मुस्लिम बेटियों की खुशियां निगल रहा दहेज

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 07-12-2022
मुस्लिम बेटियां
मुस्लिम बेटियां

 

firdousफिरदौस खान

हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहेज का चलन तेजी से बढ़ रहा है. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वालिदैन लड़की के गुणों से ज्यादा दहेज को तरजीह दे रहे हैं. शादियों में दहेज का खूब लेन-देन हो रहा है. शादियों पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. मुआशरे में ऐसी महंगी शादियां मिसाल बन रही हैं. रिश्तेदार ही नहीं, बल्कि आस-पड़ोस के लोग भी इन शादियों का गुणगान करते नहीं थकते. जिनके पास पैसा है, वे तो खर्च कर लेते हैं, लेकिन जिनके पास पैसा नहीं है, वे क्या करें?

ऐसे में उनके लिए ऐसी शादियां ख्वाहिश या खलिश बनकर रह जाती हैं. अफसोस की बात है कि ऐसी शादियों की वजह से गरीबों की बेटियां कुंवारी बैठी रह जाती हैं. ये दिखावा उनकी खुशियां निगल रहा है.

दहेज को लेकर मुसलमानों की एक राय नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को गैर इस्लामी करार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज मानते हैं. उनका तर्क है कि हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी अपनी बेटी फातिमा जहरा रजियल्लाहु तआला अन्हा को कुछ सामान यानी दहेज दिया था.

खास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान यह भूल जाते हैं कि पैगम्बर ने अपनी बेटी को शादी में बेशकीमती चीजें नहीं दी थीं. इसलिए उन चीजों का दहेज से मुकाबला ही नहीं किया जा सकता. यह तोहफे के तौर पर थीं और तोहफा मांगा नहीं जाता, बल्कि देने वाले पर निर्भर करता है कि वह तोहफे के तौर पर क्या देता है, जबकि दहेज के लिए लड़की के वालिदैन को मजबूर किया जाता है.

लड़की के वालिदैन अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े. हालांकि ‘इस्लाम’ में दहेज की प्रथा नहीं है.

काबिले-गौर है कि दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनकी पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी महरूम कर दिया जाता है. इसके लिए तर्क दिया जाता है कि उनकी शादी और दहेज में काफी रकम खर्च होती है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता.

खास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रकम तय करते वक्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का हवाला दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को ‘ताख’  पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है. हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के घरवालों की जेब कटनी शुरू हो जाती है.

जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं, तो सबसे पहले यह देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गईं हैं, यानी कितनी तरह की मिठाइयां, मेवे और फल रखे गए गए हैं. इतना ही नहीं, दावतें भी मुर्गे और मटन की ही चल रही हैं. फिलहाल नाश्ते में 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है. शादी में दहेज के तौर पर सोने-चांदी के जेवरात, फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कीमती कपड़े और ताम्बे- पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं. इसके बावजूद दहेज में कार और मोटर साइकिल भी मांगी जा रही है, भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह तेल का खर्च भी उठा सके. जो वालिदैन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं.

पुरानी दिल्ली की रुखसार उम्र के 55 बसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेहंदी नहीं सजी. वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं. इसलिए उनके वालिदैन रिश्ते का इंतजार करते रहे.

वे बेहद गरीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए. अगर उनके वालिदैन दहेज देने की हैसियत रखते, तो शायद आज वह अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता. उनके अब्बू और अम्मी कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए.

घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं. सबकी अपनी खुशहाल जिन्दगी है. वह दिन भर बटवे का काम करती हैं और साथ ही घर का काम-काज भी करती हैं. अब बस यही उनकी जिन्दगी है.

ये अकेली रुखसार का किस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसी हजारों लड़कियां हैं, जिनकी खुशियां दहेज रूपी लालच निगल चुका है.  

राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का सद्दाम से निकाह हुआ था. शादी के वक््त दहेज भी दिया गया था, इसके बावजूद उसका शौहर और उसके ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. उसके साथ मारपीट की जाती.

जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया, तो उसके ससुराल वालों ने मारपीट करके उसे घर से निकाल दिया. अब वह अपने मायके में है. मुस्लिम समाज में गुड्डी जैसी हजारों औरतें हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है.

इस्लाम में बेटियों का दर्जा

अरब देशों में पहले लोग अपनी बेटियों को जिदा दफना दिया करते थे, लेकिन अल्लाह के नबी हजरत मुहम्मद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस घृणित प्रथा को खत्म करवा दिया. उन्होंने मुसलमानों को अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने की तालीम दी. लेकिन बेहद अफसोस की बात है कि आज हम अपने नबी के बताये रास्ते से भटक गए हैं.

एक हदीस के मुताबिक पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, ‘जिस की तीन बेटियां या तीन बहनें, या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उसने अच्छी तरह रखा और उनके बारे में अल्लाह से डरता रहा, तो वह जन्नत में दाखिल होगा.’ (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्याः 446)

एक अन्य हदीस के मुताबिक, ‘एक व्यक्ति अल्लाह के पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और सवाल किया कि ऐ अल्लाह के नबी! मेरे अच्छे बर्ताव का सबसे ज्यादा हकदार कौन है? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- तुम्हारी मां. उसने कहा कि फिर कौन ?

