरदार इस्तेमाल किया। ख़ास बात यह है कि मुग़लों की विशाल फ़ौज को हराने के लिए छोटी टुकड़ियों के ज़रिए पहाड़ी इलाक़ों में अचानक हमला करने का यह तरीक़ा मलिक अंबर ने ही सबसे पहले असरदार ढंग से इस्तेमाल किया था। उस वक़्त इसे 'बर्गीगिरी' कहा जाता था।
औरंगाबाद की जगह अंबराबाद की सोच
महान इतिहासकार शरद पाटिल ने भी मलिक अंबर के योगदान पर बड़ी बात कही थी। मलिक अंबर पर किताब लिखते हुए उन्होंने एक दशक पहले एक साहसी विचार रखा था। औरंगाबाद का नाम बदलने की चर्चा के दौरान शरद पाटिल ने सुझाव दिया था कि अगर औरंगाबाद का नाम बदलना ही है, तो इसे इस शहर के असली संस्थापक मलिक अंबर की याद में 'अंबराबाद' कर देना चाहिए। मलिक अंबर ने ही इस शहर (तब खडकी) की नींव रखी थी और वहां पानी की नहरें (नहर-ए-अंबरी) बनाकर शहर को आबाद किया था।
मुग़लों का सिरदर्द: जहांगीर का वह ग़ुस्सा
मुग़ल बादशाह जहांगीर मलिक अंबर से इतना चिढ़ता था कि उसने अपने दरबारी चित्रकार से एक काल्पनिक पेंटिंग बनवाई थी। उस मशहूर पेंटिंग में जहांगीर को मलिक अंबर के कटे हुए सिर पर तीर मारते हुए दिखाया गया है। हक़ीक़त में जहांगीर मलिक अंबर को कभी हरा नहीं पाया, इसलिए उसने तस्वीर के ज़रिए अपना ग़ुस्सा निकाला। यही मलिक अंबर की बहादुरी का सबसे बड़ा सबूत था।
एक महान विरासत की याद
14 मई 1626 को 78 साल की उम्र में मलिक अंबर का इंतकाल हुआ। आज भी उनके वंशज अहमदनगर ज़िले में रहते हैं और उन्हें हाल तक सिंधिया घराने से पेंशन भी मिलती थी।मलिक अंबर ने महाराष्ट्र को युद्धनीति तो दी ही, साथ ही ज़मीन के लगान (रेवेन्यू) की व्यवस्था की नींव भी रखी। इसका बड़ा फ़ायदा आगे चलकर आम जनता को हुआ।
परायी ज़मीन पर ग़ुलाम बनकर आए एक इंसान का वहां के लोगों में घुल-मिल जाना और साम्राज्य के सबसे बड़े पद तक पहुंचना दुनिया के इतिहास में बेमिसाल है।प्रधानमंत्री मोदी इथोपिया से दोस्ती का नया दौर शुरू कर रहे हैं। ऐसे वक़्त में इन दो देशों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों की अहम कड़ी रहे मलिक अंबर और उनके कारनामों को याद करना ज़रूरी है।
(लेखक आवाज़-द वायस मराठी के संपादक हैं।)