देस-परदेश : पश्चिम-एशिया कॉरिडोर में होगी पश्चिमी-प्रतिबद्धता की परीक्षा

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 11-09-2023
देस-परदेश : पश्चिम-एशिया कॉरिडोर में होगी पश्चिमी-प्रतिबद्धता की परीक्षा
देस-परदेश : पश्चिम-एशिया कॉरिडोर में होगी पश्चिमी-प्रतिबद्धता की परीक्षा

 

g 20प्रमोद जोशी

जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि शीघ्र ही भारत से पश्चिम एशिया के रास्ते से होते हुए यूरोप तक एक कनेक्टिविटी कॉरिडोर के निर्माण का कार्य शुरू होगा. इस परियोजना में शिपिंग कॉरिडोर से लेकर रेल लाइनों तक का निर्माण किया जाएगा. सैकड़ों साल पुराना भारत-अरब कारोबारी माहौल फिर से जीवित हो रहा है.

इस परियोजना में दो कॉरिडोर बनेंगे. एक पूर्वी कॉरिडोर, जो भारत से जोड़ेगा और दूसरा उत्तरी (या पश्चिमी) कॉरिडोर, जो यूरोप तक जाएगा. इसके पहले ईरान और मध्य एशिया के देशों के रास्ते यूरोप तक जाने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर पर भी काम चल रहा है. उसमें भी भारत की भूमिका है, पर ईरान और रूस के कारण पश्चिमी देशों की भूमिका उस कार्यक्रम में नहीं है.

एशिया में प्रतिस्पर्धा

पश्चिम एशिया में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास उस परियोजना का हिस्सा नहीं जरूर नहीं है, पर चीन की दिलचस्पी भी इस इलाके में है और हाल में चीन ने ईरान, सऊदी अरब और यूएई के साथ संबंधों को प्रगाढ़ किया है. एक तरह से यह चीन के ‘बीआरआई’ और पश्चिम के ‘बी3डब्लू (बिल्ड बैक बैटर वर्ल्ड)’ के बीच प्रतियोगिता होगी.

पश्चिम एशिया के देश इस समय अपनी अर्थव्यवस्था के रूपांतरण पर विचार कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि खनिज तेल पर आधारित अर्थव्यवस्था ज्यादा समय तक चलेगी नहीं. नई अर्थव्यवस्था के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होगी.

जून, 2022 में जी-7देशों ने जर्मनी में हुए शिखर सम्मेलन में चीन के बीआरआई के जवाब में एक वृहद कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की थी. इसके बाद इस साल हिरोशिमा में इस विचार को और पक्का किया गया है. इसके तहत निम्न और मध्य आय वर्ग के देशों की सहायता के लिए 600अरब डॉलर से इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास किया जाएगा.

दिल्ली में की गई घोषणा उसी विचार के तहत है. यह कार्यक्रम ऐसे समय में घोषित किया गया है, जब पश्चिमी देश खुद मंदी के शिकार हो रहे हैं. इसलिए परीक्षा इस कार्यक्रम की भी है.

g 20

आर्थिक-रूपांतरण

सऊदी अरब ने अपने रूपांतरण के लिए विज़न-2030 तैयार किया है, जिसका अर्थ है 2030तक लागू होने वाला कार्यक्रम. इस रूपांतरण के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलू भी हैं. बदलाव इन सभी क्षेत्रों में आएगा.

Saudi Arabia and Gulf countriesके पास रेलवे लाइनें नहीं हैं. यह समझौता उसका समाधान करेगा. यह रूट विकसित होने से भारत के लिए पश्चिम एशिया से तेल लाना और अपना माल भेज पाना आसान हो जाएगा.

इससे पश्चिम एशिया में भी हालात बेहतर होंगे. स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के नए अवसर पैदा होंगे. यहाँ के देश एक दूसरे के क़रीब आएंगे. क्योंकि रेल नेटवर्क देशों को व्यापारिक रूप से क़रीब लाते हैं. रेलमार्ग से जुड़ने पर सामाजिक-संपर्क भी बेहतर होता है.

राजनीतिक-समाधान

इस परियोजना के अलावा अमेरिका इस कोशिश में है कि फलस्तीन की समस्या का समाधान भी इसके साथ हो जाए. यानी कि फलस्तीनियों को अपना स्वतंत्र देश मिले और अरब देश इसरायल को मान्यता दे दें. यह आसान काम नहीं है, पर यदि राजनीतिक-समझौता नहीं हुआ, तो कॉरिडोर की परियोजना को सफल बनाने में भी दिक्कतें पेश आएंगी. 

यह समझौता ऐसे दौर में हुआ है, जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन वैश्विक स्तर पर चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना का जवाब खोज रहे हैं. जी-20के मार्फत वे अमेरिका को विकासशील देशों के लिए वैकल्पिक सहयोगी और निवेशक के रूप में पेश कर रहे हैं. इस साल जनवरी में हिरोशिमा में हुए जी-7के शिखर सम्मेलन में इस परियोजना पर विचार हुआ, जिसके बाद इसमें तेजी आई.

इस परियोजना में भारत, अमेरिका, सऊदी अरब, यूएई, यूरोपियन संघ, फ्रांस, इटली और जर्मनी शामिल होंगे. समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार इस डील के तहत समुद्र के अंदर एक केबल भी डाली जाएगी जो इन क्षेत्रों को जोड़ते हुए दूरसंचार एवं डेटा ट्रांसफर में तेज़ी लाएगी. इस समझौते में ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन एवं ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था भी की जाएगी.

ऐतिहासिक-परियोजना

इस परियोजना को ‘इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर’ का नाम दिया गया है. जिस समय पीएम मोदी इस परियोजना की घोषणा कर रहे थे, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और सउदी अरब के शहज़ादा मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद और यूरोपियन कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन उनके पास थीं.

प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद जो बाइडन ने कहा, यह बहुत बड़ा काम है, बहुत बड़ा. उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा कि यह ऐतिहासिक है. अभी इस परियोजना के एमओयू पर दस्तखत हुए हैं, इसलिए इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. मसलन यह कब शुरू होगा, क्या खर्च आएगा, इसकी फंडिंग कैसे होगी वगैरह.

swez

स्वेज़ का विकल्प

स्वेज नहर के रास्ते के मुकाबले यह कॉरिडोर काफी किफायती और ज्यादा तेज गति से चलने वाले यातायात को उपलब्ध कराएगा. इसकी सहायता से इस इलाके में व्यापार और आवागमन आसान हो जाएगा और आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी. इसमें ग्रीन हाइड्रोजन जैसे अक्षय-ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल भी होगा.

इस परियोजना में पश्चिम एशिया के देश एक रेल नेटवर्क से आपस में जुड़ेंगे. इसके बाद उन्हें भारत से एक शिपिंग रूट के माध्यम से जोड़ा जाएगा. दूसरी तरफ इस नेटवर्क को पश्चिम में यूरोप से जोड़ा जाएगा. अमेरिका के डिप्टी एनएसए जॉन फाइनर ने मीडिया से बात करते हुए इस परियोजना की अहमियत को समझाया. उन्होंने कहा, यह शिपिंग और रेल परियोजना है.

रेल-नेटवर्क

इससे जुड़े अधिकारियों का कहना है कि इस परियोजना में पहले से मौजूद रेल लाइनों और बंदरगाहों की सुविधाओं को भी शामिल किया जाएगा. भारत और यूरोप में रेल नेटवर्क काफ़ी सघन है, किंतु पश्चिम एशिया में रेल नेटवर्क तुलनात्मक रूप से सघन नहीं है, जिसकी वजह से माल ढुलाई आमतौर पर सड़क या समुद्री रास्तों से होती है. रेल नेटवर्क बिछने से पश्चिम एशिया में एक कोने से दूसरे कोने तक माल का आवागमन आसान हो जाएगा.

भविष्य में भारत या दक्षिण पूर्व एशिया से आने वाले कंटेनर भारत के किसी बंदरगाह से समुद्री रास्ते से दुबई पहुँचेंगे, फिर वहाँ से इसरायल के हाइफ़ा बंदरगाह तक ट्रेन से जाएंगे. इसके बाद समुद्री और सड़क मार्गों से होते हुए यूरोप पहुँचेंगे. इससे पैसा और समय दोनों बचेंगे.

यह परियोजना वैश्विक व्यापार के लिए एक नया शिपिंग रूट उपलब्ध कराएगी. भारत या इसके आसपास मौजूद देशों से निकलने वाला माल स्वेज़ नहर से होते हुए भूमध्य सागर पहुंचता है. इसके बाद वह यूरोप तक पहुंचता है. उत्तर और दक्षिणी अमेरिका के देशों तक जाने वाला माल भूमध्य सागर से बरास्ता अटलांटिक  अमेरिका, कनाडा और लैटिन अमेरिकी देशों तक पहुँचता है.

स्वेज़ का संकट

इस समय अंतरराष्ट्रीय व्यापार का दस फीसद से ज्यादा हिस्सा स्वेज़ नहर के सहारे है. यहां छोटी सी दिक्कत आना भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर देता है. मार्च, 2021 में स्वेज़ नहर में फँसे एक विशाल जहाज़ को बड़ी मुश्किल से रास्ते से हटाया जा सका.

उस समय जहाज निकल गया, पर दुनिया के लिए कई तरह के सबक छोड़ गया है. इस अटपटी परिघटना के बाद सवाल उठा कि जब 19वीं सदी में बने एक ढाँचे में 21वीं सदी की तकनीक का इस्तेमाल होने लगता है तब क्या ऐसा ही होता है?

एक अहम समुद्री परिवहन मार्ग के अवरुद्ध होने से कुछ ऐसा ही हुआ. 23मार्च की सुबह कंटेनर ढोने वाला जहाज 'एवर गिवन' स्वेज़ नहर से गुजर रहा था. उसी समय वह थोड़ा टेढ़ा होकर किनारे से जा लगा और पूरी नहर ही अवरुद्ध हो गई. इससे स्वेज़ नहर के रास्ते होने वाली आवाजाही पूरी तरह बाधित हो गई. नहर के मुहाने पर इंतजार कर रहे जहाजों की लंबी कतार लग गई.

वैकल्पिक छोटा रास्ता

स्वेज़ नहर ने एक प्रकार की क्रांति की थी. इस नहर का इस्तेमाल करने से यूरोप एवं एशिया की यात्रा पर निकले किसी भी जहाज का 10-14दिन का समय बच जाता है. नहर का इस्तेमाल न करने पर जहाज को आशा अंतरीप (केप ऑफ गुडहोप) के रास्ते अफ्रीका महाद्वीप का पूरा चक्कर लगाकर जाना पड़ता.

इसके रास्ते रोजाना करीब 10अरब डॉलर मूल्य के उत्पादों का आवागमन होता है. इसमें वैश्विक तेल एवं गैस आपूर्ति का 10वां हिस्सा शामिल है. करीब 10वर्ष तक चले निर्माण के बाद इस नहर को आवागमन के लिए 1869में खोला गया था.

इस अद्भुत निर्माण परियोजना ने समूचे समुद्री व्यापार की सूरत ही बदलकर रख दी. 1869में जब नहर का निर्माण हुआ था तब जहाज काफी छोटे होते थे और पानी की सतह के नीचे भी वे कम गहरे हुआ करते थे. नहर को कई बार चौड़ा एवं गहरा किया गया है, लेकिन जहाजों का आकार बढ़ता ही जा रहा है.

वैश्विक-कारोबार

स्वेज नहर, पनामा नहर और ट्रांस-साइबेरियन रेलवे जैसी बड़ी परियोजनाओं ने विश्व व्यापार का रूप ही बदलकर रख दिया. कंटेनरों के आने से नई तरह की सुविधाएं पैदा हुईं. मानक आकार एवं रूप के कंटेनर होने से उन्हें जहाजों में लादने और रेलवे वैगनों एवं ट्रकों में ले जाने लायक ढाँचा बना पाना आसान हो गया है. नतीजा यह हुआ कि माल-ढुलाई के समय में काफी कमी आई है.

