राजीव नारायण
“परमाणु ऊर्जा में बड़ी बढ़ोतरी के बिना दुनिया नेट-ज़ीरो लक्ष्य हासिल नहीं कर सकती।”
— फातिह बायरोली
दिल्ली की एक ठंडी शाम को, बिना किसी हंगामे या विरोध के, भारत ने अपने ऊर्जा भविष्य की दिशा में एक अहम कदम उठाया। संसद ने ऐसा कानून पारित किया, जिससे अब परमाणु ऊर्जा के नागरिक क्षेत्र में निजी कंपनियों की भागीदारी संभव हो गई है। यह फैसला किसी अचानक बदलाव का संकेत नहीं था, बल्कि यह दिखाता है कि भारत आने वाले मुश्किल दशकों के लिए अपनी ऊर्जा जरूरतों को नए तरीके से समझने और पूरा करने को तैयार है।
यह फैसला शांत माहौल में लिया गया, लेकिन इसका असर गहरा है। आज़ादी के बाद पहली बार भारत ने साफ तौर पर माना कि उसकी बढ़ती ऊर्जा जरूरतें और जलवायु से जुड़े वादे सिर्फ सरकारी संसाधनों से पूरे नहीं हो सकते। इसके लिए पूंजी, क्षमता और भरोसे का बड़ा दायरा चाहिए। परमाणु ऊर्जा हमेशा से भारत के लिए गर्व का विषय रही है—वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता और रणनीतिक ताकत का प्रतीक। लेकिन ज्यादा लागत, लंबा समय और संस्थागत सतर्कता के कारण इसका विस्तार धीमा रहा। निजी भागीदारी का मतलब पुरानी सोच छोड़ना नहीं, बल्कि उसे बदलते भविष्य के अनुसार आगे बढ़ाना है।
अभी परमाणु ऊर्जा क्यों
भारत की ऊर्जा जरूरतें तेजी से बढ़ रही हैं। आने वाले वर्षों में बिजली की मांग दोगुनी से भी ज्यादा हो सकती है। साथ ही भारत ने कार्बन उत्सर्जन कम करने और नेट-ज़ीरो की ओर बढ़ने का वादा किया है। विकास और पर्यावरण,दोनों को साथ लेकर चलना आसान नहीं है।
सौर और पवन ऊर्जा ने बड़ा बदलाव किया है। लेकिन ये स्रोत लगातार बिजली नहीं दे पाते। भंडारण तकनीक बेहतर हो रही है, फिर भी बिजली व्यवस्था को एक स्थिर आधार चाहिए। परमाणु ऊर्जा यही काम करती है—लगातार बिजली देती है और प्रदूषण भी बहुत कम होता है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी भी मानती है कि परमाणु ऊर्जा के बिना कार्बन कम करना ज्यादा मुश्किल और महंगा होगा।
भारत की परमाणु क्षमता अभी उसकी जरूरतों के मुकाबले कम है। 2047 तक इसे काफी बढ़ाने का लक्ष्य इसी सच्चाई को दर्शाता है। इसलिए निजी भागीदारी एक प्रयोग नहीं, बल्कि जरूरत है।
निजी भागीदारी का मतलब
निजी भागीदारी का मतलब यह नहीं कि सरकार का नियंत्रण खत्म हो जाएगा। सुरक्षा, नियम और निगरानी सरकार के पास ही रहेंगे। फर्क सिर्फ इतना है कि पूंजी, प्रोजेक्ट पूरा करने की क्षमता और तकनीकी साझेदारी में निजी क्षेत्र मदद करेगा। परमाणु परियोजनाओं में बहुत पैसा और लंबा समय लगता है। सरकार पर पहले से कई जिम्मेदारियां हैं। ऐसे में निजी निवेश से काम तेज हो सकता है।
ऊर्जा विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम दिखाता है कि भारत कोयले की जगह परमाणु ऊर्जा को मजबूत आधार बनाना चाहता है। यह फैसला विचारधारा से ज्यादा व्यवहारिक जरूरतों पर आधारित है।
सावधानी भी जरूरी
परमाणु ऊर्जा में छोटी गलती भी भारी पड़ सकती है। इसलिए सुधार के साथ सावधानी जरूरी है। लागत एक बड़ा मुद्दा है। अगर नियम सही न बने, तो बिजली महंगी हो सकती है। सुरक्षा सबसे अहम है। भारत का सुरक्षा रिकॉर्ड अच्छा रहा है और इसे और मजबूत करना होगा। नियम बनाने वाली संस्थाएं स्वतंत्र और सक्षम होनी चाहिए। स्थानीय लोगों से खुली बातचीत और भरोसा बनाना भी जरूरी है।
संस्थाएं और भरोसा
परमाणु ऊर्जा सिर्फ तकनीक नहीं, भरोसे का भी मामला है। भारत के पास अच्छे वैज्ञानिक और अनुभव है, लेकिन नियम बनाने वाली संस्थाओं को और मजबूत करना होगा। पारदर्शिता बढ़ाने और लोगों को सही जानकारी देने से डर कम होगा और समझ बढ़ेगी।
यह बदलाव नए रिएक्टर डिज़ाइन और छोटी इकाइयों (स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर) जैसे नवाचारों का मौका भी देता है। अगर निजी क्षेत्र प्रयोग करे और सरकार मानक तय रखे, तो भारत नई तकनीक में आगे निकल सकता है।
संतुलित ऊर्जा भविष्य
भारत की ऊर्जा जरूरतें किसी एक स्रोत से पूरी नहीं होंगी। सौर, पवन, जल, भंडारण, ऊर्जा बचत और परमाणु—सबको साथ चलना होगा। परमाणु ऊर्जा का काम नवीकरणीय ऊर्जा की जगह लेना नहीं, बल्कि उसे स्थिर आधार देना है।निजी भागीदारी को धीरे-धीरे और सोच-समझकर लागू करना चाहिए। छोटे प्रोजेक्ट, खुली समीक्षा और सीखने की प्रक्रिया से यह सुधार मजबूत होगा।
परमाणु ऊर्जा में समय लगता है और जिम्मेदारी लंबे समय तक रहती है। इस क्षेत्र को खोलकर भारत ने दिखाया है कि वह चुनावी चक्र से आगे, आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोच रहा है। जलवायु संकट और ऊर्जा अनिश्चितता के इस दौर में, यही दूरदर्शिता सबसे बड़ी ताकत हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और संचार विशेषज्ञ हैं।)