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- तुम्हारी मां. उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- तुम्हारी मां. उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- तुम्हारा बाप. फिर तुम्हारे करीबी रिश्तेदार.- (सहीह बुखारी हदीस संख्याः 5626, सहीह मुस्लिम हदीस संख्याः 254)

इस्लाम ने महिला को एक मां, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान दिया है. अल्लाह ने इसका जिक्र करते हुए कुरआन में फरमाया है- ‘‘और जब उनमें से किसी को लड़की की पैदाइश की खुशखबरी दी जाती है, तो रंज से उसका चेहरा स्याह हो जाता है और वह गुस्से से भर जाता है.

वह कौम से छुपा फिरता है, उस खबर की वजह से जो उसे सुनाई गई है. वह सोचता है कि उसे रुसवाई के साथ जिन्दा रखे या जिन्दा मिट्टी में दफन कर दे. जान लो कि तुम लोग कितना बुरा फैसला करते हो.  (16: 58-59)

‘‘और जब जिन्दा दफनाई गई लड़की से पूछा जाएगा कि उसे किस गुनाह की वजह से कत्ल किया गया?’’ (81ः 8,9)

कन्या भ्रूण हत्या

मुसलमानों में बढ़ती दहेज प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई भी पनप रही है. उनमें भी लड़कों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है. इसकी वजह से लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मां की कोख में मौत की नींद सुला दिया जाता है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक मुस्लिम समुदाय में कुल लिंग अनुपात- 950: 1000 है, जो हिन्दू समुदाय के लिंग अनुपात- 925: 1000 से बेहतर कहा जा सकता है. हालांकि इस मामले में ईसाई समुदाय देश में अव्वल है. इस समुदाय में कुल लिंग अनुपात 1009: 1000 है. औसत राष्ट्रीय लिंग अनुपात 933: 1000 है.

मुरादाबाद की शकीला कहती हैं कि उनके ससुराल वाले बेटा चाहते थे. इसलिए हर बार बच्चे के लिंग की जांच कराते और लड़की होने पर गर्भपात करवा दिया जाता. उनके चार बेटे हैं. इन चार बेटों के लिए वह  अपनी पांच बेटियों को खो चुकी हैं. उन्हें इस बात का बेहद दुख है. लाचारी जाहिर करते हुए वह कहती हैं कि एक औरत कर भी क्या कर है? इस मर्दाने समाज में औरत के जज्बात की कौन कद्र करता है.

मुसलमानों में लिंग जांचने और कन्या भ्रूण हत्या को लेकर दारूल उलूम नदवुल उलमा (नदवा) और  फिरंगी महल के दारूल इफ्ता फतवे जारी कर चुके हैं. फतवों में कहा गया था कि शरीयत गर्भ की लिंग आधारित जांच की इजाजत नहीं देती, इसलिए यह नाजायज है. ऐसा करने से माता-पिता और इस घृणित कृत्य में शामिल लोगों को गुनाह होगा. काबिले- गौर बात यह है कि ऐसे फतवे कभी-कभार ही आते हैं और इनका प्रचार-प्रसार भी नहीं हो पाता.

दहेज के खिलाफ आगे आई मुस्लिम तंजीमें

खुशनुमा बात यह है कि मुस्लिम तंजीमें दहेज के खिलाफ आगे आ रही हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता जाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने कर दी है.

बोर्ड की एक बैठक में मुस्लिम समाज में शादियों में फिजूलखर्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ मस्जिदों में ही करवाया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें. साथ ही इस बात का भी ख्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर खर्च का ज्यादा बोझ न पड़े, जिससे गरीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके.

इस्लाह-ए-मुआशिरा यानी समाज सुधार की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीका क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है, जिसमें सबसे कम खर्च हो. मुसलमानों से यह भी अपील की गई कि वे अपनी बीवियों के साथ अच्छा बर्ताव करें. साथ ही इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रशिक्षित किए जाने पर जोर दिया गया, ताकि लोगों में इस्लाम की तालीम पहुंचे और लोग बुराई से बचें. 

इसमें दो राय नहीं है कि बोर्ड का यह कदम काबिले-तारीफ है. लेकिन सिर्फ बयानबाजी से कुछ होने वाला नहीं है. दहेज और कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने की जरूरत है. इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं. जुमे की नमाज के बाद इमाम नमाजियों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि ये बुराइयां किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है. इसके अलावा महिलओं को भी जागरूक करने की जरूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच मर्दों से ज्यादा औरतों को ही होता है. 

अफसोस की बात तो यह भी है कि मुसलिम समाज अनेक फिरकों में तकसीम हो गया है. अमूमन सभी फिरके खुद को ‘सच्चा मुसलमान’ साबित करने में ही जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान जाता ही नहीं है. बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर मजहब के अलमबरदार कुछ ‘सार्थक’ काम भी कर लें, तो मुसलमानों का कुछ तो भला हो जाए. दीन ने आसानियां पैदा की हैं. ये हम ही हैं कि दिखावे के चक्कर में खुद अपने लिए मुश्किलें पैदा करने पर तुले हुए हैं.

(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फहम अल कुरआन लिखा है.)