यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में मुसलमानों के पिछड़ने का मतलब

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 05-06-2023
यूपीएससी
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बात तीन साल पहले की है. दिल्ली के एक चैनल ने पूरे हंगामे के साथ एक खबर दिखाई जो यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन यानी यूपीएससी की आईएएस परीक्षा की तैयारी के लिए विशेष कोचिंग ले रहे मुस्लिम छात्रों पर थी. चैनल ने इसे यूपीएससी जिहाद कहा. इसे लेकर तमाम तरह के ऊल-जुलूल तर्क भी पेश किए. इसके साथ ही जो बातें कही गईं वे नफरत पैदा करने वाली थीं.

यह कार्यक्रम किसी भी तरह से बर्दाश्त के काबिल नहीं था. लोगों की आपत्तियों के चलते यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया, जहां  केंद्र सरकार ने भी स्वीकार किया कि यह प्रोग्राम निहायत ही आपत्तिजनक है.
 
सरकार ने अदालत को इसके खिलाफ कार्रवाई का भरोसा भी दिया. कार्रवाई क्या हुई यह पता नहीं, लेकिन उस चैनल के वेबसाइट से यूपीएससी जेहाद वाली सामग्री को पूरी तरह हटा लिया गया.
 
तीन साल पहले के उस कार्यक्रम की याद इस महीने तब आई जब यूपीएससी ने आईएएस की फाइनल परीक्षा के नतीजे जारी किए. इस बार जो 933 लोग आईएएस की अंतिम परीक्षा में चुने गए. उनमें 29 मुस्लिम हैं. यानी यह संख्या तीन फीसदी के आस-पास बैठती है.
 
यह अपने आप में चिंता की बात तो है , लेकिन अगर हम इसकी तुलना पिछले कुछ साल के नतीजों से करें तो चिंता और बढ़ जाती है. अगर हम साल 2019 के नतीजों को देखें तो 5.3 फीसदी मुस्लिम नौजवान आईएएस बनने की दौड़ में चुने गए थे, लेकिन अगले ही साल यह आंकड़ा गिरकर 4.07 फीसदी पर आ गया.
 
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गिरावट यहीं नहीं रुकी और साल 2021 में 3.64 फीसदी मुस्लिम आईएएस बनने वाले नौजवानों की फेहरिस्त में शामिल दिखाई दिए.इस बार यह आंकड़ा 3.1 फीसदी पर आ गया.ये आंकड़े बताते हैं कि आईएएस बनने वाले मुस्लिम नौजवानों की संख्या जो पहले ही काफी कम थी, वह लगातार और कम हो रही है.
 
इसके कारण जानने का काम  समाजशास्त्रियों पर छोड़ देते हैं, लेकिन अगर किसी स्पर्धी परीक्षा में किसी समुदाय के लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है तो यह पूरे देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए. इसका सीधा सा अर्थ  है कि प्रगति की दौड़ में इस समुदाय के लोग लगातार पिछड़ते जा रहे हैं.
 
इसका एक ही इलाज है, इस समुदाय के नौजवानों को इस महत्वपूर्ण परीक्षा के लिए तैयार करने के विशेष प्रयास किए जाएं. उनके लिए कोचिंग वगैरह की व्यवस्था की जाए ताकि वे इस मुकाबले में बाकी नौजवानों के बराबर आ सकें.
 
दरअसल, भारतीय ज़कात फाउंडेशन यही कोशिश कर रहा था. इसके लिए उसने कई जगह कोचिंग शुरू की थी. इसको लेकर टीवी चैनल ने बतंगड़ बना दिया था.ताजा नतीजे देख कर लगता है कि ज़कात फाउंडेशन जो कर रहा है उतना भर ही काफी नहीं है.
 
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सिविल सोसायटी संगठनों और एनजीओ को ऐसी और बहुत सी कोशिशें करनी होंगी. पूरे देश में जगह जगह ऐसी कोचिंग की जरूरत है.सिर्फ आईएएस ही नहीं और स्पर्धी प्रतियोगिता के लिए भी इस तरह की कोशिशें होनी चाहिए. 
 
इस समय जिस तरह से नफरत फैलाने की कोशिश हो रही हैं, उनमें यह काम कठिन है, लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है. नफरत तो आज है कल खत्म भी हो सकती है, लेकिन जो पिछड़ापन आ रहा है, उससे पीछा छुड़ाने में लंबा वक्त लग सकता है.  
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )