आतंकवादियों का पनाहगाह बनाना बड़ी भूल होगी

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 25-08-2021
आतंकवादियों का पनाहगाह बनाना बड़ी भूल होगी
आतंकवादियों का पनाहगाह बनाना बड़ी भूल होगी

 

qurbanकुरबान अली

अफगानिस्तान पर दोबारा नियंत्रण हासिल करने के बाद मंगलवार 17 अगस्त 2021 की देर शाम तालिबान का पहला संवाददाता सम्मेलन काबुल में हुआ. तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने स्थानीय भाषा में मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

हम यह तय करेंगे कि अफगानिस्तान अब संघर्ष का मैदान नहीं रह गया है. हमने उन सभी को माफ कर दिया है जिन्होंने हमारे खिलाफ लड़ाइयां लड़ीं. अब हमारी दुश्मनी खत्म हो गई है. हम शरिया व्यवस्था के तहत महिलाओं के हक तय करने को प्रतिबद्ध हैं. महिलाएं हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने जा रही हैं.‘‘

प्रेस कॉन्फ्रेंस में तालिबान ने अपना वह ‘उदार‘ चेहरा दिखाया जो 1996-2001 वाले तालिबान से बिल्कुल अलग था,लेकिन इन दोनों के बीच तालिबान का एक तीसरा चेहरा भी है. यानी आज का तालिबान.

टीवी कैमरे के सामने वह बात तो महिलाओं को काम करने की छूट और बदला न लेने की कर रहा है, लेकिन जमीन पर वो स्थिति दिखाई नहीं पड़ती. इसलिए सवाल यह है कि क्या 2021 का तालिबान 1996 वाले तालिबान से काफी अलग है ? क्या ये महज एक दिखावा है या कुछ और ?

इस बीच अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सबसे पहले तालिबान का समर्थन करने वाले देश चीन ने तालिबान को इस बात के लिए आगाह किया कि वह अफगानिस्तान को एक बार फिर से आतंकवादियों के लिए ‘पनाहगाह‘ नहीं बनने दे.

संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रतिनिधि गेंग शुआंग ने  अफगानिस्तान में स्थिति पर सुरक्षा परिषद की आपात बैठक के दौरान यह टिप्पणी की. गेंग ने भारत की अध्यक्षता में हुई बैठक में कहा, ‘‘अफगानिस्तान को आतंकवादियों के लिए फिर से पनाहगाह नहीं बनना चाहिए.

अफगानिस्तान में भविष्य के किसी भी राजनीतिक समाधान के लिए यह एक शर्त है. हम उम्मीद करते हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरी ईमानदारी से निभाएगा. आतंकवादी संगठनों से संबंध नहीं रखेगा.’’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि, ‘‘सभी देशों को अंतरराष्ट्रीय कानून और सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के अनुसार, अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए.

आतंकवाद को उसके सभी रूपों में हराने के लिए एक-दूसरे के साथ काम करना चाहिए. अफगानिस्तान में इस अराजकता में इस्लामिक स्टेट, अल-कायदा और ईटीआईएम जैसे आतंकवादी संगठनों को फायदा उठाने से रोकने के लिए दृढ़ कदम उठाने चाहिए.

साथ ही सभी अफगान दलों को अपनी एकजुटता को मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और एक नया व्यापक एवं समावेशी राजनीतिक ढांचा स्थापित करना चाहिए जो अफगानिस्तान की राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुकूल हो और अफगानिस्तान के नागरिकों द्वारा समर्थित हो. हमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अफगानिस्तान का समर्थन करना चाहिए. अफगानिस्तान को फिर से आतंकवाद का एक नया अड्डा नहीं बनने देना चाहिए.’’

उल्लेखनीय है कि तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में तालिबान राजनीतिक आयोग के एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने पिछले महीने चीन का दौरा किया था. इस प्रतिनिधिमंडल ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत के दौरान वायदा किया था कि शिनजियांग के उइगर समुदाय के आतंकवादी समूह को अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

हाल में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) से जुड़े सैकड़ों आतंकवादी तालिबान की गतिविधियों के बीच अफगानिस्तान में एकत्र हो रहे हैं. चीन इसी बात को लेकर चिंतित है.

वहीं, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान के प्रभावशाली होने के बाद ये जरूरी है कि इस्लामी  आतंकवादियों को दूर रखा जाए.रूसी राष्ट्रपति ने सोमवार 23 अगस्त को मध्य एशियाई देशों के सैन्य संगठन सीएसओ के एक शिखर सम्मेलन में ये बात कही.