कंटेनरों के आने के पहले माल की लदाई एवं उतराई में कई दिन लग जाते थे. अब यह काम चंद घंटों में ही पूरा हो जाता है. कंटेनरों की ढुलाई के लायक जहाजों को बनाने से बड़े पैमाने पर तेल की भी बचत हुई है.

दुनिया अब एक नई व्यापारिक-क्रांति के मुहाने पर खड़ी है. यह समझौता दुनिया को एक नया ट्रेड रूट देगा. इससे स्वेज़ वाले मार्ग पर निर्भरता कम होगी. कभी उस रूट पर कोई समस्या खड़ी हुई भी, तो एक वैकल्पिक रूट उपलब्ध रहेगा.

इंडो-अरब कॉरिडोर

स्पेन के यूनिवर्सियाड डे नवार्रा में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्राध्यापक प्रोफेसर माइकेल टैंकम ने  2021में इस संभावना को जताया था कि मुंबई से ग्रीक बंदरगाह पिरेयस तक एक इंडो-अरब-भूमध्य सागरीय मल्टी-मोडल कॉरिडोर बनाया जा सकता है. इसमें इसरायली बंदरगाह हाइफ़ा और दुबई की बड़ी भूमिका होगी. यह रास्ता सऊदी अरब की मुख्य-भूमि से होकर गुजरेगा.

इस दिशा में चीन पहले से सक्रिय है. पर पूँजी, तकनीक और राजनीतिक-प्रभाव के नज़रिए से पश्चिमी देश उसकी तुलना में ज्यादा प्रभावशाली साबित हो सकते हैं. चीन पहले से ही पिरेयस के बंदरगाह को नियंत्रित करता है, जो ग्रीस का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह है. इसके अलावा तुर्की के तीसरे बड़े पोर्ट कुंपोर्ट पर भी चीन का नियंत्रण है. दक्षिण यूरोप के कई बंदरगाहों में चीन का शेयर है.

सिल्क रोड का पुनर्जन्म

चीन ने 2008के बाद से अपनी विदेश-नीति में बड़ा बदलाव किया और बाहरी देशों में पूँजी निवेश के बारे में सोचना शुरू किया. इसके बाद एक दशक पहले शी चिनफिंग ने अपनी पुरानी ‘सिल्क रोड’ को फिर से चालू करने की योजना बनाई. इसके लिए उन्होंने मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप में पैर फैलाए.

इस परियोजना को नाम दिया गया ‘वन बेल्ट, वन रोड इनीशिएटिव (बीआरआई).’ शी चिनफिंग इसे सदी की परियोजना कहते हैं. आज इस परियोजना से करीब 150देश जुड़ चुके हैं. इसके अंतर्गत चीन ने सैकड़ों अरब डॉलर की धनराशि कर्ज और अनुदान के रूप में बाँटी है.

china

साहूकार चीन

कई मायनों में चीन इस समय दुनिया का सबसे बड़ा साहूकार है. तमाम देशों को पूँजी की जरूरत भी है, क्योंकि उनके यहाँ इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत कमज़ोर है. सड़कों, पुलों, रेलमार्गों, बंदरगाहों वगैरह की उन्हें जरूरत है. चीन को इसका राजनीतिक-लाभ भी मिला है, जिसके सहारे उसकी सामरिक-शक्ति का विस्तार भी हुआ है.

दूसरी तरफ चीन के इस कार्यक्रम के दोष भी उजागर हुए हैं. कई देशों के सामने कर्ज के भुगतान की समस्या खड़ी हुई है. अब चीन भी अपने इस कार्यक्रम को नियंत्रित कर रहा है, क्योंकि उसे अपनी पूँजी पर बेहतर मुनाफे की दरकार है.

चीन के ज्यादातर सौदे अपारदर्शी हैं. कर्जों को सुचारु बनाए रखने की उसकी शर्तें भी खतरनाक हैं. दूसरी तरफ वह खुद भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं से कर्ज लेता है.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )