दस लाख ज़ायरीनों ने दी अमन की गवाही, ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ का पैग़ाम फिर हुआ ज़िंदा

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 30-12-2025
Ten lakh pilgrims bore witness to peace, and the message of Khwaja Garib Nawaz was revived once again.
Ten lakh pilgrims bore witness to peace, and the message of Khwaja Garib Nawaz was revived once again.

 

आवाज़ द वॉइस | अजमेर,राजस्थान)

अजमेर शरीफ़ एक बार फिर मोहब्बत, अमन और इंसानी भाईचारे का ज़िंदा पैग़ाम बनकर दुनिया के सामने आया, जब हज़रत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (रह.) का 814वां सालाना उर्स मुक़म्मल अकीदत और रूहानियत के साथ संपन्न हुआ। उर्स के इख़्तिताम पर रब्बे करीम का दिल से शुक्र अदा किया गया कि दस लाख से ज़्यादा ज़ायरीनों की आमद से अजमेर शरीफ़ रौशन रहा। हर मज़हब, ज़बान, मुल्क और तहज़ीब से आए लोगों ने अदब, दुआ और मोहब्बत के साथ इस मुक़द्दस दरगाह पर हाज़िरी दी, जहाँ तमाम पहचानें बेमानी हो गईं और सिर्फ़ इंसानियत बाक़ी रही।

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fतीन दिनों तक चला यह उर्स महज़ एक धार्मिक आयोजन नहीं रहा, बल्कि आज की बेचैन और बंटी हुई दुनिया के लिए अमन का मज़बूत पैग़ाम बनकर उभरा। दरगाह के अहाते में उठी दुआओं, खामोश सज्दों और आपसी मुस्कुराहटों ने यह साबित किया कि सच्ची रूहानियत दिलों को जोड़ने का काम करती है। आठ सौ साल से भी अधिक समय से अजमेर शरीफ़ वह रूहानी मरकज़ रहा है, जहाँ मायूस दिलों को सुकून मिलता है और इंसान अपने भीतर की उम्मीद को फिर से तलाश पाता है।

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ (रह.) की तालीम—“सबसे मोहब्बत, किसी से अदावत नहीं”—उर्स के हर लम्हे में महसूस की गई। यह पैग़ाम किसी एक मज़हब या समुदाय तक सीमित नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए है। ज़ायरीन चाहे किसी भी पहचान से आए हों, दरगाह की चौखट पर सब बराबर नज़र आए। इबादत की ख़ामोशी और सामूहिक दुआ के लम्हों ने यह भरोसा और मज़बूत किया कि मोहब्बत, रहम और इंसाफ़ ही अमन की असली बुनियाद हैं।

ऐसे समय में, जब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से हिंसा, नफ़रत और असुरक्षा की ख़बरें सामने आती रहती हैं, अजमेर शरीफ़ से उठा यह पैग़ाम उम्मीद की तरह सामने आया। उर्स के दौरान न सिर्फ़ भारत, बल्कि दुनिया भर में अमन, भाईचारे और इंसानी गरिमा की हिफ़ाज़त के लिए दुआएँ मांगी गईं। बांग्लादेश समेत उन तमाम इलाक़ों के लिए भी ख़ास तौर पर दुआ की गई, जहाँ अल्पसंख्यक और कमज़ोर तबक़े डर और असुरक्षा के साए में जी रहे हैं। ज़ायरीनों ने एक स्वर में कहा कि बेगुनाह की जान की क़ीमत हर जगह एक जैसी होती है और दर्द किसी एक क़ौम या मज़हब तक सीमित नहीं होता।

दरगाह परिसर में यह एहसास साफ़ झलकता रहा कि भारत की रूह विविधता और सह-अस्तित्व में बसती है। अजमेर शरीफ़ इसकी सबसे ख़ूबसूरत मिसाल है, जहाँ सदियों से हर मज़हब और पंथ के लोग सुकून और दुआ की तलाश में आते रहे हैं। उर्स ने एक बार फिर यह संदेश दिया कि विविधता कोई बोझ नहीं, बल्कि समाज की सबसे बड़ी ताक़त है।

उर्स के समापन अवसर पर समाज के हर वर्ग से यह अपील भी की गई कि आने वाले समय में नफ़रत और डर की जगह संवाद, समझ और करुणा को चुना जाए। सरकारों, धार्मिक नेताओं, मीडिया और सिविल सोसाइटी से आग्रह किया गया कि वे इंसानियत के साझा मूल्यों को मज़बूत करने में अपनी भूमिका निभाएँ। यह ज़ोर देकर कहा गया कि धर्म का मक़सद जीवन की हिफ़ाज़त और दिलों को नरम बनाना है, न कि उसे सियासत या टकराव का औज़ार बनाना।

जैसे ही दुनिया 2026 की ओर बढ़ रही है, अजमेर शरीफ़ की मुक़द्दस देहरी से उठी दुआ यही है कि आने वाला साल अमन, इंसाफ़ और उम्मीद का साल बने। जहाँ तफ़रीक़ की जगह बातचीत हो, हिंसा की जगह इंसानियत और ख़ुदग़र्ज़ी की जगह ख़िदमत को तरजीह मिले। ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ (रह.) की दरगाह से उठा यह पैग़ाम आज भी उतना ही ज़िंदा है—मोहब्बत बाँटो, दिल जोड़ो और इंसानियत को सबसे ऊपर रखो।