ये आपात बैठक अफगानिस्तान की स्थिति पर चर्चा के लिए बुलाई गई थी जिसमें रूस के अलावा ताजिकिस्तान, आर्मेनिया, बेलारूस, कजाकिस्तान और किर्गिस्तान के नेताओं ने हिस्सा लिया. रूस सरकार के एक प्रवक्ता के अनुसार, सभी छह सदस्यों ने अफगानिस्तान की स्थिति पर गहरी चिंता जताई और कहा, कि ये जरूरी है कि चरमपंथी इस्लामी तत्वों को अपने इलाके में घुसपैठ करने से दूर रखा जाए.

रूसी राष्ट्रपति ने खास तौर पर इस्लामिक स्टेट को लेकर चिंता जताई जो अफगानिस्तान में मजबूती से बने रहे हैं. ये एक खतरनाक स्थिति है जिससे सीएसटीओ के इलाके को खतरा है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने यह भी कहा कि अभी ये जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र, सुरक्षा परिषद और जी-20 देश आपस में तालमेल कर अफगानिस्तान के संकट का समाधान निकालें.

कूटनीतिक मामलों के जानकार कहते हैं कि अमेरिका पर 9 / 11 को हुए आतंकवादी हमले के बाद दुनिया का आतंकवाद के प्रति नजरिया बदल गया है और उसके सहने की क्षमता भी कम हुई है.

1996 से 2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबान के पास कोई शासन करने का मॉडल नहीं था. लेकिन 9 / 11 की घटना के बाद अफगानिस्तान में जो हो रहा है उस पर अब दुनिया की भी नजरें टिकी हैं.

अमेरिका की फंडिंग अब बंद हो गई है. काबुल पर भले ही तालिबान का कब्जा हो गया हो, लेकिन तालिबान अमेरिका की ताकत को आज भी कम नहीं आंकना है. वो जानता है कि उनके (अमेरिका के) एक इशारे पर अंतरराष्ट्रीय मत किस तरह से उसके खिलाफ प्रभावित हो सकता है.

ऐसे में अफगानिस्तान में सरकार और शासन चलाने के लिए तालिबान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता चाहिए होगी और उसके लिए तालिबान को कुछ करके दिखाना होगा.

दूसरी ओर, अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद वहां पैदा हुए संकट के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि तालिबान को एक मूलभूत फैसला करना होगा. ‘‘क्या तालिबान एकजुट होने की कोशिश और अफगान लोगों का कल्याण करेगा, जो किसी समूह ने अभी तक नहीं किया है ?

यदि वह ऐसा करता है, तो उसे आर्थिक सहायता, व्यापार समेत अतिरिक्त मदद चाहिए होगी. तालिबान ने ऐसा कहा है. हम देखेंगे कि वह वास्तव में ऐसा करता है या नहीं. वे अन्य देशों की मान्यता चाहते हैं. उन्होंने हमें और अन्य देशों से कहा है कि वे नहीं चाहते कि हम अपनी राजनयिक मौजूदगी पूरी तरह समाप्त करें.

फिलहाल ये केवल बातें हैं और उनपर अमल होते हुए दिखना चाहिए.‘‘ बाइडन ने कहा कि उनकी प्राथमिकता अफगानिस्तान से जल्द से जल्द और सुरक्षित तरीके से अमेरिकी नागरिकों को बाहर निकालना है.

वहीं तालिबान ने अमेरिका से कहा है कि अगर 31 अगस्त तक उसने अपने सैनिक अफगानिस्तान से वापस नहीं बुलाए तो नतीजे अच्छे नहीं होंग. तालिबान की धमकी पर अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि 31 अगस्त के बाद अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान में रुकने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

अफगानिस्तान पर तालिबान के इस नए शासन के कुछ दिन (कम से कम छह महीने) गुजर जाने के बाद ही उसके बारे में पुख्ता तौर पर कुछ कहा जा सकता है, क्यूंकि कि पहले उन्हें सत्ता संभालनी है.

फिर उनका नेता कौन चुना जाता है. यह देखना होगा और सरकार कैसे काम करती है यह सब भी देखने वाली बात होगी.तभी उसके बारे में कोई राय कायम की जा सकती है. इसके अलावा अमेरिका विरोधी देशों को यह भी सोचना होगा कि तालिबान सरकार को जल्द मान्यता देने के चक्कर में कहीं वह उसी तरह का खेल तो नहीं खेल रहे हैं जैसा अमेरिका ने 80 के दशक में सोवियत रूस विरोधी मुजाहिदीन का समर्थन करके खेला था और जिसके नतीजे में अल कायदा और ओसामा बिन लादेन की उत्पत्ति हुई थी ?


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. बीबीसी में रहते अफगान और इराक युद्ध कवर कर चुके हैं.)