पाकिस्तान में लोकतांत्रिक स्तंभों की लड़ाई

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 25-05-2024
Battle of democratic pillars in Pakistan
Battle of democratic pillars in Pakistan

 

suhelसोहेल वाराइच

शुक्र है कि पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू नहीं हुआ है, इसलिए लोकतंत्र की उम्मीदें हैं, लेकिन लोकतंत्र के स्तंभों की लड़ाई से ये उम्मीदें खत्म होती जा रही हैं.एक ओर जहां निर्वाचित सदनों और न्यायपालिका के प्रभुओं में मौखिक और कानूनी युद्ध चल रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इसमें शामिल कर मीडिया और नॉन लीग के बीच संघर्ष शुरू हो गया है.

इन दो लड़ाइयों से परे, एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई है जो सरकार और तहरीक-ए-इंसाफ के बीच चल रही है . उसके बाद सबसे बड़ी लड़ाई नागरिक वर्चस्व की है, जिसमें तहरीक-ए-इंसाफ आज सबसे आगे है और अंदरूनी इस टकराव की कहानी दमदार है.

जिस देश में सभी युद्ध एक साथ चल रहे हों, देश की आर्थिक स्थिति भी खराब हो, किसी पड़ोसी देश से प्रतिस्पर्धा हो और दूसरे पड़ोसी देश से आतंकवादी आकर तबाही मचा रहे हों, ऐसे युद्ध होते रहेंगे .अब जो लोग लड़ते रहते हैं वे या तो सचेत नहीं हैं या उन्हें भविष्य की परवाह नहीं है या वे इन झगड़ों की आग में पानी डालने में सक्षम नहीं हैं.लोकतंत्र एक सफल और समृद्ध प्रणाली है.

पाकिस्तान का संविधान लोकतंत्र के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर बनाया गया है. निर्वाचित सदन, जो आम लोगों की इच्छा और पसंद से चुना जाता है, के पास कानून बनाने की शक्ति होती है. न्यायपालिका संसद और संविधान द्वारा बनाये गये कानूनों की व्याख्या करती है.

 दोनों संस्थाओं की बुनियाद लोकतांत्रिक है, लेकिन अगर ये सिर पर आ गईं तो पहले दोनों संस्थाओं को नुकसान होगा और फिर लोकतंत्र को.वर्तमान स्थिति यह है कि हमारे प्यारे लॉर्ड्स की निर्वाचित सदनों में आलोचना की जा रही है और दूसरी ओर, हमारे लॉर्ड्स, जस्टिस खोसा, जब उन्होंने नवाज शरीफ को सिसिली माफिया कहा, तो वह खुद किसी के प्रॉक्सी थे कि कल निर्वाचित प्रतिनिधि और लॉर्ड्स लोकतंत्र की हानि के बाद, उन्हें एहसास हुआ कि वे दोनों एक विशेष हित के प्रतिनिधि बन गए हैं.

लोकतंत्र के एक विनम्र प्रेमी के रूप में, दोनों पक्षों से अनुरोध है कि वे दूरगामी लोकतांत्रिक और संवैधानिक हित को ध्यान में रखते हुए अपनी भावनाओं को शांत रखें, दोनों अपने वर्तमान पदों से पीछे हटें और बीच का रास्ता अपनाएं.

हमने अतीत में देखा है कि न तो निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाया गया और न ही जस्टिस लॉर्ड्स के खिलाफ सरकारों द्वारा लगाए गए आरोपों और संदर्भों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया गया. दोनों ही दृष्टिकोण गलत हैं. दोनों पक्षों के चरमपंथी आग लगा रहे हैं.

याद रखें कि देश अतिवाद और बाज़ों के गुस्से से नहीं, नेताओं की शांतिवाद और समझदारी से चलता है. लोकतंत्र एक-दूसरे को पहचानने का नाम है. माननीय न्यायाधीश और माननीय विधायक दोनों अपने घोड़े रोकें, शांति की सराय में शरण लें और लोकतंत्र को चलने दें. उनमें से एक की उदासीनता की सजा पूरे देश को मिलेगी.

क्या हमें इतिहास से यह सबक नहीं मिलता कि जिस देश में इतने अंदरूनी झगड़े हों और इस आग में घी डालने वाले बहुत से लोग हों, उस देश का भविष्य अंधकारमय होने से कोई नहीं रोक सकता. दुर्भाग्य से युद्धों की जलती हुई आग को बुझाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.

हमारा मुख्यधारा मीडिया पहले से ही आदेशों, नियमों  और सख्त प्रतिबंधों के कारण सोशल मीडिया से पिछड़ रहा है. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में गेटकीपिंग की एक प्रभावी प्रणाली है. यानी  छलनी के माध्यम से समाचार और विश्लेषण पारित करना, निरंतर निगरानी है सरकारी एजेंसियों की फटकार और सार्वजनिक एवं न्यायिक जवाबदेही के अलावा मुख्यधारा के मीडिया को नए मानहानि कानून का शिकार बनाना उसे चुप कराने के समान है.


मुख्यधारा की मीडिया के लिए पर्याप्त कानून हैं, सोशल मीडिया के लिए नए कानून बनने चाहिए, लेकिन इसके लिए हितधारकों से भी सलाह ली जानी चाहिए.लोकतंत्र प्रत्येक व्यक्ति और संगठन को अपने अधिकारों और अधिकार के लिए संघर्ष करने की अनुमति देता है, लेकिन किसी भी व्यक्ति या संगठन को संवैधानिक सीमाओं को पार करने की अनुमति नहीं देता है.

मेरी नम्र  राय है कि हर संस्था एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी संवैधानिक सीमाओं को लांघ रहा है, यही कारण है कि संकट एक-एक कर बढ़ते जा रहे हैं?एक लोकतांत्रिक समाज में यदि हम सभी के पास अधिकार हैं तो हमारी जिम्मेदारियाँ भी हैं, व्याख्या के निकाय की भी अपनी सीमाएँ हैं. 

अगर कुछ जज संसद का ही मजाक उड़ाते हैं, अगर 3 पक्षपाती जज करोड़ों लोगों द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री को घर भेज देते हैं तो ये मर्यादाओं का उल्लंघन है या आज एक सम्मानित जज की तरह अगर वो लोगों को प्रॉक्सी कहते हैं तो ये शोभा नहीं देता.  अदालत की अवमानना ​​के नोटिस जारी कर दूसरों को नीचा दिखाने और नीचा दिखाने की पुरानी परंपरा भी अब खत्म होनी चाहिए.

ख्वाजा साद रफीक को लोहा बीनने वाला कहकर अपमानित किया गया. पीकेएलआई डॉक्टर का सार्वजनिक रूप से अपमान किया गया, नेशनल डिफेंस हॉस्पिटल के मालिक का उपहास किया गया, जस्टिस खोसा ने प्रधानमंत्री को सिसिली माफिया का हिस्सा कहा और जस्टिस अज़मत शेख की जेल की गुहार अभी तक टली नहीं है. मन की बात है कि हमारे प्रिय न्यायाधीश भी उसी घोड़े पर सवार थे जो अंततः छलांग लगाने के बाद सवार को गिरा देता है.

कृपया, सभी को अपनी सीमा में रहना चाहिए. चाहे वह "बारा तरार" हो या कराची का मुख्य वाडा, "मामोर मिनुल्लाह" या "पसार सत्तार" हो. हमारे लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार को पार करना पूरी तरह से गलत है. वैसे भी सभी लड़ाके गलत हैं...!

( लेख जंग से साभार )