डी-रेडिकलाइजेशन में मदरसा शिक्षकों की निर्णायक भूमिका

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 04-12-2025
Madrasa teachers play a crucial role in de-radicalisation
Madrasa teachers play a crucial role in de-radicalisation

 

 अब्दुल्लाह मंसूर

इक्कीसवीं सदी के जटिल भू-राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में, कट्टरपंथ और हिंसक उग्रवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर और संवेदनशील चुनौतियों में से एक बनकर उभरे हैं। जब भी आतंकवाद या धार्मिक कट्टरपंथ की चर्चा होती है, तो वैश्विक विमर्श की सुई अक्सर मदरसों पर आकर अटक जाती है। 9/11के बाद से बने भय और संदेह के माहौल ने मदरसों को सुरक्षा एजेंसियों के रडार पर ला खड़ा किया है। मीडिया और सुरक्षा विमर्श में उन्हें अक्सर 'कट्टरपंथ की नर्सरी' या पुरातनपंथी सोच का केंद्र माना जाता है।

लेकिन, अगर हम पूर्वाग्रहों के चश्मे को उतारकर भारत की जमीनी हकीकत, हमारी गंगा-जमुनी तहजीब और उपलब्ध शोध का निष्पक्ष विश्लेषण करें, तो एक बिल्कुल अलग और विरोधाभासी तस्वीर सामने आती है। वह हकीकत यह है कि विचारधाराओं के इस युद्ध में मदरसा शिक्षक समस्या नहीं, बल्कि सबसे प्रभावी और टिकाऊ समाधान हैं। सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस और खुफिया विभाग केवल हिंसा की घटनाओं (Symptoms) को रोक सकते हैं, लेकिन विचारधारा (Root Cause) के युद्ध में जीत केवल एक ज्ञानी शिक्षक ही दिला सकता है।

भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में, जहाँ लाखों मुस्लिम युवा विशेषकर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों से अपनी बुनियादी शिक्षा और नैतिक आधार मदरसों से प्राप्त करते हैं, वहाँ शिक्षकों की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता।

हमें यह समझना होगा कि कट्टरपंथ कोई एक रात में घटित होने वाली घटना नहीं है; यह एक धीमी और सतत मानसिक प्रक्रिया (Brainwashing) है। यह एक ऐसी विषाक्त यात्रा है जिसमें एक युवा को धीरे-धीरे यह विश्वास दिलाया जाता है कि उसका धर्म खतरे में है, और हिंसा ही न्याय पाने का एकमात्र रास्ता है।

इस प्रक्रिया को तोड़ने की क्षमता अगर किसी के पास है, तो वह केवल एक पारंपरिक मदरसा शिक्षक या 'उलेमा' के पास है। यह लेख विश्लेषण करता है कि कैसे मदरसा शिक्षक अपनी पारंपरिक भूमिका से आगे बढ़कर हमारे समाज में शांति के प्रहरी, सांस्कृतिक अनुवादक और मनोवैज्ञानिक रक्षक की भूमिका निभा सकते हैं।

धार्मिक वैधता और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा

कट्टरपंथ और आतंकवाद की समस्या की जड़ में एक 'विकृत धर्मशास्त्र' (Distorted Theology) होता है। आईएसआईएस या अल-कायदा जैसे संगठन कुरान की आयतों और हदीसों को उनके ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ से काटकर पेश करते हैं।

वे 'जिहाद' जैसे पवित्र शब्दों को 'हिंसा' का पर्याय बना देते हैं। इस स्तर पर, राज्य की पुलिस, सेना, या यहाँ तक कि आधुनिक शिक्षा देने वाले कॉलेज के प्रोफेसर भी लाचार हो जाते हैं। एक पुलिस अधिकारी कानून का भय दिखा सकता है, लेकिन वह उस युवा के दिमाग से यह विचार नहीं निकाल सकता कि वह जो कर रहा है वह 'पुण्य'का काम है।

यही वह बिंदु है जहाँ मदरसा शिक्षक की भूमिका निर्णायक हो जाती है। एक 'आलिम' के पास वह 'धार्मिक वैधता' होती है जो किसी और के पास नहीं है। जब शिक्षक कुरान और हदीस के तर्कों के साथ यह समझाता है कि इस्लाम में 'फसाद' सबसे बड़ा गुनाह है और निर्दोष की हत्या पूरी मानवता की हत्या है, तो उसका प्रभाव गहरा और स्थायी होता है। शिक्षक छात्रों को समझाते हैं कि 'जिहाद' का वास्तविक अर्थ निर्दोष लोगों का खून बहाना नहीं, बल्कि 'जिहाद-ए-अकबर' यानी अपनी आंतरिक बुराइयों और अहंकार से लड़ना है।

कट्टरपंथ की प्रक्रिया में 'अलगाव', 'पहचान का संकट' और 'पीड़ित होने का भाव' ईंधन का काम करते हैं। कई बार मदरसा छात्रों को लगता है कि वे मुख्यधारा के समाज से कटे हुए हैं और सिस्टम उनके खिलाफ है। यहाँ मदरसा शिक्षक एक 'पुल' का काम करते हैं जो 'दीन' और 'वतन' को जोड़ता है।

वे 'सांस्कृतिक अनुवादक' की भूमिका निभाते हैं, यह समझाते हुए कि भारतीय संविधान इस्लाम विरोधी नहीं है। पैगंबर के जीवन से 'मीसाक-ए-मदीना' का उदाहरण देकर शिक्षक यह स्थापित करते हैं कि एक बहु-धार्मिक समाज में अन्य समुदायों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व इस्लाम की मूल शिक्षा है।

इसके अतिरिक्त, मदरसों की आवासीय व्यवस्था शिक्षकों को एक अद्वितीय स्थिति में रखती है। वे छात्रों के व्यवहार में आने वाले किसी भी सूक्ष्म बदलाव को जैसे अचानक चुप हो जाना या उग्र हो जाना या संदिग्ध साहित्य पढ़ना आदि तुरंत पहचान सकते हैं। यह एक प्रकार का अत्यंत प्रभावी मानवीय 'अर्ली वार्निंग सिस्टम' है, जहाँ एक संवेदनशील शिक्षक छात्र को पुलिस को सौंपने के बजाय, 'सॉफ्ट इंटरवेंशन' के जरिए उसे मुख्यधारा में वापस ला सकता है।

एक उदाहरण से मैं आपको समझाने की कोशिश करता हूं इंडोनेशिया में कट्टरपंथ की रोकथाम के लिए शिक्षा और राष्ट्रवाद के सफल समन्वय किया गया। इस मॉडल में डंडे या सख्ती के जोर पर नहीं, बल्कि प्यार से बच्चों की सोच को सही दिशा दी जाती है।

मदरसे में हर रोज पढ़ाई शुरू करने से पहले राष्ट्रगान 'इंडोनेशिया राया' और देशभक्ति गीत 'हुब्बुल वतन' गाया जाता है। ऐसा करने से छात्रों के दिल और दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि इस्लाम और देशप्रेम अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक सच्चा मुसलमान अपने देश से भी प्यार करता है।

इसके साथ ही, शिक्षक बच्चों को पाँच पक्की बातें सिखाते हैं: दूसरों की इज्जत करना, धर्म में 'बीच का रास्ता'(Wasatiyyah) अपनाना (यानी अतिवादी न होना), ईश्वर को हमेशा याद रखना, दूसरों के लिए सहनशीलता रखना और सबके साथ इंसाफ करना। खास तौर पर उन्हें सिखाया जाता है कि इस्लाम में हद से ज्यादा सख्ती या कट्टरता पूरी तरह मना है और अलग-अलग विचारों का सम्मान करना ही सच्चा इस्लाम है। यह उदाहरण साबित करता है कि जब शिक्षक खुद अच्छे इंसान (रोल मॉडल) बनकर बच्चों को सही धर्म और देशप्रेम का पाठ एक साथ पढ़ाते हैं, तो नई पीढ़ी अपने आप गलत रास्तों और कट्टरपंथ से दूर हो जाती है।   

शिक्षक सशक्तिकरण एवं उज्ज्वल भविष्य

यद्यपि मदरसा शिक्षक डी-रेडिकलाइजेशन की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वर्तमान में वे स्वयं 'विश्वास की कमी' और 'संसाधनों के अभाव' से जूझ रहे हैं। समाज का एक बड़ा वर्ग उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है, जिससे उनका आत्म-सम्मान आहत होता है। दूसरी तरफ, मदरसा आधुनिकीकरण की सरकारी योजनाएं कार्यान्वयन के स्तर पर लड़खड़ा रही हैं।

जब विज्ञान और गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों को सालों तक वेतन नहीं मिलता, तो छात्रों के सामने यह संदेश जाता है कि आधुनिक शिक्षा का कोई भविष्य नहीं है। इसलिए, डी-रेडिकलाइजेशन की सफलता के लिए यह अनिवार्य है कि हम मदरसा शिक्षकों को सशक्त बनाएं।

उन्हें केवल 'संदिग्ध' के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में 'साझेदार' के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकार और प्रशासन को उलेमा के साथ निरंतर संवाद स्थापित करना चाहिए ताकि अविश्वास की खाई को पाटा जा सके। साथ ही, शिक्षकों को डिजिटल साक्षरता और आधुनिक परामर्श कौशल में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे 'साइबर-रेडिकलाइजेशन' का मुकाबला कर सकें।

हमें यह स्वीकार करना होगा कि मदरसे की चारदीवारी के भीतर, शिक्षक की आवाज सबसे बुलंद होती है। कोई भी बाहरी शोर या प्रोपेगेंडा उस आवाज को नहीं दबा सकता। अगर हम भारत को कट्टरपंथ और उग्रवाद से सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो हमें मदरसों को बंद करने या उन्हें सीमित करने की वकालत करने के बजाय, उनके शिक्षकों को बौद्धिक और सामाजिक रूप से मजबूत करना होगा।

मदरसा शिक्षक उस 'वैचारिक टीका' (Ideological Vaccine) के वाहक हैं जो हमारी भावी पीढ़ी को नफरत के वायरस से बचा सकते हैं। जब एक मदरसा शिक्षक अपनी कक्षा में खड़े होकर कहता है कि "एक सच्चा मुसलमान वही है जिसके हाथ और जुबान से दूसरे इंसान सुरक्षित रहें," तो वह देश की आंतरिक सुरक्षा में उतना ही बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान दे रहा होता है जितना सीमा पर खड़ा एक सैनिक अपनी बंदूक के साथ देता है। शिक्षक ही वह धुरी हैं जिस पर हमारे समाज का शांतिपूर्ण भविष्य टिका हुआ है।

(अब्दुल्लाह मंसूर,  लेखक और पसमांदा बुद्धिजीवी हैं। वे 'पसमांदा दृष्टिकोण' से लिखते हैं)